Remembering the “Greatest General of the Indian Military History” – General Zorawar Singh Kalhuria on his Janma Diwas !
Born in a Chandel Rajput family, he Conquered Tibbet, Gilgit, Skardu & Baltistan.
He is the reason why we still have a claim on Aksai Chin & POJK.
He brought back the control of holy lands of Kailash and Mansarovar under the Hindus who had been deprived of these revered possessions for centuries.
General Zorawar Singh defeated the Baltis and deposed Ahmad Shah, whose eldest son, Muhammad Shah, was installed as the new king of Baltistan, 180 years ago leading Jammu & Kashmir State Forces, at the Battle of To Yo, fought close to Toklakam.
Under his leadership Dogras captured the standard/flag of the enemy which is called as the ‘Mantalai Flag’ and is the most prized possession even today with the 4th battalion of the Jammu & Kashmir Rifles.
Forgotten Warrior of India General Zorawar Singh was honoured even by his enemy and they built a proper memorial in his memory at Toyo, the place where he fell fighting. Today a chorten exists at that place and it is called the Singhba Chorten which is highly revered by the locals.
13 अप्रैल- महान सेनानी जनरलजोरावरसिंह जी के जन्म दिवस पर शत.शत नमन करते हैं !
लद्दाख जिस वीर सेनानी के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह। 13 अप्रैल, 1786 को इनका जन्म ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में ठाकुर हरजे सिंह के घर में हुआ था।
ठाकुर हरजे सिंह बिलासपुर की कहलूर रियासत में काम करते थे। अतः गाँव की खेती उनके भाई देखते थे। 16 वर्ष की अवस्था में जोरावर का अपने चाचा से विवाद हो गया। अतः ये घर छोड़कर हरिद्वार, लाहौर और फिर जम्मू पहुँचकर महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।
राजा ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया। वे अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। अतः जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया। किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया।
यह समाचार सुनकर सुरू के तट पर वकारसी ने 200 सैनिकों के साथ तथा दोरजी नामग्याल ने 5,000 सैनिकों के साथ सुनकू में मुकाबला किया; पर हारकर वे रूसी दर्रे (जोत) से होकर शोरगुल की ओर भाग गये। डोगरा सेना लेह में घुस गयी। इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया।
अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया। लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे। अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं, तो उसे सन्धि करनी पड़ी। जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया। हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़ गये।
अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये। अब ये लोग मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गये। 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया, पर वे पराजित हुए। जोरावर सिंह तिब्बत, भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।
इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई। राक्षसताल के पास वे सब मारे गये। जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे; पर वे सब भी मारे गये।
अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े। वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे; पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया। दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला।
12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। घोड़े से गिरने के बाद ज़ोरावर सिंह ने अपनी तलवार निकली और उससे दुश्मनो पर टूट पड़े , जो उनूंके नज़दीक आया वो स्वर्ण दीथारता गया इस बीच एक तिब्बती सैनिक ने उनकी पीठ पर भाले से वार किया और वह भाला जनरल साहब की छाती के आर पार हो गया , ये देख सभी डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी। तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे। बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया।
‘सिंह छोतरन’ नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है। तिब्बती इसकी पूजा करते हैं। इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी।
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