स्टेशन पर बैठी एक चिड़िया
दूर गाँव में, कभी नीरव ठांव में,
जाती उड़-उड़ कर, अपने बच्चों को दाना लाने,
ठुमक-ठुमक कर, कभी फुदक-फुदक कर,
करती थी सीनाजोरी, बाकी चिड़ियों से,
थी नन्ही सी, पर आत्मविश्वास प्रखर था,
मातृत्व का आवेग सबल था,
रेल की पटरियाँ थी मूक साक्षी उसके अविरल संघर्ष की,
नही उसको कोई और धुन प्रबल थी,
खिलाना है मुझको मेरे बच्चों को आज,
नही पाया कोई अन्न भी कल था,
कूंक-कूंक कर, कभी भूंक-भूंक कर,
कर रहा प्रतिरोध, एक श्वान उधर था,
घबराया मैं कहीं, अन्न के बदले यही ग्रस ना बन जाए महाकाल का,
सुन गौरैया रानी, तू बड़ी सयानी, ना कर नादानी,
कहीं और चली जा, नही देने वाला ये तुझको जो अन्न गिरा था,
थी मानिनी वो, स्वाभिमानिनी वो,
एक नज़र उठा के देखा मुझको,
जैसे कह रही हो, क्या समझा मुझको,
जीई स्वाभिमान से, मरूँगी शान से,
नही रोक सकता मुझे यह मेरे बच्चों को आज अन्नपान से,
कल भी देखा, परसों भी देखा,
नही मिला कुछ मुझे प्राण त्राण को,
आई हूँ आज, सब भय त्याग के,
रहूंगी आज ये भोजन स्वीकारके,
सोच रहा था यूँ ही मैं,
तब तक उसने भरी एक उड़ाई
और ले के अपना भोजन, जा बैठी अपने घोंसले में,
था श्वान निरुत्तर ,मुह लटका कर रहा बैठ वहीं पे ,
कुछ अनमनाकर,कुछ कसमसाकर,
घोंसले से आई बच्चों की चहचाहाहट,
थे प्रसन्न सभी अब भोजन पाकर||
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