शूद्र मानसिक अवस्था का नाम है ….जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि में से किसी भी व्यवस्था का ‘वरण'(चयन/selection) नहीं किया ..इसलिए वो वर्ण व्यवस्था से बाहर है।
ब्राह्मण शरीर भाव से उठ कर ब्रह्म के लिए जीता है। क्षत्रिय शरीर के भाव से उठकर समाज के कमजोर वर्ग की रक्षा के लिए जीता है। वैश्य केवल अपना ख्याल छोड़ कर समाज के भरण पोषण के लिए व्यापार चलाता है। शूद्र वो है जो अपने से ऊपर उठकर समाज के हित के लिए कोई व्यवस्था वरण / चयन नहीं करता है केवल अपनी ही सुख सुविधा आनंद में लगा रहता है।
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति इस रूप में की है- धातु ‘श्वी’+धातु ‘द्रु’। इस शब्द का अर्थ है कि, ऐसा व्यक्ति जो स्थूल जीवन की ओर दौड़े। अपने स्वार्थ से ऊपर न उठे और कोई समाज संरचना के लिए किसी एक कार्य धर्म (ब्रह्म प्राप्ति-ब्राह्मण , रक्षा- क्षत्रिय या भरण पोषण-वैश्य का दायित्व ग्रहण न करे।
अतः जन्म से प्रायः सभी शूद्र ही होते हैं, जब तक की गर्भ में पालने वाला बालक कोई दिव्यात्मा न हो। उपनयन संस्कार के बाद ही वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत अपना अध्ययन व कार्य क्षेत्र का ‘वरण’ करते हैं।
वर्ण व्यवस्था अपने मूल रूप में लचीली थी और व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में अपनी इच्छा व योग्यता अनुसार प्रविष्ट हो सकता था। शास्त्रों में उदाहरण है जहाँ एक ही पिता के पुत्र पहले अलग -अलग वर्णों में गए और बाद में फिर उनके पुत्र फिर दूसरे वर्णों में गए। यहाँ ब्राह्मण से भी शूद्र गमन का उल्लेख है और शूद्र से दूसरे वर्णों में प्रवेश का भी।
अधिक नहीं बस थोड़े पूर्व में ही हमारे समाज में ही कई उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ पूरा का पूरा तबका ही एक वर्ण से दूसरे वर्ण में प्रविष्ट हो गया। जहाँ महंत गिरी समाज ९ जो को समाज के किसी भी बर्ग से आते हैं ) ब्राह्मणों से भी ऊँचे माने जाने लगे और और गोरखा क्षत्रिय वर्ण माने जाने लगे। कायस्थ वंश को लोग प्रायः वैश्य समाज में गईं लेते हैं जबकि उनका कहना है कि वह ब्राह्मणो के राज कार्य व्यवस्था आदि का प्रबंधन करने से उत्पन्न हुए अतः वह ब्राह्मण वंशज हैं।
वेदों में श्लोक ऐसे ऋषियों के भी हैं जो जन्म से शूद्र थे परन्तु वर्ण से नहीं जैसे मातंग ऋषि , बाद में सूत जी, रोमहर्षण , महर्षि वाल्मीकि , यहाँ तक की महामुनि व्यास जी भी शूद्र स्त्री के पुत्र थे। सत्यकाम जाबालि का जन्म ही नहीं पता था फिर भी ब्राह्मण माने गए।
यह ‘जाति व्यवस्था’ नहीं थी, बल्कि ‘वरण व्यवस्था’ थी। जा = जन्म से। ईति = वैसा ही , अर्थात जो जन्म से जैसा है वैसा ही। लेकिन वरण के बाद वह सनातन धर्म का अंग बन जाता है। केवल समाज में शारीरिक भाव से ऊपर उठकर जीने के लिए ही वर्ण व्यवस्था का उद्भव हुआ था। इसलिए शरीर मूलक शूद्र भाव को त्याग कर ऊपर उठाने के बात कही गयी है।
वस्तुतः शूद्र कोई जाति न होकर एक मानसिक अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी जमजात स्वार्थ मूलक प्रवृत्ति के ऊपर विजय न पाकर शरीर भाव से ऊपर नहीं उठ पाता और समाज के वृहत्तर उत्कर्ष के लिए कोई कार्य क्षेत्र का ‘वरण’ (सेलेक्शन) नहीं करता और न उसके अनुरूप आचरण करता है।
आज कलियुग में जाति ( जन्म से ) भले ही लोग अलग अलग माने परन्तु वैदिक वर्ण ( वरण ) व्यवस्था से अधिकतर मनुष्य मनोस्थिति अनुसार शूद्र ही हैं और केवल अपने स्वार्थपूर्ति में लगे हुए हैं।
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