आश्रम वृदावन: दिल्ली के एक भक्त ने बताया कि मेरे पिताजी को १९८१ में लीवर का एक ऐसा भीषण ज्वर हो गया कि वे ६ माह तक पीड़ित पड़े रहे। कोई भी इलाज कारगर साबित न हो पाया। अन्त में हताश होकर मेरे पिता जी (श्री किशन चन्द्र सैनी) हमारे घर के मंदिर में बाबा जी के चित्र के सम्मुख बैठकर अत्यन्त कातर हो प्रार्थना करने लगे। एकदम ध्यानस्थ से होकर कि “बाबा अब आप ही कुछ कर दीजिये मेरे लिए।।”
तभी उन्हें लगा कि बाबा जी सामने प्रगट हो गये और बोले, “चिन्ता क्यों करता है? जा बाहर यादव (श्री आर० एस० यादव) आया है। उसके साथ मोटे वैद्य (श्री त्रिगुण वैद्य) के पास चला जा। उसकी दवा से ठीक हो जायेगा।” तब पिताजी बोले, “बाबा ! यादव आज कहाँ आया होगा। वह तो मंगलवार को आता है। आज तो सोमवार है।” बाबा जी तब बोल उठे, “बहस मत कर। जा, यादव बाहर खड़ा है।”
ध्यान भंग हुआ, बाबा जी भी अलोप हो गये। तब पिताजी उठकर बाहर आये तो यादव जी को खड़ा पाया। पूछा, “आज कैसे आ गये?” वे बोलें, “बस, यूँ ही मन किया तो आ गया।”
तब पिताजी ने अभी अभी हुई बाबा जी की लीला उन्हें बिना बतायें पूछा, “तुम जानते हो मोटे वैद्य को?” यादव जी ने कहा, “हाँ, हाँ, चलो वहीं चलते हैं।” तब दोनों उनकी गाड़ी में वैद्य जी के पास गये जिन्होंने पिता जी की नब्ज देखकर उन्हें एक दवा की पुड़िया दे दी। जिसे खाकर ही पिताजी एकदम चंगे हो गये।
बाबा जी का उस तरह प्रगट होना, यादव जी का बे-टाइम घर में पहुँच जाना और वैद्य जी की दवा की पुड़िया से ही ६ माह से चलता ला-इलाज बुखार एकदम ठीक हो जाना सभी ही तो महाराज जी की ही लीला थी दया-लीला जो केवल उन पर पूर्ण विश्वास, आस्था और उनके श्री चरणों में समर्पित होने से ही संभव हुई।
जय श्री बाबा नीम करोली
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