June 8, 2023

ब्रह्मभोज या मृत्यु भोज -वामपंथी क्यों विरोध करते हैं

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सोशल मीडिया पर आज कल कुछ अर्धज्ञानी और शिक्षित परन्तु अपनी संस्कृति से अनभिज्ञ लोग मृत्युभोज को अभिशाप ,कुप्रथा,पाप और पता नहीं क्या-क्या घोषित कर इसे समाप्त करने पर तुले हैं।

जबकि वास्तविकता यह है कि यह वामपंथियों द्वारा हिन्दू समाज की एक बहुत बड़ी प्रथा और सामाजिक सम्बन्ध को मजबूत बनाने वाली व्यवस्था को कमजोर करने का सुनियोजित षडयंत्र है, जिसके जाल में हमारे पढ़ी लिखी जनता भी आसानी से फंस जाती है।

इनके अनुसार मृत्युभोज पाप है इसलिए बन्द करो, शादी में खर्च करना पाप है इसलिए कोर्ट मैरिज करो। लेकिन हनीमून बहुत बड़ा पुण्य है इसको मनाने विदेश जाओ पैसा लुटाओ क्योंकि हनीमून से हजारों गरीबों का पेट भरता है।

यदि मृत्यु भोज अभिशाप है तो बेटी या बेटे की शादी में होने वाला भोजन तो महा अभिशाप है उससे भी बड़ा अभिशाप है शादी में लेने वाला धन।

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इन वामपंथियों को सब अभिशाप हिदुओ की मान्यताओं परम्पराओं में दिखती है। अन्य धर्म मे इससे भी बड़े मान्यताये है। ये महान समाज सुधारक क्यों केवल हिन्दू धर्म मे ही अभिशाप ढूढते है? अन्य धर्मों में झांकने में इनकी कायरता आड़े आती है।

वाम पंथियों का कुतर्क

श्रीकृष्ण ने शोक की अवस्था में करवाए गए भोज को ऊर्जा का नाश करने वाला बताया है। महाभारत युद्ध होने को था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े। दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने कहा कि
‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’
अर्थात हे दुर्योधन – जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए। लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के मन में पीड़ा हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।

महाभारत के इस प्रसंग को तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों ने मृत्युभोज से जोड़कर देखा, जिसके अनुसार अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद मन में अथाह पीड़ा होती है, ऐसे में कोई भी प्रसन्नचित अवस्था में भोज का आयोजन नहीं कर सकता। इनका मानना है कि वहीं दूसरी ओर मृत्युभोज में आमंत्रित लोग भी प्रसन्नचित होकर भोज में शामिल नहीं होते। इन वामपंथियों के अनुसार केवल प्रसन्नचित्त अवस्था में पार्टी जैसी परिस्थिति में ही भोज किया जा सकता है। भोज करके मृतक आत्मा को पुण्य प्रदान करने जैसी व्यवस्था ही इनके समझ से बाहर है।

वाम पंथियों का कुतर्क क्यों गलत है

पहली बात तो यहाँ वाम पंथियों ने सन्दर्भ ही गलत लिया है … दुर्योधन के मन में घृणा थी , क्रोध था इसलिए ऐसे व्यक्ति का भोजन उचित नहीं था…जो प्रेम से खाना न खिलाये उसका क्यों खाना ? मृत्यु की अवस्था का उल्लेख नहीं है इस कथानक में।
कहाँ से कहाँ जोड़ कर अनर्थ कर रहे हैं लोग इस तर्क को देकर ।
और किसने कहा कि आपको लोग प्रेम भाव से नहीं खिलाते तेरहवी पे ……. जितने लोग को खिलाया जाता है उतना ही पुण्य और आशीर्वाद मृतक आत्मा को प्राप्त होता है, इसलिए बड़े प्रेम और श्रद्धा से अपने मृत सम्बन्धी की आत्मा की सद्गति के लिए लोग कराते हैं। श्राद्ध श्रद्धा से होता है। जब आपके मन में श्रद्धा नहीं है तो क्यों करोगे ये सब …अश्रद्धा से अच्छा इसे मत करिये।

परन्तु जिनके मन में श्रद्धा और प्रेम है वो अवश्य करेंगे … और जो आते हैं वो भोजन के चक्कर में नहीं आते। उनके आने से आशीर्वाद प्राप्त होता है मृतक आत्मा को और उसके दुखी परिजनों को फिर से जीने का सम्बल मिलता है।

मृत्युभोज नहीं ब्रह्मभोज: एक सामाजिक समन्वय की व्यवस्था है

सबसे पहली बात यह है कि मृत्युभोज नहीं होता है उसे ब्रह्मभोज कहा जाता है !

मतलब परिवार, रिश्तेदार, गाँव-समाज, पड़ोसी गाँव के परिचित व्यक्ति, पिताजी के हितैषी और व्यवहारियों को एकजुट करना, उनसे मिलना तथा पीढ़ियों से चले आ रहे व्यवहार को अगली पीढ़ी में सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए ब्रह्मभोज या शादी के न्यौते दिए जाते हैं। ताकि हम समझ सकें कि हमारी रिश्तेदारियाँ कँहा कँहा है, हमारे पुरखों के सम्बंध व्यवहार कहाँ-कहाँ और किन-किन लोगों से हैं।

इसलिए मिलने वाले लोग कुछ भेंट लेकर जाते हैं और उस भेंट को एक डायरी में लिखा जाता है ताकि याद रहे कि हमारे परिवार के सम्पर्क कँहा कँहा किन किन लोगों से हैं।

वैसे तो लोग अपनी निजी जिंदगी में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें पता ही नहीं होता है कि उनके अपने कौन कौन है। इसलिए ऐसे ही कुछ कार्यक्रम होते हैं जँहा अपनों से भेंट हो पाती है।

आज इन समाजिक और मानवीय व्यवस्था को तोड़कर मनुष्य को एकांकी बनाने पर जोर दिया जा रहा है। अब 2 बच्चे ही अच्छे के कारण परिवार और रिश्तेदार वैसे भी सीमित हो गए हैं ऐसे में सामाजिक व्यवहार ही एकदूसरे मनुष्य के सहायक हो सकते हैं अगर उनसे भी दूर कर दिया गया तो मुसीबत के समय कौन खड़ा होगा अपनों के साथ?

आज हम लोग पार्टी करते हैं तो कुछ अपने दोस्तों को बुलाकर इंजॉय करते हैं क्योंकि अच्छा लगता है। लेकिन ये कभी नहीं सोचते की ये भोज भी एक तरह की पार्टी होते हैं जँहा हमारे रिश्तेदार एकजुट होते हैं और न जाने कितनी पीढ़ियों के व्यवहार और रिश्तेदारियों का नवीकरण होता है।

आज अगर इसी तरह से एकांकी जीवन पर जोर दिया जाता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब मानसिक अशांत लोगों की संख्या बहुत अधिक होगी, आत्महत्या के मामले बहुत अधिक होंगे।

आज की पीढ़ी अपनी मस्ती में इतनी व्यस्त होती है कि उसको कुछ प्रमुख रिश्तेदार को छोड़कर 2-3 पीढ़ियों की रिश्तेदारी तक याद नहीं होती है। साथ ही साथ पिता के कुछ जान-परिचितों को छोड़कर दादा-परदादा के व्यवहारियों तक का पता नहीं होता है। आसपास के 10-15 गाँव में हमारी जाति के तथा हमारे परिचित के कौन कौन व्यक्ति है ये तक पता नहीं होता है।

लेकिन जब ब्रह्मभोज होता है तो ऐसे सभी परिचितों को मिलने समझने का मौका मिलता है और पीढ़ियों से चले आ सम्बन्ध अब हमको आगे लेकर चलना है ये सीख मिलती है।

हमारे यहाँ ब्रह्मभोज में जाने के लिए बड़े-बूढ़े अधिक जोर देते हैं क्योंकि परिचित का व्यक्ति चला गया है अब उसकी अगली पीढ़ी से परिचय बहुत जरूरी है ताकि सम्बन्ध बने रहें ऐसी धारणा है।

लोग खाने के भूखे नहीं होते हैं बल्कि समाजिक भावना का ध्येय होता है वैसे भी नियम होता है कि आयु और पद में छोटे की मृत्यु पर खाना नहीं खाते हैं।

पिंडदान और ब्रह्मभोज जीवात्मा के सदगति और शांति हेतु होता है या उसके नए जन्म तक उनकी आत्मा के भरण पोषण निमित्त प्रयुक्त होता है। पर परन्तु हमारे हिन्दू समाज में बहुत से शिक्षित पर अर्ध ज्ञानी लोग आधुनिक बनने के लिए वामपंथियों द्वारा प्रचलित प्रोपोगंडा को बिना समझे अपने ही धर्म की हानि करते हैं।

ब्रह्मभोज से क्या होता है

सबसे पहली बात ये मृत्यु भोज नहीं ब्रह्मभोज होता है। इस भोज में खिलाये गए लोगों का पुण्य मृतक आत्मा को प्राप्त होता है जिससे उसको शांति मिलती है और सद्गति होती है।

मरने वाले की सारी प्रॉपर्टी हथियाने वाले अगर उसकी आत्मा की शांति और पुण्य के लिए अगर इतना भी न करें तो उनकी आत्मा दुखी होती है और उसका कष्ट उसके धन को भोगने वाले और उसके संतति को लगता है, इसे ही पितृ दोष कहते हैं।

मृतात्मा के शांति के लिए भोज नहीं करना है तो मत करें फिर उसकी अर्जित की हुयी संपत्ति को भी दान कर दें नहीं तोआप उसके कर्ज से नहीं उबर सकते।

ब्रह्मभोज मृत्यु के उपरांत दिवंगत आत्मा के मुक्ति के निमित्त ही करते हैं। मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की गति का विस्तृत वर्णन गरुण पुराण आदि ग्रन्थों में मिलता है|

ब्रह्मभोज में आने वाले व्यक्ति अपने पुण्यों का अंशदान करते हैं

एक और बात किसी की मृत्यु के बाद उसके परिजन दुखी रहते हैं, सारा समाज ब्रह्म भोज के समय आकर अपने पुण्यों को थोड़ा अंशदान करके जाते है और उसकी सांत्वना परिजनों को जीवन जीने का सम्बल देती है। नहीं तो कितने लोग अवसाद से ग्रसित हो कर मानसिक रोगों के शिकार होंगे।

जितनी सामर्थ्य हो उतना करे …१० -१५ लोग को खाना खिलाने से भी हो जाता है ..इतना भी नहीं कर सकते तो मृतक के व्यर्थ में ही आप जैसे सम्बन्धी हुए।

आजकल के इस व्यस्त जीवन में कोई व्यक्ति हज़ारो या सैकड़ों रुपये खर्च करके और अपना मूल्यवान समय खर्च करके यदि आपके भोज में आता है तो वह आपका १०० -२०० रुपये का भोजन नहीं करने आता वरन अपने संचित पुण्य में से कुछ आशीर्वाद रूप में दिवंगत आत्मा की सद्गति के लिए दान ही करके जाता है।

जो ब्राह्मण भी ब्रह्मभोज में अन्न ग्रहण करते हैं वो सबसे बड़े पुण्य का दान करते हैं। उन्हें दसों हज़ार गायत्री का जाप करके मृतक का कल्याण करना पड़ता है। उनके गायत्री जाप आदि पुण्यों से ही दिवंगत आत्मा का कल्याण होता है। यदि किसी को ये लगता है की उस ब्राह्मण को एक समय का भोजन कराके बहुत बड़ा उपकार रहे हैं तो उनका भ्रम है क्योंकि वह ब्राह्मण ही जानता है की उसे कितना गायत्री जप और अपने पुण्यों का अंश देकर इसका मोल चुकाना पड़ेगा।

ब्रह्मभोज में कितने व्यक्तियों को खिलाना चाहिए- शास्त्रों का कथन

यजुर्वेदके पारस्कर गृह्यसूत्र में अन्त्येष्टि संस्कारविधा में

” एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा “( ३/१०/४८) ,

” प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति ।।” (३/१०/४९) –

(दाहसंस्कारके) ‘ ग्यारहवे दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं । वो भी 11।

यत्नेन भोजयेच्छ्राद्धे बह्वृचं वेदपारगम् ।
शाखान्तगमथाध्वर्यु छन्दोगं तु समाप्तिकम् ।।” (मनु०३/१४५)

अर्थात् -‘श्राद्धमें यत्नपूर्वक ऐसे ब्राह्मण को जो बहुत ऋचाओंको जानने वाला वेदपारंगत हो अथवा जिसने वेद की कोई शाखा पूरी पढ़ी हो , या जिसने सम्पूर्ण वेद पढ़ा हो भोजन करावे ।’

एकैकमपि विद्वांसं दैवे पित्र्यै च भोजयेत् ।
पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान बहूनपि ।।”(मनु ०३/१२९)


यानी ऐसा 1 भी विद्वान हो तो 11 भी जरूरी नही है। एक से भी हो जाता है।

सामाजिक दिखावा और तथाकथित बुद्धिजीवीयों का कृत्रिम गर्व

पहले जब कोई दूर से रिश्तेदार आता था उसे खाना खिलाया जाता था| जिस घर मे निधन होता था वो दुखी मन के कारण खाना नही खाते थे,परन्तु ब्रह्मभोज की जिम्मेदारी के कारण खिलाना आवश्यक हो जाता है। कई समाजों में पहले १ ,५ या ११ ब्राह्मणों के भोज के बाद तो प्रथम जो कन्धा देते थे वे ४ पहले (सभी समाज का नही कह सकता) खाते हैं फिर बाद मे अन्य व्यक्ति खाते हैं। प्रथा तो इन १ -११ ब्राह्मणों और पहले ४ कन्धा देने वालों में ही पूर्ण हो जाती है| इससे ऊपर सामर्थ्य न हो तो न करें या जितना सामर्थ्य हो उतना ही करें। जितना श्रद्धा सहित हो सके उतना ही पुण्य होता है। तो बुराई दिखावे मे हे जो शादी मे भी होता है भोज मे नहीं।

शास्त्र सम्मत बातों को भी लोग अपने हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने में अतीव कृत्रिम बौद्धिक गर्व का अनुभव करते हैं।
शास्त्रों ने केवल ब्रह्म भोज की बात कही पर लोग अपना अहम सिद्ध करने के लिये ज्यादा से ज्यादा लोगो को खिलाने लगे। सामर्थ्यानुसार खिलाने में कोई दोष नहीं, पर अंधाधुंध अनुकरण में संकुचित लोग इस व्यवस्था को ही दोष देने लगे, ब्रह्मवेत्ता १ व्यक्ति, ५ या ११ वेदपाठी गायत्री जापक ब्राह्मणों को खिलाने भर से ब्रह्मभोज हो जाता है बाकी जो आप करते हैं वो आपका निर्णय है। सामर्थ्य से अधिक करने में किसी भी प्रकार से बुद्धिमत्ता नहीं है।

हम सब यह अपनी ख़ुशी के लिए नही करते केवल म्रत्यु के उपरांत उस व्यक्ति को मुक्ति मिले क्योंकि जो विवरण गरुण पुराण
या अन्य ग्रन्थों विदित है, उसी से करते हैं

हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है लेकिन समाजिक भावना का जिस प्रकार लोप हो रहा है उस हिसाब से मनुष्य के अस्तित्व पर खतरा बढ़ता जा रहा है। हमारे पूर्वज बहुत बुद्धिमान थे जिन्होंने ऐसी व्यवस्थाएं बनाई थी जिनमें समाजिक भवनायें पोषित होती रहें लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में हम अपने पूर्वजों की दूरदर्शिता को समझे बिना ही मूर्खता की ओर भागे जा रहे हैं।

हिन्दू धर्म में कोई परम्परा नहीं वरन् पूर्ण वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं। जो राग-द्वेश व सुख-दुःख से भरे मानव-जीवन को संम्बल प्रदान करती है।

मै तो कहुगां ब्रह्मभोज के संस्कार मे कोई कमी नहीं है ।कमी है इन दुर्बुद्धि युक्त निकृष्ट लोगो कोबुद्धिजीवी विद्वान कहने वाले व समाज को बौद्धिक पतन के लिये तैयार करने वाले ब्यवस्था और डिग्री को ।

!!जय जय जय श्री राम!!

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