संगति शब्द ही दो शब्दों से मिलकर बना है सम अर्थात बराबर , गति अर्थात परिणति या परिणाम। इसका सीधा सा अर्थ है की जिस संगति में , जिस तरह के लोगों के साथ आप रहते है आपकी की परिणति भी क्रमशः वैसी ही होगी। यह संगति के प्रभाव को दर्शाता है।इसलिए संतजन कुसंगति से अपने भाव की रक्षा करते हैं।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला।तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।
गृह कारज नाना जंजाला।ते अति दुर्गम सैल विसाला।
खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है।उन कुसंगियों के बोल बाघ सिह और साॅप की भाॅति हैं।घर के कामकाज में अनेक झंझट हीं बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं।
सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई।सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं।रवि पावक सुरसरि की नाई।
गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता। सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ ब्यक्ति को कोई दोश नही लगाता है।
तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पड़ जाते हैं। मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन साॅप का खाता है।
बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं।गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
जलधि अगाध मौलि बह फेन।संतत धरनि धरत सिर रेनू।
बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं।पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है। अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है।
बैनतेय बलि जिमि चह कागू।जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू।
जिमि चह कुसल अकारन कोही।सब संपदा चहै शिव द्रोही।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई।अकलंकता कि कामी लहई।
यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे-अकारण क्रोध करने बाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने बाला सब तरह की संपत्ति चाहे-लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूश बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छायें ब्यर्थ हैं।
ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।
ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं। ज्ञानी और समझदार लोग हीं इसे जान पाते हैं।
को न कुसंगति पाइ नसाई।रहइ न नीच मतें चतुराई।
खराब संगति से सभी नश्ट हो जाते हैं। नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई बुद्धि भ्रश्ट हो जाती हैं ।
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता।
सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ।भ्ूालेहुॅ संगति करिअ न काउ।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।
अब असंतों का गुण सुनें।कभी भूलवश भी उनका साथ न करें।उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है। खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।
खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी ।जरहिं सदा पर संपत देखी।
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई।हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई।
दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं। दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैंजैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो।
काम क्रोध मद लोभ परायन।निर्दय कपटी कुटिल मलायन।
वयरू अकारन सब काहू सों।जो कर हित अनहित ताहू सों।
वे काम क्रोध अहंकार लोभ के अधीन होते हैं।वे निर्दय छली कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं। वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं।जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई हीं करते हैं।
झूठइ लेना झूठइदेना।झूठइ भोजन झूठ चवेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा।खाइ महा अति हृदय कठोरा।
दुश्ट का लेनादेना सब झूठा होता है।उसका नाश्ता भोजन सब झूठ हीं होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विशधर साॅप को भी खा जाता है। इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।
पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद।
वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं। वे पामर और पापयुक्त मनुश्य शरीर में राक्षस होते हैं।
लोभन ओढ़न लोभइ डासन।सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना।
काहू की जौं सुनहि बड़ाई।स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।
लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है।वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं। उन्हें यमलोक का डर नहीं होता।किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है।
जब काहू कै देखहिं बिपती।सुखी भए मानहुॅ जग नृपति।
स्वारथ रत परिवार विरोधी।लंपट काम लोभ अति क्रोधी।
वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों। वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं।
मातु पिता गुर विप्र न मानहिं।आपु गए अरू घालहिं आनहि।
करहिं मोहवस द्रोह परावा।संत संग हरि कथा न भावा।
वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते।खुद तो नश्ट रहते हीं हैं दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं।मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है।
अवगुन सिधुं मंदमति कामी।वेद विदूसक परधन स्वामी।
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा।दंभ कपट जिएॅ धरें सुवेसा।
वे दुर्गुणों के सागर मंदबुद्धि कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला, जबर्दस्ती दूसरों का धन लूटने बाला द्रोही विसेसतः ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं। उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिवास बहुत सुन्दर रहता है।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।सत संगति संसृति कर अंता।
भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है।लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है। पुनः विना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नही मिलती है।संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है।
जेहि ते नीच बड़ाई पावा।सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा।
धूम अनल संभव सुनु भाई।तेहि बुझाव घन पदवी पाई।
नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है।आग से पैदा धुआॅ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है।
रज मग परी निरादर रहई।सब कर पद प्रहार नित सहई।
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई।पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।
धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सबों के पैर की चोट सहती रहती है। लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है। बाद में वह राजाओं के आॅखों और मुकुटों पर पड़ती है।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा।बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।
कवि कोविद गावहिं असि नीति।खल सन कलह न भल नहि प्रीती।
बुद्धिमान मनुश्य नीच की संगति नही करते हैं।कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि दुश्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम।
उदासीन नित रहिअ गोसांई।खल परिहरिअ स्वान की नाई।
दुश्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये।दुश्ट को कुत्ते की तरह दूर से हीं त्याग देना चाहिये।
सन इब खल पर बंधन करई ।खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।अहि मूशक इब सुनु उरगारी।
कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं।जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है। वह दुख सहकर मर जाता है।दुश्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं।
पर संपदा बिनासि नसाहीं।जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू।जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नश्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है।दुश्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।
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