स्वामी और भिक्षु
हिंदू धर्म में माना गया है की आत्मा का परम धन है स्वयं का ज्ञान | इसी स्वयं के ज्ञान को योगीजन आत्म ज्ञान और परम ज्ञान कहते हैं| यह परम ज्ञान समाधि की परम अवस्था में उपलब्ध होता है और आत्मा की अमिट धरोहर होती है| इस आत्मज्ञान की धरोहर का स्वामी योगी स्वयं होता है | इसलिए स्वामी शब्द से संबोधित होता है|
दूसरे दृष्टिकोण से देखे तो , जब कोई इस अवस्था में पहुँचता है तो सब प्रकार से दरिद्र भी हो जाता है | उसके पास कुछ नही बचाता सिवाय अपने के | जब स्वयं के सिवाय कुछ नही बचा अतः इसे कहेंगे दरिद्रता | इसी कारण से इस परम अवस्था को उपलब्ध अपने सन्यासियों को बौध धर्म ने ‘भिक्षु’ कहा| जिसके पास अपने के सिवाय कुछ नही बचा वो भिक्षु| अगर संसारिक दृष्टि से देखा ज्जा तो ‘भिक्षु’ और आत्मा की दृष्टि से देखा जाए तो ‘स्वामी’| अगर गौर से देखा जाए तो दोनो ही संबोधन साधना की एक ही परा अवस्था को इंगित करते हैं| जहाँ स्वयं की सिवा कुछ नहीं बचाता| स्वामी और भिक्षु एक ही अवस्था के दो नाम हैं|
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