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तुलसीदास के दोहे-4: गुरू महिमा

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बंदउ गुरू पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि
महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर

।गुरू कृपा के सागर मानव रूप में भगवान है जिनके वचन माया मोह के घने अंधकार का विनाश करने हेतु सूर्य किरण के सदृश्य हैैैैैैैं ं। मै उसगुरू के कमल रूपी चरण की विनती करता हूॅ।

बंदउ गुरू पद पदुम परागा।सुरूचि सुवास सरस अनुरागा।
अमिय मूरिमय चूरन चारू।समन सकल भव रूज परिवारू।

गुरू के पैरों की धूल सुन्दर स्वाद और सुगंध वाले अनुराग रस से पूर्ण है। वह संजीवनी औशध का चूर्ण है।यह संसार के समस्त रोगों का नाशक है।मै उस चरण धूल की वंदना करता हूॅ।

श्री गुरू पद नख मनि गन जोती।सुमिरत दिब्य दृश्टि हियॅ होती।
दलन मोह तम सो सप्रकाशू।बडे भाग्य उर आबई जासू।

गुरू के पैरों के नाखून से मणि का प्रकाश और स्मरण से हृदय में दिब्य दृश्टि उत्पन्न होता है।वह अज्ञान का नाश करता है।वह बहुत भाग्यवान है जिसके हृदय मेंयह ग्यान होता है।

गुरू पद रज मृदु मंजुल अंजन।नयन अमिअ दृग दोश विभंजन।
तेहि करि विमल विवेक बिलोचन।बरनउॅ राम चरित भव मोचन।

गुरू के पैरों की धूल कोमल और अंजन समान है जो आॅखों के दोशों कोदूर करता है। उस अंजन से प्राप्त विवेक से संसार के समस्त बंधन को दूर कर राम के चरित्र का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुराण मुनि गाव
होई न विमल विवेक उर गुर सन किए दुराव।

सत कहते हैं कि नीति है एवं वेद पुराण तथा मुनि गाते हैं कि गुरू के साथ छिपाव दुराव करने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता।

हरश विशाद ग्यान अज्ञाना।जीव धर्म अह मिति अभिमाना।

हर्श शोक ज्ञान अज्ञान अहंता और अभिमान ये सब सांसारिक जीव के सहज धर्म हैं।

जब जब होई धरम के हानी।बादहिं असुर अधम अभिमानी।
करहि अनीति जाई नही बरनी।सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।
तब तब प्रभु धरि बिबिध शरीरा।हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।

जब भी संसार में धर्म का ह्ा्रस होता है और नीच घमंडी राक्षस बढ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनीति करने लगते हैं तथा ब्राहमण गाय देवता और पृथ्वी को सताने लगते हैं, तब तब भगवान अनेक प्रकार के शरीर धारण करके उनका कश्ट दूर करने के लिये प्रकट होते हैं।

तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ।

जैसी होनी भावी होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह ब्यक्ति को वहाॅ ले जाती है।

जदपि मित्र प्रभु पितु गुरू गेहा।जाइअ बिनु बोलेहुॅ न संदेहा।
तदपि बिरोध मान जहॅ कोई।तहाॅ गए कल्यान न होई।

बिना किसी शंका संकोच के मित्र प्रभु पिता और गुरू के घर बिना बुलाने पर भी जाना चाहिये पर जहाॅ कोई विरोध हो वहाॅ जाने में भलाई नही है।

लोक मान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु।

लोगों के बीच मान सम्मान तपस्या रूपी जंगल को जलाकर भस्म कर देती है।

होई न बिमल विवेक उर गुरू सन किएॅ दुराव।

गुरू से अपनी अज्ञानता छिपाने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नही हो सकता है।

गुर के वचन प्रतीति न जेही।सपनेहुॅ सुगम न सुख सिधि तेही।

जिसे गुरू के वचनों में विश्वास भरोसा नही है उसे स्वप्न में भी सुख और सिद्धि नही प्राप्त हो सकती है।

जे गुरू चरन रेनु सिर धरहिं।ते जनु सकल विभव बस करहीं।

जो ब्यक्ति गुरू के चरणों की धूल को मस्तक पर धारण करते हैं वे संसार के सभी ऐश्वर्य को अपने अधीन कर लेते हैं।

सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करई सिर मानि
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।

गुरू और स्वामी की शिक्षा को जो स्वभावतः मन से नहीं मानता है, उसे बाद में हृदय से पछताना पडता है और उसके हित का जरूर नुकसान होता है।

Article source: https://karmabhumi.org/tulsidas-saints/ .Please visit source as well.

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  4. तुलसीदास के दोहे-4: गुरू महिमा
  5. तुलसीदास के दोहे-5-अहंकार
  6. तुलसीदास के दोहे-6: संगति
  7. तुलसीदास के दोहे-7: आत्म अनुभव
  8. तुलसीदास के दोहे-8: कलियुग
  9. तुलसीदास के दोहे-9-मित्रता
  10. तुलसीदास के दोहे-10: विवेक

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