June 10, 2023

साम दाम अरू दंड विभेदा, नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा

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साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥

अर्थ : साम, दाम , दंड , भेद ये चार राज काज चलने कि ये चार नीतियां हैं। ये सभी राजा के हृदय में सदैव ही विराजमान होती है। ऐसा वेदों में लिखा हुआ है।

साम दाम दंड भेद का अर्थ ( Meaning of Saam Daam Dand Bhed)

व्याख्या : यहाँ पर चार शब्द प्रयोग किये गए हैं साम , दाम दंड भेद। राज-काज चलने के लिए ये चार नीतियां बताई गयी हैं। आइये इनका अर्थ समझते हैं।

  • साम- ‘साम’ अर्थात ‘समता’ से अर्थ यह है कि किसी को समझाने बुझाने से या सम्मान दे कर कोई समस्या सुलझाई जाय। जैसे प्रभु श्री राम ने सुग्रीव जी को मित्र बनाकर उनकी सहायता की थी।
  • दाम – जब किसी को धन दे कर कोई कार्य कराया जाय तो इस नीति को दाम कहा जाता है।
  • दंड – जब कोई कार्य साम और दाम से भी न हो तो उसे दंड अर्थात दण्डित करके , सजा देकर सुलझाया जाता है।
  • भेद – कभी-कभी अगर शत्रु पक्ष में यदि कई लोग हों तो उनके अंदर मतभेद भी पैदा किया जाता है। यह नीति भी कई बार मनोवांछित सफलता प्रदान करती है।

उपरोक्त चारो नीतियां अलग अलग, कुछेक साथ में या सारी एक साथ में भी प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि यह नीतियां वेद में लिखी हैं परन्तु येह सभी आज भी प्रयुक्त होती हैं और सफल हैं। राजा के लिए उचित है कि जहाँ जैसे आवश्यकता है वैसे ही धर्मरक्षा के लिए प्रयोग करें।

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सन्दर्भ एवं प्रसंग (Context)

प्रसंग तब का है जब अंगद रावण के दरबार से उसका मान मर्दन करके आये थे। रावण के दरबार में अपना पाँव पृथ्वी में जमाया तो वहां कोई उनका पाँव हिला न पाया। अंगद का पाँव बलपूर्वक जमाते ही धरती हिलने लगी कर रावण का राजसिंहासन डोलने लगा और इससे उसके चार सिरों से मुकुट गिर पड़े। अंगद ने उन मुकुटों को उठा कर फेंक दिया जो प्रभु श्री राम के चरणों में जा कर गिरे। उन्ही के बारे में प्रभु ने अंगद से पुछा कि ये मुकुट तुमने कैसे प्राप्त किये। प्रभु सर्वज्ञ थे परन्तु अंगद जी की बड़ाई करने के उद्देश्य से उन्होंने यह प्रश्न पूछा।

परन्तु अंगद एक सच्चे भगवद भक्त थे और जानते थे की प्रशंसा से अहंकार उत्पन्न होगा अतः बड़ी चतुराई से उन्होंने भगवान को इस प्रकार उत्तर दिया कि प्रभु कि बड़ाई हो और कहीं भूल से भी उनका खुद का मान न हो जाए।

एक पद पहले का चौपाई

तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥

अर्थ: (प्रभु श्री राम ने अंगद से पूछा) हे अंगद ! तुमने उसके (रावण के) चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात (प्रिय वत्स)! बताओ, तुमने उन मुकुटों को कैसे प्राप्त किया। (तब अंगद ने कहा-) हे सर्वज्ञ( सब कुछ जानने वाले)! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभु! वह मुकुट न होकर राजा के चार गुण हैं।

मुख्य पद- साम दान अरु दंड बिभेदा

साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥

अर्थ:- (अंगद कहते हैं कि हे प्रभु !) वेदों के अनुसार साम , दाम, दंड और भेद ये राजा में बसने वाली राज काज चलने वाली चार सुन्दर नीतियां हैं। ये चार मुकुट वही चार गुण हैं। चूंकि रावण में धर्म बुद्धि का आभाव हो गया है। इसलिए ये उसके चारो गुण उसे छोड़कर आपके पास आ गए हैं। (क्योँकि आप ही सबके एकमात्र आश्रय हैं।)

अगला दोहा

दोहा :

धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस॥38 क॥

अर्थ:  दशशीश (दस सिरों वाला)रावण धर्म से हीन हो गया है, आप प्रभु के चरणों से दूर और काल के वश में है। इसलिए हे कोशलराज! सुनिए, वे गुण रावण का त्याग कर आपके पास आ गए हैं॥ 38 (क)॥

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