कुशा काआध्यात्मिक एवं पौराणिक महत्त्व| कुशा की उत्पत्ति एवं प्रयोग
कुशा को कुश, दर्भ ,दभ, सिरु, डाभ , सरकंडा आदि अनेक नामों से जाना जाता है।
कुशा का महत्व क्या है?
अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। इसको कुश, दर्भ अथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है। यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण बिना कुशा के सम्भव नहीं हैं। कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान ने सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। जहाँ कुश की पवित्री उंगली में पहनते हैं तो वहीं कुश के आसन भी बनाए जाते हैं।
कुश घास की पहचान|कुश कैसा दिखता है?
कुशा एक प्रकार की बड़ी घास है। यह इतनी बड़ी हो जाती है है की इसके पीछे हाथी जैसे जानवर भी छुप जाते हैं। इसलिए इसे कहीं कहीं हाथी घास भी कहते हैं। कुशा एक प्रकार का तृण है किसकी पत्तियों की सतह एक और से स्निग्ध- चिकनी और दूसरी और से तनिक खुरदुरी होती है। कुशा की पत्तियों के किनारे तीखे धारदार होते हैं, जो असावधानी बरतने पर त्वचा काट सकते हैं। इसकी डंठल कठोर और चिकनी होतो है। इसमें शाखाओं का आभाव होता है और पत्तियां सीधा तने के डंठल से निकल कर ऊंचाई तक जाती हैं। कुश प्रायः जगली उजाड़ क्षेत्रों और खेत खलिहानों में अपने आप ही उगी हुयी पायी जाती है।
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कुशा कितने प्रकार के होते हैं?| दश दर्भा प्रकार
शास्त्रों में दस प्रकार के कुशों का वर्णन मिलता है-
कुशा, काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा, सबल्वजा।।
- कुशा,
- काशा
- यवा
- दूर्वा
- उशीराच्छ
- सकुन्दका।
- गोधूमा
- ब्राह्मयो
- मौन्जा
- सबल्वजा
यही दश दर्भा, कहे जाते हैं।
कुशा के ज्योतिषीय प्रयोग
ज्योतिष शास्त्र के नज़रिए से कुश को विशेष वनस्पति का दर्जा दिया गया है। इसका इस्तेमाल ग्रहण के दौरान खाने-पीने की चीज़ों में रखने के लिए होता है। एक विशेष बात और जान लीजिए कुश का स्वामी केतु है लिहाज़ा कुश को अगर आप अपने घर में रखेंगे तो केतु के बुरे फलों से बच सकते हैं। केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं।केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है।
कुशा आसन|दर्भ आसन महत्त्व
कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध(क्या मन्त्र सिद्ध होते हैं ?) होते हैं।इस पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की वृद्धि होती है। साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है।
नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32
अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता।
कुशा का पूजा में महत्व| Kusha For Puja
पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों में कुश का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जाता रहा है। यह एक प्रकार की घास है, जिसे अत्यधिक पावन मान कर पूजा में इसका प्रयोग किया जाता है। कुशा के फूल का भगवान शिव को अर्पण करने का बहुत महत्त्व होता है।
कुशा का जल क्या होता है?
रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति(श्री नवग्रह शांति चालीसा) पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है।
कुशा की अंगूठी-नागमुद्रिका|कुश की पवित्री धारण|पवित्री क्या होती है?
पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका-अंगूठी बना कर पहनते हैं। इस कुश नागमुद्रिका को ही पवित्री या कहीं कहीं पैंती कहते हैं। कुश की अंगूठी इसलिए पहनते हैं, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली(हृदय स्वस्थ करें सूर्य अनामिका के प्रयोग से) है।सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पड़ता है।
देवपूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है।
कुशा की आचमनी बनाना सीखिये
कुश ग्रंथि की माला
कुश ग्रंथि की माला कुश नामक घास की जड़ को खोदकर उसकी गांठों से बनाई गई यह कुश ग्रंथि माला सभी प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक विकारों का शमन करके साधक को निष्कलुष, निर्मल और सतेज बनाती है। इसके प्रयोग से व्याधियों का नाश होता है। कुश ग्रंथि की माला कुशा की जड़ को खोदकर उसमें से प्राप्त गांठों से बनायीं जाती है। कुशा ग्रंथि के माला पर जाप करने से कायिक, मानसिक, शारीरिक विकारों का अंत होता है। मनुष्य स्वस्थ व सतेज होता है।
महिलाओं की सुरक्षा में कुशा का उपयोग
कुशा महिलाओं की सुरक्षा करनें में रामबाण है जब लंका पति रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अशोक वाटिका ले गया , उसके बाद वह बार-बार उन्हें प्रलोभित करने जाता था और माता सीता “इस कुशा को अपना सुरक्षा कवच बनाकर “उससे बात करती थी, जिसके कारण रावण सीता के निकट नहीं पहुँच सका l आज भी मातृशक्ति अपने पास कुशा रखे तो अपने सतीत्व की रक्षा सहज रूप से कर सकती है क्योंकि कुशा में वह शक्ति(कुश के तांत्रिक प्रयोग) विद्यमान है जो माँ बहिनों पर कुदृष्टि रखने वालों को उनके निकट पहुंचने भी नहीं देती l जो माँ या बहनें मासिक विकार से परेशान है उन्हें कुशा के आसन और चटाई का विशेष दिनों में प्रयोग करना चाहिए।
कुशा के विषय में पौराणिक कहानी
महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं। एक का नाम कद्रू था और दूसरी का नाम विनता। कद्रू और विनता दोनों महार्षि कश्यप की खूब सेवा करती थीं। महार्षि कश्यप ने उनकी सेवा-भावना से अभिभूत हो वरदान मांगने को कहा। कद्रू ने कहा, मुझे एक हजार पुत्र चाहिए। महार्षि ने ‘तथास्तु’ कह कर उन्हें वरदान दे दिया। विनता ने कहा कि मुझे केवल दो प्रतापी पुत्र चाहिए। महार्षि कश्यप उन्हें भी दो तेजस्वी पुत्र होने का वरदान देकर अपनी साधना में तल्लीन हो गए। कद्रू के पुत्र सर्प रूप में हुए, जबकि विनता के दो प्रतापी पुत्र हुए। किंतु विनता को भूल के कारण कद्रू की दासी बनना पड़ा।
विनता के पुत्र गरुड़ ने जब अपनी मां की दुर्दशा देखी तो दासता से मुक्ति का प्रस्ताव कद्रू के पुत्रों के सामने रखा। कद्रू के पुत्रों ने कहा कि यदि गरुड़ उन्हें स्वर्ग से अमृत लाकर दे दें तो वे विनता को दासता से मुक्त कर देंगे। गरुड़ ने उनकी बात स्वीकार कर अमृत कलश स्वर्ग से लाकर दे दिया और अपनी मां विनता को दासता से मुक्त करवा लिया।
यह अमृत कलश ‘कुश’ नामक घास पर रखा था, जहां से इंद्र इसे पुन: उठा ले गए तथा कद्रू के पुत्र अमृतपान से वंचित रह गए। उन्होंने गरुड़ से इसकी शिकायत की कि इंद्र अमृत कलश उठा ले गए। गरुड़ ने उन्हें समझाया कि अब अमृत कलश मिलना तो संभव नहीं, हां यदि तुम सब उस घास (कुश) को, जिस पर अमृत कलश रखा था, जीभ से चाटो तो तुम्हें आंशिक लाभ होगा।कद्रू के पुत्र कुश को चाटने लगे, जिससे कि उनकी जीभें चिर गई इसी कारण आज भी सर्प की जीभ दो भागों वाली चिरी हुई दिखाई पड़ती है.l ‘कुश’ घास की महत्ता अमृत कलश रखने के कारण बढ़ गई और भगवान विष्णु के निर्देशानुसार इसे पूजा कार्य में प्रयुक्त किया जाने लगा।
कुशा की उत्पत्ति कैसे हुई?
कुशा की उत्पत्ति के दो पौराणिक कथानक
जब भगवान विष्णु ने वराह रूप धारण कर समुद्रतल में छिपे महान असुर हिरण्याक्ष का वध कर दिया और पृथ्वी को उससे मुक्त कराकर बाहर निकले तो उन्होंने अपने बालों को फटकारा। उस समय कुछ रोम पृथ्वी पर गिरे। वहीं कुश के रूप में प्रकट हुए।
मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई।
कुशा के उपयोग
- कुश ऊर्जा की कुचालक है। इसलिए इसके आसन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने वाले साधन की शक्ति का क्षय नहीं होता। परिणामस्वरूप कामनाओं की अविलंब पूर्ति होती है।
- वेदों ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।
- कुश का प्रयोग पूजा करते समय जल छिड़कने, ऊंगली में पवित्री पहनने, विवाह में मंडप छाने तथा अन्य मांगलिक कार्यों में किया जाता है। इस घास के प्रयोग का तात्पर्य मांगलिक कार्य एवं सुख-समृद्धिकारी है, क्योंकि इसका स्पर्श अमृत से हुआ है।
- हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है।
- वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।
- कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।
कुशा से शब्दों की व्युत्पत्ति
कुशाग्र- कुशा जिसे सामन्य घांस समझा जाता है उसका बहुत ही बड़ा महत्व है , कुशा के अग्र भाग जोकी बहुत ही तीखा होता है इसीलिए उसे कुशाग्र कहते हैं lतीक्ष्ण बुद्धि वालो को भी कुशाग्र इसीलिए कहा जाता है l
कुशल – कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है। पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।
पांच वर्ष की आयु के बच्चे की जिव्हा पर शुभ मुहूर्त में कुशा के अग्र भाग से शहद द्वारा सरस्वती मन्त्र लिख दिया जाए तो वह बच्चा कुशाग्र बन जाता है।
कुशोत्पाटिनी-कुशाग्रहणी अमावस्या
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अमावस्या को शास्त्रों में कुशाग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या कहा जाता है।कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश एकत्र लेते हैं। प्रत्येक धार्मिक कार्यो के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है। यानि कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन कुश, काश , दूर्वा, उशीर, ब्राह्मी, मूंज इत्यादि कोई भी कुश उखाड़ी जा सकती है और उसका घर में संचय किया जा सकता है।
कुशाग्रहणी अमावस्या का विधि-विधान
अघोर चतुर्दशी के दिन तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है। कुश अमावस्या के दिन किसी पात्र में जल भर कर कुशा के पास दक्षिण दिशाकी ओर अपना मुख करके बैठ जाएं तथा अपने सभी पितरों को जल दें। अपने घर परिवार, स्वास्थ्य आदि की शुभता की प्रार्थना करनी चाहिए।
कुशाग्रहणी अमावस्या का पौराणिक महत्व
शास्त्रों में में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाती है।
कुशा उखाड़ने की विधि -निमंत्रण एवं मंत्र
कुश को निमंत्रण
खास बात ये है कि कुश उखाडऩे से एक दिन पहले बड़े ही आदर के साथ उसे अपने घर लाने का निमंत्रण दिया जाता है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है। यदि आप किसी कारणवश एक दिन पहले निमंत्रण न दे पाए हों तो इस प्रकार निवेदन करें। कुश के पास जाएं और श्रद्धापूर्वक उससे प्रार्थना करें, कि हे कुश कल मैं किसी कारण से आपको आमंत्रित नहीं कर पाया था जिसकी मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन आज आप मेरे निमंत्रण को स्वीकार करें और मेरे साथ मेरे घर चलें।
कुश उखाड़ने का मंत्र
कुशा के सिरे नुकीले होते हैं उखाड़ते समय सावधानी रखनी पडती है कि जड सहित उखड़े और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना। कुश उखाड़ते समय निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रार्थना करें,
“विरन्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिनिसर्जन। नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव॥
इस प्रार्थना के पश्चात् फिर ” ऊँ हुम् फट” मन्त्र का उच्चारण करते हुए उत्तराभिमुख होकर कुशा उखाड़कर उसे अपने साथ घर लाना है। एक एक वर्ष तक घर पर रखने से आपको शुभ फल प्राप्त होंगे।अत: प्रत्येक गृहस्थ को इस दिन कुश का संचय करना चाहिए।
पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि। कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।
कुशा प्रत्येक दिन नई उखाड़नी पडती है लेकिन अमावस्या की तोड़ी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावस्या के दिन की तोड़ी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड़ के रख लते हैं।
कौन सा कुश उखाड़ेंं
कुश उखाडऩे से पूर्व यह ध्यान रखें कि जो कुश आप उखाड़ रहे हैं वह उपयोग करने योग्य हो। ऐसा कुश ना उखाड़ें जो गन्दे स्थान पर हो, जो जला हुआ हो, जो मार्ग में हो या जिसका अग्रभाग कटा हो, इस प्रकार का कुश ग्रहण करने योग्य नहीं होता है।लेकिन इस बात का ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि हरी पत्तेदार कुश जो कहीं से भी कटी हुई ना हो।जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है।
संयम, साधना और तप के लिए कुशाग्रहणी अमावस्या का दिन श्रेष्ठ
कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से छुटकारा मिलता है। इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है। भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
कुश प्रश्नोत्तरी| Kusha FAQs
कुश का पेड़ कैसे होता है?
कुश का पेड़ या डालियों वाला वृक्ष नहीं होता वरन ये एक प्रकार का तृण घास है।
कुश की गंध कैसी होती है?
कुश की गंध मंद तीखी कुछ कुछ जैसा आपने कभी बांस से बनी चटाई पर बैठने पर अनुभव किया होगा वैसी ही होती है। यद्यपि साथ में इनकी गंध में अंतर किया जा सकता है। समय के साथ कुश से बना आसान भी अपना गंध खोता जाता है।
कुशा को हिंदी में क्या कहते हैं?|कुशा को किन नामों से जानते हैं
कुशा को कुश, दर्भ ,दभ, सिरु, डाभ , सरकंडा आदि अनेक नामों से जाना जाता है।
लेख सौजन्य: अरुण शास्त्री, जबलपुर