‘बनें सो रघुवर सों बनें’- बात तब की है जब दिल्ली का मुगल बादशाह अकबर शुरुआती हिंदू कत्लेआम और लंपट गिरी वाली हरकतों के बाद अपनी छवि सुधारने के लिए सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों के तर्ज पर अपना भी नवरत्न दरबार बनाने का प्रयास कर रहा था ।इसी प्रयास में उसके एक कवि दरबारी अब्दुर्रहीम खानखाना के कहने पर उसने श्री तुलसीदास जी को भी अपना दरबारी बनाने के लिए न्योता भेजा परंतु श्री तुलसीदास जी ने ‘हम चाकर रघुबीर के …..’और ‘बनें सों रघुवर सों बने …..’ कहकर प्रस्ताव को एक स्वाभिमानी हिंदू संत की तरह ठुकरा दिया ।
उन्होंने जो पद्य लिखा वह निम्न प्रकार से है।
हम चाकर रघुवीर के–
“हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?
अर्थ: हमारी नौकरी तो एकमात्र श्री रघुवीर राम जी के प्रति है और उन्हीं। के दरबार में हमारा न।लिखा है । अब ऐसे दैवीय भगवान का सेवक होना छोड़कर क्या अब ये तुलसीदास किसी मनुष्य राजा का सेवक दरबारी बनेगा?
तुलसी अपने राम को–
तुलसी अपने राम को रीझ भजो कै खीज,
उलटो-सूधो ऊगि है खेत परे को बीज।
अर्थ : इस तुलसीदास के लिए अपने स्वामी श्री राम जी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता जो भी मिले वो दोनो ही स्वीकार है । क्योंकि वो किसी भी प्रकार से मेरा भला जी करेगा। जैसे मिट्टी में पड़ा हुआ बीजा चाहे उल्टा सीधा जैसा भी पड़ा हो उगता और फसल देता ही है ।
बनें सो रघुवर सों बनें–
बनें सो रघुवर सों बनें, कै बिगरे भरपूर;
तुलसी बनें जो और सों, ता बनिबे में धूर।
अर्थ: जो कुछ भी में बनूं वो प्रभु श्री राम जी किही कृपा से ही बनूं नही तो पूरा बिगड़ ही जाऊं तो भी कोई परवाह नहीं। इसके अलावा यदि और कोई मुझे कुछ भी बनाता है वह मेरे लिए मिट्टी के समान ही है अर्थात व्यर्थ है।
चातक सुतहिं सिखावहीं–
चातक सुतहिं सिखावहीं, आन धर्म जिन लेहु,
मेरे कुल की बानि है स्वाँति बूँद सों नेहु।”
अर्थ: चातक पक्षी भी अपने पुत्र को सिखाता है की दूसरे का धर्म कभी मत ग्रहण करना अर्थात दूसरा कोई पानी कभी भी मत ग्रहण करना क्योंकि हमारे कुल की रीति ही है केवल स्वाति नक्षत्र के पानी पीना अतः भले ही मर जाओ पर दूसरे का धर्म कभी भी मत स्वीकार मत करना ।
इन्ही सुंदर पंक्तियों के साथ श्री तुलसीदास जी ने अपने धर्म की दृढ़ता और भगवान श्री राम।में अपनी भक्ति को सबसे ऊपर प्रतिस्थापित किया ।
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