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निराकार ब्रह्म सगुण कैसे हुए-शिव महापुराण

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निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ईश्वरमूर्ति का प्राकट्य

हमारे शास्त्रों में निर्गुण निराकार निर्विकल्प ब्रह्म के कई वर्णन मिलते हैं। प्रायः लोग न जानने के कारण परधर्मियों के प्रपंच का उत्तर नहीं दे पाते। आशा है यह पोस्ट कुछ अवश्य सहायक होगी।

प्रस्तुत प्रसंग श्री शिव महापुराण के संहिता 2 , खंड 1 – सृष्टि खण्ड , अध्याय 6, से लिया गया है । इसमें निर्गुण निराकार ब्रह्म से सगुण ब्रह्म और उनसे प्रकृति और सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है।

इसमें निम्न तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है:

  • महाप्रलयकाल में केवल सद्ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन,
  • उस निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ईश्वरमूर्ति (सदाशिव ) – का प्राकट्य,
  • सदाशिवद्वारा स्वरूपभूत प्रकटीकरण,
  • उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन )- का प्रादुर्भाव,
  • शक्ति (अम्बिका )-का शिव के वामांग से परम पुरुष (विष्णु) – का आविर्भाव तथा
  • उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन

ब्रह्माजी बोले- हे ब्रह्मन् ! हे देवशिरोमणे ! आप सदा समस्त जगत्के उपकारमें ही लगे रहते हैं। आपने लोगोंके हितकी कामनासे यह बहुत उत्तम बात पूछी है ॥ १ ॥

जिसके सुननेसे सम्पूर्ण लोकोंके समस्त पापों का क्षय हो जाता है, उस अनामय शिव-तत्त्वका मैं आपसे वर्णन करता हूँ ॥ २ ॥

शिवतत्त्वका स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है, जिसे यथार्थरूपसे न मैं जान पाया हूँ, न विष्णु ही जान पाये और न अन्य कोई दूसरा ही जान पाया है ॥ ३ ॥

जिस समय यह प्रलयकाल हुआ, उस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया, सर्वत्र केवल अन्धकार- ही अन्धकार था । न सूर्य ही दिखायी देते थे और अन्यान्य ग्रहों तथा नक्षत्रोंका भी पता नहीं था ॥ ४ ॥

न चन्द्र था, न दिन होता था, न रात ही थी; अग्नि, पृथ्वी, वायु और जलकी भी सत्ता नहीं थी। [ उस समय ] प्रधान तत्त्व (अव्याकृत प्रकृति)-से रहित सूना आकाशमात्र शेष था, दूसरे किसी तेजकी उपलब्धि नहीं होती थी ॥ ५ ॥

अदृष्ट आदिका भी अस्तित्व नहीं था, शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे, गन्ध और रूपकी भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी। रसका भी अभाव हो गया था और दिशाओंका भी भान नहीं होता था ॥ ६ ॥

इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूचीभेद्य घोर अन्धकार फैला हुआ था। उस समय ‘तत्सद्ब्रह्म’ – इस श्रुतिमें जो ‘सत्’ सुना जाता है, एकमात्र वही शेष था ॥ ७ ॥

जब ‘यह’, ‘वह’, ‘ऐसा’, ‘जो’ इत्यादि रूपसे निर्दिष्ट होनेवाला भावाभावात्मक जगत् नहीं था, उस समय एकमात्र वह ‘सत्’ ही शेष था, जिसे योगीजन अपने हृदयाकाशके भीतर निरन्तर देखते हैं ॥ ८ ॥

वह सत्तत्त्व मनका विषय नहीं है। वाणीकी भी वहाँतक कभी पहुँच नहीं होती। वह नाम तथा रूप- रंगसे भी शून्य है। वह न स्थूल है, न कृश है, न ह्रस्व है, न दीर्घ है, न लघु है और न गुरु ही है। उसमें न कभी वृद्धि होती है और न ह्रास ही होता है ॥९-१० ॥

श्रुति भी उसके विषयमें चकितभावसे ‘है’- । इतना ही कहती है [ अर्थात् उसकी सत्तामात्रका ही निरूपण कर पाती है, उसका कोई विशेष विवरण देनेमें असमर्थ हो जाती है ] । वह सत्य, ज्ञानस्वरूप, अनन्त, परमानन्दमय, परम ज्योति: स्वरूप, अप्रमेय, आधाररहित, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, योगिगम्य, सर्वव्यापी, सबका एकमात्र कारण, निर्विकल्प, निरारम्भ, मायाशून्य, उपद्रवरहित, अद्वितीय, अनादि, अनन्त, संकोच-विकाससे शून्य तथा चिन्मय है ॥ ११-१३ ॥

जिस परब्रह्मके विषयमें ज्ञान और अज्ञानसे पूर्ण उक्तियोंद्वारा इस प्रकार [ऊपर बताये अनुसार] विकल्प किये जाते हैं, उसने कुछ कालके बाद [सृष्टिका समय आनेपर] द्वितीय होनेकी इच्छा प्रकट की-उसके भीतर एकसे अनेक होनेका संकल्प उदित हुआ ॥१४॥

तब उस निराकार परमात्माने अपनी लीलाशक्तिसे अपने लिये मूर्ति (आकार)-की कल्पना की। वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्यगुणोंसे सम्पन्न, सर्वज्ञानमयी, शुभस्वरूपा, सर्वव्यापिनी, सर्वरूपा, सर्वदर्शिनी, सर्वकारिणी, सबकी एकमात्र वन्दनीया, सर्वाद्या, सब कुछ देनेवाली और सम्पूर्ण संस्कृतियोंका केन्द्र थी ॥ १५-१६ ॥

उस शुद्धरूपिणी ईश्वरमूर्तिकी कल्पना करके वह अद्वितीय, अनादि, अनन्त, सर्वप्रकाशक, चिन्मय, सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अन्तर्हित हो गया ॥ १७ ॥

जो मूर्तिरहित परमब्रह्म है, उसीकी मूर्ति (चिन्मय आकार) भगवान् सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान् उन्हींको ईश्वर कहते हैं ॥ १८ ॥

उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार विहार करनेवाले उन सदाशिवने अपने विग्रहसे स्वयं ही एक । स्वरूपभूता शक्तिकी सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंगसे कभी अलग होनेवाली नहीं थी ॥ १९ ॥

उस पराशक्तिको प्रधान, प्रकृति, गुणवती, माया, । बुद्धितत्त्वकी जननी तथा विकाररहित बताया गया है॥ २० ॥
वह शक्ति अम्बिका कही गयी है। उसीको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी, नित्या और मूलकारण भी कहते हैं ॥ २१ ॥

सदाशिवद्वारा प्रकट की गयी उस शक्तिकी आठ भुजाएँ हैं। उस [शुभलक्षणा देवी] के मुखकी शोभा विचित्र है। वह अकेली ही अपने मुखमण्डलमें सदा पूर्णिमाके एक सहस्र चन्द्रमाओंकी कान्ति धारण करती है ॥ २२ ॥

नाना प्रकारके आभूषण उसके श्रीअंगों की शोभा बढ़ाते हैं। वह देवी नाना प्रकारकी गतियोंसे सम्पन्न है और अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करती है । उसके नेत्र खिले हुए कमलके समान जान पड़ते हैं ॥ २३ ॥

वह अचिन्त्य तेजसे जगमगाती रहती है। वह सबकी योनि है और सदा उद्यमशील रहती है। एकाकिनी होनेपर भी वह माया संयोगवशात् अनेक हो जाती है ॥ २४ ॥

वे जो सदाशिव हैं, उन्हें परमपुरुष, ईश्वर, शिव, शम्भु और अनीश्वर कहते हैं। वे अपने मस्तकपर आकाश गंगा को धारण करते हैं। उनके भाल देशमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। उनके [ पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमें] तीन नेत्र हैं ॥ २५ ॥

[पाँच मुख होनेके कारण] वे पंचमुख कहलाते हैं। उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है। वे दस भुजाओंसे युक्त और त्रिशूलधारी हैं। उनके श्रीअंगोंकी प्रभा कर्पूरके समान श्वेत-गौर है। वे अपने सारे अंगोंमें भस्म रमाये रहते हैं ॥ २६ ॥

उन कालरूपी ब्रह्मने एक ही समय शक्तिके साथ ‘शिवलोक’ नामक क्षेत्रका निर्माण किया था ॥ २७ ॥

उस उत्तम क्षेत्रको ही काशी कहते हैं। वह परम निर्वाण या मोक्षका स्थान है, जो सबके ऊपर विराजमान है ॥ २८ ॥

ये प्रिया-प्रियतमरूप शक्ति और शिव, जो परमानन्दस्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्रमें नित्य निवास करते हैं। वह [काशीपुरी] परमानन्दरूपिणी है ॥ २९ ॥

हे मुने! शिव और शिवाने प्रलयकालमें भी कभी उस क्षेत्रको अपने सांनिध्यसे मुक्त नहीं किया है। इसलिये विद्वान् पुरुष उसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ भी कहते हैं ॥ ३० ॥

वह क्षेत्र आनन्दका हेतु है, इसलिये पिनाकधारी शिवने पहले उसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था। उसके । बाद वह ‘अविमुक्त’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ ३१ ॥

हे देवर्षे ! एक समय उस आनन्दवनमें रमण करते हुए शिवा और शिवके मनमें यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुषकी भी सृष्टि करनी चाहिये, जिस पर सृष्टि संचालनका महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरण करें और निर्वाण धारण करें ॥३२-३३ ॥

वही पुरुष हमारे अनुग्रहसे सदा सबकी सृष्टि करे, वही पालन करे और अन्त में वही सबका संहार भी करे ॥ ३४ ॥

यह चित्त एक समुद्र के समान है। इसमें चिन्ता की उत्ताल तरंगें उठ-उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं। इसमें सत्त्वगुणरूपी रत्न, तमोगुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूँगे भरे हुए हैं। इस विशाल चित्त- समुद्रको संकुचित करके हम दोनों उस पुरुषके प्रसाद से आनन्दकानन (काशी) – में सुखपूर्वक निवास करें, [यह आनन्दवन वह स्थान है ] जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओरसे सिमटकर इसी में लगी हुई है तथा जिसके बाहर का जगत् चिन्ता से आतुर प्रतीत होता है ॥ ३५-३६ ॥

ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिवने अपने वामभागके दसवें अंगपर अमृतका सिंचन किया ॥ ३७ ॥

वहाँ उसी समय एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुन्दर था। वह शान्त था। उसमें सत्त्वगुण की अधिकता थी तथा वह गम्भीरता का अथाह सागर था ॥ ३८ ॥

मुने! क्षमा गुण से युक्त उस पुरुषके लिये ढूँढ़ने पर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी। उसकी कान्ति इन्द्रनील मणिके समान श्याम थी। उसके अंग-अंग से दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पा रहे थे ॥ ३९ ॥

उसके श्रीअंगोंपर सुवर्णसदृश कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे। किसीसे भी पराजित न होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डों से सुशोभित हो रहा था ॥ ४० ॥

तदनन्तर उस पुरुषने परमेश्वर शिवको प्रणाम करके कहा—हे स्वामिन्! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये ॥ ४१ ॥

उस पुरुषकी यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में उससे कहने लगे- ॥ ४२ ॥

शिवजी बोले- हे वत्स! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा ‘विष्णु’ नाम विख्यात होगा। इसके अतिरिक्त और भी बहुतसे नाम होंगे, जो भक्तों को सुख देनेवाले होंगे ॥ ४३ ॥

तुम सुस्थिर होकर उत्तम तप करो, क्योंकि वही समस्त कार्यों का साधन है। ऐसा कहकर भगवान् शिवने श्वासमार्ग से श्रीविष्णुको वेदोंका ज्ञान प्रदान किया ॥ ४४ ॥

तदनन्तर अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि भगवान् शिव को प्रणाम करके बहुत बड़ी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहाँसे अदृश्य हो गये ॥ ४५ ॥

बारह हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करनेके पश्चात् भी विष्णु अपने अभीष्ट फलस्वरूप, सर्वस्व देनेवाले भगवान् शिव का दर्शन प्राप्त न कर सके ॥ ४६ ॥

तब विष्णु को बड़ा सन्देह हुआ। उन्होंने हृदयमें शिवका स्मरण करते हुए सोचा कि अब मुझे क्या करना चाहिये। इसी बीच शिवकी मंगलमयी [आकाश] वाणी हुई कि सन्देह दूर करनेके लिये पुनः तपस्या करनी चाहिये ॥ ४७-४८॥

[शिवकी] उस [वाणी] -को सुनकर विष्णु ने ब्रह्म में ध्यानको अवस्थित कर [पुनः] दीर्घकालतक अत्यन्त कठिन तपस्या की ॥ ४९ ॥

तदनन्तर ब्रह्मकी ध्यानावस्थामें ही विष्णु को बोध हो आया और वे प्रसन्न होकर यह सोचने लगे कि अरे! वह महान् तत्त्व है क्या ? ॥ ५० ॥

उस समय शिव की इच्छा से तपस्या के परिश्रम में निरत विष्णुके अंगों से अनेक प्रकार की जलधाराएँ निकलने लगीं ॥ ५१ ॥

हे महामुने! उस जलसे सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्रसे सब पापों का नाश करनेवाला सिद्ध हुआ ॥ ५२ ॥

उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णु मोहित होकर दीर्घकालतक बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें सोते रहे ॥ ५३ ॥

नार अर्थात् जलमें शयन करनेके कारण ही उनका ‘नारायण’- यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ। । उस समय उन परम पुरुष नारायण के अतिरिक्त दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी ॥ ५४ ॥

उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेव से यथासमय सभी तत्त्व प्रकट हुए। हे महामते! हे विद्वन्! मैं उन तत्त्वोंकी उत्पत्तिका प्रकार बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ५५ ॥

प्रकृति से महत्तत्त्व प्रकट हुआ और महत्तत्त्वसे सत्त्वादि तीनों गुण। इन गुणोंके भेदसे ही त्रिविध अहंकारकी उत्पत्ति हुई। अहंकारसे पाँच तन्मात्राएँ हुईं और उन तन्मात्राओंसे पाँच भूत प्रकट हुए। उसी समय ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंका भी प्रादुर्भाव हुआ ॥ ५६-५७॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपको तत्त्वोंकी संख्या बतायी है। इनमेंसे पुरुषको छोड़कर शेष सारे तत्त्व प्रकृतिसे प्रकट हुए हैं, इसलिये सब-के-सब जड़ हैं ॥ ५८ ॥

तत्त्वोंकी संख्या चौबीस है। उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्त्वोंको ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान् शिवकी इच्छा से ब्रह्मरूप जलमें सो गये ॥ ५९ ॥

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