जो सम्पति सिव रावनहि दीन्ह दिए दस माथ ! सोइ संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ !!
अर्थ
भगवान शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचाते हुए दी।
व्याख्या
जब रावण ने अपने दस सिर काट कर भगवान शिव को चढ़ाये तब प्रभु ने रावण के मांगने पर उसे सोने की लंका भी दे दी। वही स्वर्ण लंका भगवान श्री राम जी ने विभीषण को बिना मांगे ही संकोच पूर्वक दे दी। संकोच पूर्वक इसलिए कि प्रभु तो अपने भक्तों को त्रिभुवन का साम्राज्य देने में भी संकोच नहीं करते और विभीषण जैसे उच्च कोटि के भक्त भगवान को भक्ति के आगे किसी अन्य वस्तु की कामना नहीं रखते तो पता नहीं विभीषण जैसा साधु पुरुष इसे स्वीकार करेगा भी की नहीं।
उधर शिवजी ने रावण को जानते थे कि दुर्बुद्धि है तथापि तपस्या धर्म कि मर्यादा रखने के लिए उसकी कड़ी परीक्षा लेने का बाद ही उसकी तपस्या का फल उसे दिया।
Mahan Hari Bhakt Shri Chakra ji ka lekh Sahitya
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