तुलसीदास के दोहे-2: सुमिरन
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।बिनु श्रम प्रवल मोह दलु जीती।
फिरत सनेहॅ मगन सुख अपने।नाम प्रसाद सोच नहि सपने।
भक्त प्रेमपूर्वक नाम के सुमिरण से बिना परिश्रम मोह माया की प्रवल सेना को जीत लेता है और प्रभु प्रेम में मग्न हो कर सुखी रहता है।नाम के फल से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नही होती।
प्रभु समरथ सर्वग्य सिव सकल कला गुण धाम
जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरू नाम।
ईश्वर सर्व सामथ्र्यवान सर्वग्य और कल्याणदायी हैं।वे सभी कलाओं और गुणों के निधान हैं।वे योग ज्ञान और वैराग्य के भंडार हैं।प्रभु का नाम शरणागतों के लिये कल्पतरू है।
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बातुल भूत बिवस मतवारे।ते नहि बोलहिं बचन विचारे।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना।तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।
जो पागल उन्मादी और भूत के वशीभूत मतवाले हैंऔर नशे में चूर हैं वे कभी भी सोच विचार कर नही बोलते हैं। जिसने मोह माया की मदिरा पी ली है उनके कहने पर कभी कान ध्यान नही देना चाहिये।
धरनि धरहिं मन धीर कह विरंचि हरि पद सुमिरू
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारून विपति।
पृथ्वी पर धीरज रखकर भगवान के चरण का स्मरण करो। प्रभु सभी लोगों की पीडा को जानते हैं और महान कश्ट एवं विपत्ति का नाश करते हैं।
अग जगमय सब रहित विरागी।प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।
प्रभु सम्पूर्ण जगत में समस्त राग विराग से रहित होकर ब्याप्त हैं पर उसकी प्राप्ति के लिये साधन करना पड़ता है।
ईश्वर प्राप्ति का साधन प्रेम है।
बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।
ब्राम्हण गाय देवता और संतों के हित हेतु भगवान ने आदमी के रूप में अवतार लिया है। वे समस्त माया और इन्द्रियों से परे हैं। उनका शरीर उन्हीं की इच्छा से बना है।
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप।
प्रभु ब्यापक अशरीर इच्छारहित अजन्मा निर्गुण तथा विना नाम एवं रूप बाले हैं और भक्तों के लिये अनेकों प्रकार की अनुपम लीलायें करते हैं।
जिन्ह के रही भावना जैसी।प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।
जिनकी जैसी भावना होती है वे प्रभु की मूर्ति वैसी हीं देखते हैं।
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू।सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू।
जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है वह उसे मिलता हीं हैं-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
तृशित बारि बिनु जो तनु त्यागा।मुएॅ करइ का सुधा तरागा।
प्यासा आदमी पानी के विना शरीर छोड दे तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?
का बरसा सब कृसी सुखाने।समय चुकें पुनि का पछताने।
सारा कृसी सूख जाने पर वर्शा का क्या लाभ?समय बीत जाने पर पुनः पछताने से क्या लाभ होगा।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो विधि लिखा लिलार
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनहार।
ईश्वर ने जो कपाल भाग्य में लिख दिया है उसे देवता राक्षस आदमी या नाग कोई भी नही मिटा सकता है।
मातु पिता गुर प्रभु के वाणी।विनहिं विचार करिअ सुभ जानी।
माता पिता गुरू और स्वामी की बातों को बिना सोच विचार कर कल्याणकारी जानकर मानना चाहिये।
पर हित लागि तजई जो देही।संतत संत प्रसंसहि तेहीं
दूसरो की भलाई के लिये जो अपना शरीर तक त्याग देता है-संत लोग सदा हीं उसकी प्रशंशा करते हैं।
ता कहुॅ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल
तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।
जिसपर भगवान खुश हों उसके लिये कुछ भी कठिन नहीं है। ईश्वर के प्रभाव से रूई भी बड़वानल को जला सकमी है।
असम्भव भी सम्भव हो जाता है।
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- तुलसीदास के दोहे-3: भक्ति
- तुलसीदास के दोहे-4: गुरू महिमा
- तुलसीदास के दोहे-5-अहंकार
- तुलसीदास के दोहे-6: संगति
- तुलसीदास के दोहे-7: आत्म अनुभव
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