जीवित्पुत्रिका (Jivitputrika) व्रत को उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों में जिउतिया, जितिया (Jitiya), जिवितपुत्रिका, जिवितपुत्री, ज्यूतियाँ, जूतियाँ आदि नामों से जाना जाता है। जितिया व्रत कथा(Jitiya vrat katha) का उल्लेख पुराणों में मिलता है।
जितिया क्यों मनाया जाता है
जीवित्पुत्रिका(Jivitputrika)- जितिया(Jitiya) व्रत पुत्र की लम्बी आयु, अच्छे स्वास्थ्य, उसके सुखी जीवन और उसके सर्वांगीण कल्याण के लिए माताओं द्वारा रखा जाता है।गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन ने परोपकार के लिए अपन जीवन दांव पर लगा दिया था। इसलिए उनके नाम पर इस त्यौहार को जितिया या जिउतिया व्रत के नाम से जानते हैं।
जितिया व्रत की कहानी क्या है
जितिया व्रत की हमें दो कथाएं प्राप्त होती हैं। इनमे से एक गन्धर्व राजकुमार जीमूतवाहन के त्याग की जितिया व्रत की कहानी (Jitiya vrat Kahani) है और दूसरी महाभारत काल से भगवान श्री कृष्ण द्वारा राजकुमार परीक्षित को बचाने की कथा है। इसमें से राजकुमार जीमूतवाहन की कथा द्वापर से पहले की प्रतीत होती है। परन्तु दोनों कथाओं में जितिया के दिन ही बालक के रक्षा का वर्णन है। हम आपको दोनों जितिया व्रत की कहानियों का विवरण यहाँ दे रहे हैं।
जितिया व्रत कथा-जीवित्पुत्रिका व्रत कथा: Jitiya Vrat Katha
पहले प्रस्तुत है राजकुमार जीमूतवाहन के परोपकार वाली जितिया व्रत कथा (Jitiya vrat katha)। इसके नीचे दूसरी जीवित्पुत्रिका (Jivitputrika) व्रत कथा भगवान श्री कृष्ण द्वारा महारथी अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के प्राणरक्षा की है।आप चाहें तो दोनों कथाओं को व्रत में पढ़ सकते हैं।
1.राजकुमार जीमूतवाहन की जितिया व्रत कथा (Jimutvahan Jitiya Vrat Katha)
प्राचीन काल में गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन अपनी सहृदयता के लिए प्रसिद्द थे। राजकुमार जीमूतवाहन बड़े ही उदार,दयालु और परोपकारी स्वभाव के थे। राजकुमार से किसी का भी दुःख देखा न जाता था। वह सर्वदा दीन दुखियों की सहायता के लिए तत्पर रहते थे।
सरल स्वभाव के राजकुमार जीमूतवाहन को राज पाठ से किंचित लगाव न था। लोगों की सहायता करना और शरणागत की रक्षा करना ही उन्हें भाता था। उनके पिता भी उनके सद्गुणों से प्रभावित थे। वृद्धावस्था आ चुकी थी अतः एक दिन वह सब कुछ राजकुमार जीमूतवाहन को सौंप कर चलने लगे।
परन्तु दृढ़व्रती पितृभक्त राजकुमार जीमूतवाहन ने राजकाज की समस्त जिम्मेदारियां अपने भाइयों को सौंप दिया। और अपने पिता के साथ वन में रहकर उनकी सेवा करने का निश्चय कर लिया।
राजकुमार जीमूतवाहन का वन में ही मलयवती नमक राजकन्या से विवाह हो गया। प्रकृति प्रेमी राजकुमार एक दिन वन में भ्रमण करते हुए बहुत आगे चले गए। वहाँ उन्हें एक वृद्धा स्त्री विलाप करते हुए दिखी। परदुखकातर राजकुमार जीमूतवाहन ने तुरंत उससे उसके करुण रुदन का औचित्य पूछा।
वृद्धा बोली ,” मैं एक नागवंशी स्त्री हूँ। हमारे कुलग्राम की प्रथा के अनुसार नागों ने पक्षीराज गरुड़ को प्रतिदिन एक नाग भक्षण हेतु प्रदान करने का वचन दिया है।हर नाग परिवार से प्रतिदिन एक नाग भक्षण हेतु वध शिला पर अर्पण किया जाता है।आज मेरे एकमात्र पुत्र शंखचूड़ की बलि का दिन है। मैं निस्सहाय इसी कारणवश रो रही हूँ।”
शरणागत रक्षा के व्रती राजकुमार जीमूतवाहन ने नागवंशी वृद्धा को आश्वस्त करते हुए दृढ स्वर में कहा ,” डरिये मत माता ! आप मेरी शरणागत हैं और शरणागत की रक्षा प्रथम धर्म है। गरुण देव को भोजन ही चाहिए न। आज आपके पुत्र के बदले मैं स्वयं को अर्पण कर दूंगा। नाग युवक के लाल वस्त्र में मैं स्वयं को लपेट कर वध शिला पर लेटूँगा। इस प्रकार तुम्हारे पुत्र की रक्षा होगी।”
ऐसा कहते हुए वीर राजकुमार जीमूतवाहन ने शंखचूड़ नाग से लाल वस्त्र ले लिया और उसे स्वयं पर लपेट कर वध्य-शिला पर लेट गए।
नियत समय पर पक्षीराज गरुड़ तीव्र गति से उड़ते हुए आये और वध्य-शिला पर लाल वस्त्रों में लिपटे जीमूतवाहन को पंजों में दबाकर उड़ गए। उड़ते समय उन्हें इस बात पर आश्चर्य हुआ की आज उनका आहार कोई हल चल नहीं कर रहा और न ही रुदन क्रंदन को कोई ध्वनि सुनाई दे रही है है। क्या इसे मृत्यु का भय नहीं या यह मृत ही तो नहीं। शीघ्र अपने भोजन के ठिकाने पर पहुँच कर गरुण जी ने अपने आहार से वस्त्र हटाने पर जीमूतवाहन को पाया।
उन्होंने जीमूतवाहन से उनका पूरा परिचय पूछा और कारण जानना चाहा की वह नागो की वध्य शिला पर कैसे पहुंचे।
राजकुमार जीमूतवाहन ने उन्हें पूरा किस्सा कह सुनाया। पूरी कहानी सुनकर गरुड़ जी के आश्चर्य की सीमा न रही। वह जीमूतवाहन के सहृदयता और दृढ व्रत पर बहुत प्रसन्न हुए।गरुण जी ने न केवल राजकुमार जीमूतवाहन को जीवनदान दिया बल्कि भविष्य में नागों से बलि न लेने का भी वचन दिया।
इस प्रकार राजकुमार जीमूतवाहन के दयालुता और साहस से नाग जाति की रक्षा हुयी।और तभी से संतान की सुरक्षा के लिए श्री जीमूतवाहन की पूजा की परम्परा आरम्भ हुयी। कहा जाता है कि चूंकि यह घटना अश्विन मास के कृष्ण पक्ष कि अष्टमी तिथि को हुयी थी अतएव इसी दिन जीवित्पुत्रिका(jivitputrika) व्रत मनाया जाता है।
अश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोष काल में पुत्रवती माताएं श्री जीमूतवाहन देव की पूजा करती हैं। भगवान शिव माता पार्वती को यह जितिया व्रत कथा (Jimutvahan Jitiya vrat katha) सुनाते हुए कहते हैं कि जो स्त्रियां अष्टमी तिथि को सायं प्रदोष काल में पूजा करके आचार्य द्वारा यह कथा सुनती हैं तथा कथा समाप्ति पर उनको दक्षिणा देती हैं वह अपने पुत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती हैं। व्रत का पारण अगले दिन अष्टमी तिथि के समाप्त होने के पश्चात किया जाता है। यह जीवित्पुत्रिका व्रत अपने नाम के अनुसार फल देने वाला अर्थात पुत्रों को जिलाने वाला है।
2. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा राजकुमार परीक्षित के रक्षा की कथा
जीवित्पुत्रिका,जूतियां या जितिया व्रत कथा (Jitiya vrat katha) का सम्बन्ध महाभारत काल से भी माना जाता है। महाभारत के युद्ध की समाप्ति दुर्योधन की जंघा तोड़कर महाबली भीम कर चुके थे। तथापि अश्वत्थामा चिरंजीवी(जानिए एक और चिरंजीवी मार्कण्डेय जी के विषय में) थे और अभी भी अपने पिता की छल से मृत्यु तथा मित्र दुर्योधन का बदला लेने हेतु पांडवों के शिविर में रात्रि में घुसकर द्रौपदी के पांचो पुत्रों की सोते हुए हत्या कर दी। अश्वत्थामा ने उन्हें पांडवों के धोखे में ही मारा था।
तत्पश्चात पांडवों ने अश्वत्थामा को घेर लिया। अर्जुन के साथ हुए युद्ध में अश्वत्थामा ने क्रोध में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया । प्रत्युत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। महर्षि व्यास के समझाने पर अर्जुन ने तो ब्रह्मास्त्र को वापस कर लिया पर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र को वापस लेने के बजाय अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु पर ही ब्रह्मास्त्र को मोड़ दिया।
भगवन श्री कृष्ण अपने एक रूप से गर्भ में ही बालक के चारो ओर घूमते हुए उसकी ब्रह्मास्त्र से रक्षा करते रहे। फिर भी बालक के जन्म लेते समय ब्रह्मास्त्र की अवसर मिल गया और शिशु मृत पैदा हुआ। तब भगवान श्री कृष्ण ने उस बालक की रक्षा की और अपने समस्त पुण्यों का दान बालक के निमित्त कर मृत बालक को भी जीवित कर दिया। भगवान कृष्ण (श्री कृष्ण जी की आरती) द्वारा रक्षा किये जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित पड़ा। कहते हैं भगवान द्वारा पुनर्जीवित करने यह घटना भी इसी तिथि को हुयी थी अतः इस उपलक्ष्य में भी जितिया व्रत मनाया जाता है।
जितिया कब मनाया जाता है
जितिया जीवित्पुत्रिका व्रत आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन माताएं संतान के सुखी, स्वस्थ और लम्बी आयु के कामना से इस व्रत को करती हैं।यह व्रत प्रायः उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के उत्तरी भागों में बहुत लोकप्रिय है।
जितिया 2023 : Jitiya 2023
जितिया 2023-Jitiya 2023 , 6 अक्टूबर शुक्रवार को मनाया जायेगा। 5 अक्टूबर बृहस्पतिवार को नहाय खाय होगा। 6 अक्टूबर शुक्रवार को निर्जला व्रत और 7 अक्टूबर शनिवार को सुबह व्रत का पारण होगा।
- नहाय खाय : 5 अक्टूबर 2023 बृहस्पतिवार को नहाय खाय है।
- निर्जला व्रत : 6 अक्टूबर 2023 शुक्रवार को निर्जला व्रत है।
- व्रत पारण : 7 अक्टूबर शनिवार को सूर्योदय के बाद व्रत का पारण किया जाएगा।
जितिया व्रत कब है 2023
हिंदू पंचांग के अनुसार,
- अष्टमी तिथि दिनांक 6 अक्टूबर 2023 को प्रातः 06:34 बजे आरम्भ हो रही है
- तथा यह अगले दिन अष्टमी तिथि 07 अक्टूबर 2023 प्रातः 08:08 बजे समाप्त होगी।
सूर्योदय की तिथि के अनुसार, जीवित्पुत्रिका व्रत 6 अक्टूबर,शुक्रवार को रखा जाएगा। दिनांक 5 अक्टूबर 2022, बृहस्पतिवार को नहाय-खाय है। निर्जला व्रत अगल दिन 6 अक्टूबर को रखा जायेगा।
जीत वाहन पूजा कब है?
अष्टमी तिथि दिनांक 6 अक्टूबर 2023 को प्रातः 06:34 बजे आरम्भ हो रही है,तभी भगवान जीतवाहन की पूजा भी है।
जीवित्पुत्रिका व्रत कैसे किया जाता है
इस व्रत में मातायें सप्तमी को खाना व जल ग्रहण करके व्रत की शुरूआत करती हैं और अष्टमी को पूरे दिन निर्जला उपवास करती हैं और नवमी को व्रत का समापन करती है। महिलाएं इस दिन गले में लाल धागे के साथ जिउतिया भी पहनती हैं।
जितिया व्रत की विधि : Jitiya Vrat Vidhi
जीवित्पुत्रिका-जितिया व्रत को आश्विन कृष्ण के प्रदोष काल व्यापिनी अष्टमी के दिन आरम्भ किया जाता है। जितिया व्रत की विधि (Jitiya Vrat Vidhi) इस प्रकार है। सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। यह संकल्प नहाय खाय के दिन होता है। व्रत का संकल्प (संकल्प करने की विधि) स्नान के पश्चात लिया जाता है। व्रती को प्रदोष काल में पूजा स्थल को स्वच्छ कारण चाहिए। मिट्टी के घरों में गाय के गोबर से लीपकर और पक्के फर्श कोअच्छी तरह से स्वच्छ करके गंगाजल से पवित्र करना चाहिए। पूजा स्थल पर एक छोटे से तालाब निर्माण कर लेते हैं और इस नवनिर्मित कृत्रिम तालाब के पास पाकड़ के वृक्ष कि एक डाली लाकर लगा देनी चाहिए।
जितिया पूजा : Jitiya Puja
देव जीमूतवाहन की कुशा घास (कुशा की विशेषताएं) से निर्मित प्रतीकात्मक विग्रह को मिटटी के पात्र में या जल में स्थापित कर देना चाहिए। जीमूतवाहन के चित्र या प्रतिमा विग्रह को लाल पीले रंगो से सजाना देना चाहिए। उनकी प्रतिमा का धूप दीप नैवेद्य , पुष्प माला अक्षत आदि से भली प्रकार पूजन करना चाहिए। इसके अलावा मिट्टी से या गोबर से मादा सियार और मादा चील की प्रतिमा का भी निर्माण करना चाहिए। उन पर तिलक लगाकर सिन्दूर अर्पण करें और उनका भी संक्षिप्त पूजन करना चाहिए। जितिया पूजा (Jitiya Puja) उपरोक्त विधि के अनुसार पूजन संपन्न करें।
पूजा के पश्चात जीवित्पुत्रिका जितिया व्रत कथा (Jitiya vrat katha)अवश्य सुने।

सारांश– जीवित्पुत्रिका व्रत को उत्तरा भारत के ग्रामीण अंचलों में जिउतिया और जितिया के नाम से जाना जाता है। जितिया व्रत की कथा पुराणों में मिलती है। प्राचीन काल में गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन अपनी सहृदयता के लिए प्रसिद्द थे। राजकुमार जीमूतवाहन बड़े ही उदार और परोपकारी स्वभाव के थे। दयालु राजकुमार से किसी का भी दुःख देखा न जाता था।राजकुमार जीमूतवाहन के दयालुता और साहस से नाग जाति की रक्षा हुयीऔर तभी से संतान की सुरक्षा के लिए श्री जीमूतवाहन की पूजा की परम्परा आरम्भ हुयी। कहा जाता है कि चूंकि यह घटना अश्विन मास के कृष्ण पक्ष कि अष्टमी तिथि को हुयी थी अतएव इसी दिन जीवित्पुत्रिका व्रत मनाया जाता है।
जितिया व्रत 2022-जीत वाहन पूजा कब था?
- नहाय खाय :17 सितंबर 2022 शनिवार को नहाए खाए था।
- निर्जला व्रत :18 सितंबर 2022 रविवार को निर्जला व्रत था।
- व्रत पारण : 19 सितंबर को सूर्योदय के बाद व्रत का पारण किया गया था।
हिंदू पंचांग के अनुसार, अष्टमी तिथि दिनांक 17 सितंबर को दोपहर 2 बजकर 14 मिनट पर आरम्भ हुआ था तथा यह अगले दिन 18 सितंबर को अपरान्ह 4 बजकर 32 मिनट पर समाप्त हुआ था। सूर्योदय की तिथि के अनुसार, जीवित्पुत्रिका व्रत 18 सितंबर को रखा गया था। दिनांक 17 सितंबर 2022, शनिवार को नहाय-खाय था। निर्जला व्रत अगल दिन 18 सितम्वर को रखा गया था।
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