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कबीर के दोहे|Kabir Ke Dohe with Meaning

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Table of Contents

कामी क्रोधी लालची , इनते भक्ति ना होय ।
भक्ति करै कोई सूरमा , जादि बरन कुल खोय ।।1

अर्थ: विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती । धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है । भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल , परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है । हर किसी के लिए संभव नहीं है ।

माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय ।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय ।।2

अर्थ: संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि माया के दो स्वरुप है । यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है किन्तु माया के दूसरे  स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है ।

दीपक सुन्दर देखि करि , जरि जरि मरे पतंग ।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग ।।3

अर्थ: प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है । ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है ।

परारब्ध पहिले  बना , पीछे बना शरीर ।
कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।।4

अर्थ: कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।

मास मास नहिं करि सकै , छठै मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत्त ।।5

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि हर महीने साधु संतों का दर्शन करना चाहिए । यदि महीने दर्शन करना सम्भव नहीं है तो छठें महीने अव्श्य दर्शन करें इसमें तनिक भी ढील मत करो ।

माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार ।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार ।।6

अर्थ: माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है । फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है ।

आठ पहर चौसंठ घड़ी , लगी रहे अनुराग ।
हिरदै पलक न बीसरें, तब सांचा बैराग ।।7

अर्थ: आठ प्रहर और चौसंठ घड़ी सद्गुरु के प्रेम में मग्न रहो अर्थ यह कि उठते बैठते, सोते जागते हर समय उनका ध्यान करो । अपने मन रूपी मन्दिर से एक पल के लिए भी अलग न करो तभी सच्चा बैराग्य है ।

मांग गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जांहि ।
तिनतैं पहले वे मरे, होत करत है नाहिं ।।8

अर्थ: जो किसी के घर कुछ मांगने गया, समझो वह मर गया और जो मांगने जायेगा किन्तु उनसे पहले वह मर गया जो होते हुए भी कहता है कि मेरे पास नहीं है ।

ढि पढि के पत्थर भये, लिखि भये जुईंट ।
कबीर अन्तर प्रेम का लागी नेक न छींट ।।9

अर्थ: कबीर जी ज्ञान का सन्देश देते हुए कहते हैं कि बहुत अधिक पढकर लोक पत्थर के समान और लिख लिखकर ईंट  के समान अति कठोर हो जाते हैं । उनके हृदय में प्रेम की छींट भी नहीं लगी अर्थात् ‘प्रेम’ शब्द का अभिप्राय ही न जान सके जिस कारण वे  सच्चे मनुष्य न बन सके ।

काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान ।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान ।।10

अर्थ: संत शिरोमणी काबीर जी मूर्ख और ज्ञानी के विषय में कहते हैं कि जब तक काम, क्रोध, मद एवम् लोभ आदि दुर्गुण मनुष्य के हृदय में भरा है तब तक मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) दोनों एक समान है । उपरोक्त दुर्गुणों को अपने हृदय से निकालकर जो भक्ति ज्ञान का अवलम्बन करता है वही सच्चा ज्ञानी है।

झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत ।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत ।।11

अर्थ: यह छल कपट, मोह, विषय आदि सब झूठे हैं । यहाँ पर सभी स्वार्थीं है कोई अपना मित्र नहीं है । जिसने राम नाम रुपी अविनाशी परमात्मा को जान लिया वह भवसागर से पार होकर परमपद को प्राप्त होगा । यही परम सत्य है ।

बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर ।
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर ।।12

अर्थ: वृक्ष अपने फल को स्वयं नही खाते, नदी अपना जल कभी नहीं पीती । ये सदैव दुसरो की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात् दुसरो का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है ।

सांचे को सांचा मिलै, अधिका बढै सनेह ।
झूठे को सांचा मिलै, तड दे टुटे नेह ।।13

अर्थ: सत्य बोलने वाले को सत्य बोलने वाला मनुष्य मिलता है तो उन दोनों के मध्य अधिक प्रेम बढता है किन्तु झूठ बोलने वाले को जब सच्चा मनुष्य मिलता है तो प्रेम अतिशीघ्र टूट जाता है क्योंकि उनकी विचार धारायें विपरीत होती है ।

मांगन मरण समान है, तोहि दई में सीख ।
कहै कबीर समुझाय के, मति मांगै कोई भीख ।।14

अर्थ: कबीर जी कहते है कि दुसरों हाथ फैलाना मृत्यु के समान है । यह शिक्षा ग्रहण के लो । जीवन मी कभी किसी से भिक्षा मत मांगो । भिक्षा मांगना बहुत अभ्रम कार्य है । प्राणी दुसरों कि निगाह में गिरता ही है स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाता है ।

कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग ।
वांकू टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग ।।15

अर्थ: संत स्वामी कबीर जो कहते हैं कि भूख उस कुतिया के समान है जो मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देती । अतः भूख रुपी कुतिया के सामने रोटी का टुकडा डालकर शान्त कर दो तब स्थिर मन से सुमिरन करो

सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचातानि ।।16

अर्थ: जो बिना मांगे सहज रूप से प्राप्त हो जाये वह दूध के समान है और जो मांगने पर प्राप्त हो वह पानी के समान है और किसी को कष्ट पहुंचाकर या दु:खी करके जो प्राप्त हो वह रक्त के समान है । उपरोक्त का निरूपण करते हुण कबीरदास जी कहते है ।

गुरु बिन  माला फेरते , गुरु बिन देते दान ।
गुरु बिन सब निष्फल गया , पूछौ वेद पुरान ।।17

अर्थ: गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है ।

करता था तो क्यौं रहा, अब करि क्यौं पछताय ।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय ।।18

अर्थ: जब तू बुरे कार्यो को करता था , संतों के समझाने पर भी नहीं समझा तो अब क्यों पछता रहा है । जब तूने काँटों वाले बबूल का पेड़ बोया तो बबूल ही उत्पन्न होंगें आम कहां से खायगा । अर्थात जो प्राणी जैसा करता है, कर्म के अनुसार ही उसे फल मिलता है ।

जब मै था तब गुरु नहीं , अब गुरु है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समांही ।।19

अर्थ: जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे , अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया । प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता ।

माला फेरत युग गया, मिटा ना मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मन का फेर ।।20

अर्थ: हाथ में मला लेकर फेरते हुए युग व्यतीत हो गया फिर भी मन की चंचलता और संसारिक विषय रुपी मोह भंग नहीं हुआ । कबीर दास जी संसारिक प्राणियों को चेतावनी देते हुए कहते है- हे अज्ञानियों हाथ में जो माला लेकर फिरा रहे हो, उसे फेंक कर  सर्वप्रथम अपने हृदय की शुध्द करो और एकाग्र चित्त होकार प्रभु का ध्यान करो ।

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