जेहि बिधि होइ नाथ हित मोरा करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥
जेहि बिधि होइ नाथ हित मोरा पद का अर्थ
नारदजी बड़े उतावलेपन में भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हैं कि : हे प्रभु जिस प्रकार भी मेरा भला हो वही शीघ्र से शीघ्र कीजिये क्योंकि मैं आपका ही सेवक हूँ।
नारद जी जैसे तपस्वी के मुख से ऐसी अधीरता वाली बात सुनकर प्रभु अपनी माया की तीव्रता पर मन ही मन हंस कर बोले —
कठिन शब्दों के अर्थ
- जेहि – जिस
- बिधि – प्रकार /तरीके
- नाथ – स्वामी
- हित – कल्याण / भला
- मोरा – मेरा
- बेगि – तीव्रता से
- दास – सेवक
- निज – अपनी
- माया बल – माया की तीव्रता
- बिसाला – बहुत बड़ा
- हियँ – ह्रदय
- दीनदयाला – दुखी कमजोर लोगों पर दया करने वाले
सन्दर्भ एवं प्रसंग – Jehi Vidhi Nath Hoi Hit Mora
बात तब की है जब नारद जी केन्द्र अपनी तपस्या के कारण गर्व उत्पन्न हो गया था। उनके गर्व का उन्मूलन करने के लिए प्रभु विष्णु ने एक मायानगर की राजकुमारी की रचना की थी। नारद जी उस कन्या को देखकर मुग्ध हो गए थे और उसके स्वयंवर में खूब सुंदर बनकर आना चाहतेथे ताकि राजकुमारी उनका वरण कर ले। इसलिए नारद जी ने भगवान विष्णु से उनका ही ( हरि का ) स्वरुप माँगा था। यहाँ नारद जी की उसी उतावलेपन वाले अनुनय का वर्णन है।
जेहि बिधि नाथ हित मोरा चौपाई के पहले की चौपाई
‘जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा’ उपरोक्त पद के पहले की चौपाई का अर्थ भी जान लेने पर पद का अर्थ और स्पष्ट हो जाता है। इसके पहले वाली चौपाई इस प्रकार है।
अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥
अर्थ : नारद जी ने बड़े ही दीन होकर अपनी कहानी भगवान को सुनाई और कहा कि प्रभु अब आप ही कृपा करके मेरी सहायता कीजिये। आप अपना रूप मुझे प्रदान कीजिये ( ताकि वह राजकन्या मोहित होकर मुझको वरण कर ले)। अब किसी और विधि से उसे पाना संभव नहीं दीख पड़ता।
जेहि विधि नाथ हित मोरा के बाद का दोहा
इसके बाद के दोहे में भगवान कुछ इस तरह उत्तर देते हैं। आइये देखते हैं–
जेहि बिधि होइहि परम हित – Jehi Vidhi Hoihi Param Hit
जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥ 132॥
अर्थ : भगवान विष्णु ने कहा ,” हे नारद जिस प्रकार तुम्हारा परम कल्याण होगा मैं वही करूंगा और कुछ नहीं। मेरा वचन मिथ्या (झूठा ) नहीं होता। ॥ 132॥
इसके बाद भगवान विष्णु नारद जी को ‘हरि’ का रूप प्रदान कर देते हैं। हरि का एक अर्थ बन्दर भी होता है। नारद जी को भगवान ने बन्दर का रूप ही प्रदान किया था। इधर नारद जी सोच रहे थे कि भगवान ने ‘हरि’ का अर्थात स्वयं का रूप प्रदान किया है। नारद जी इसी मतिभ्रम में उस माया की राजकुमारी के स्वयंवर में चले जाते हैं जहाँ उनका बड़ा उपहास होता है।
FAQs -बहुधा पूछे जाने वाले प्रश्न
Q1. जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा किस कांड में है?
A. बालकाण्ड में ।
Q2. जेहि बिधि होइहि परम हित किस कांड में है?
A. बालकाण्ड में ।
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