तुलसीदास के दोहे-5-अहंकार
बन बहु विशम मोह मद माना।नदी कुतर्क भयंकर नाना।
मोह घमंड और प्रतिश्ठा बीहर जंगल और कुतर्क भयावह नदि हैं।
बड अधिकार दच्छ जब पावा।अति अभिमानु हृदय तब आबा।
नहि कोउ अस जनमा जग माहीं।प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं।
जब दक्ष को प्रजापति का अधिकार मिला तो उसके मन में अत्यधिक घमंड आ गया। संसार में ऐसा किसी ने जन्म नही लिया जिसे अधिकार पाकर घमंड नही हुआ हो।
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तेहिं ते कहहिं संत श्रुति टेरें।परम अकिंचन प्रिय हरि केरें।
संत और वेद पुकार कर कहते हैं कि अत्यधिक घमंड रहित माया मोह और मान प्रतिश्ठा को त्याग देने बाले हीं ईश्वर को प्रिय होते हैं।
सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपू
विद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु।
बीर युद्ध में बीरता का कार्य करते हैं।कहकर नहीं जनाते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर हीं अपने प्रताप की डींग हाॅकते हैं।
लखन कहेउ हॅसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं विस्व प्रतिकूल।
क्रोध सभी पापों की जड है। क्रोध में मनुश्य सभी अनुचित काम कर लेते हैं और संसार में सबका अहित हीं करते हैं।
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- तुलसीदास के दोहे-2: सुमिरन
- तुलसीदास के दोहे-3: भक्ति
- तुलसीदास के दोहे-4: गुरू महिमा
- तुलसीदास के दोहे-5-अहंकार
- तुलसीदास के दोहे-6: संगति
- तुलसीदास के दोहे-7: आत्म अनुभव
- तुलसीदास के दोहे-8: कलियुग
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