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तुलसीदास के दोहे-10: विवेक

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(1)

जनम मरन सब दुख सुख भोगा।हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।बरबस राति दिवस की नाईं।

अर्थ: जन्म मृत्यु सभी दुख सुख के भेाग हानि लाभ प्रिय लोगों से मिलना याबिछुड़ना समय एवं कर्म के अधीन रात एवं दिन की तरह स्वतः होते रहते हैं।

सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं।दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी।छाड़िअ सोच सकल हितकारी।

अर्थ: मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते विलखते हैं लेकिन धीर ब्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं। विवेकी ब्यक्ति धीरज रखकर शोक का परित्याग करते हैं।

जनि मानहुॅ हियॅ हानि गलानी।काल करम गति अघटित जानी।


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अर्थ: समय और कर्म की गति अमिट जानकर अपने हृदय में हानि और ग्लानि कभी मत मानो।

सोचिअ विप्र जो वेद विहीना।तजि निज धरमु विसय लय लीना।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना।जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।

अर्थ: उस ब्राह्मण का दुख करना चाहिये जो वेद नही जानता और अपना कर्तब्य छोड़कर विसय भोगों में लिप्त रहता है। उस राजा का भी दुख करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जो अपने प्रजा को अपने प्राणों के समान प्रिय नहीं मानता है।

सोचिअ बयसु कृपन धनबानू।जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।
सोचिअ सुद्र विप्र अवमानी।मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।

अर्थ: उस वैश्य के बारे में दुख होना चाहिये जो धनी होकर भी कंजूस है तथा जो अतिथि सत्कार और शिव की भक्ति मन से नही करता है। वह शुद्र भी दुख के लायक है जो ब्राह्मण का अपमान करता है और बहुत बोलने और मान इज्जत चाहने वाला हो तथा जिसे अपने ज्ञान का बहुत घमंड हो।

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई।जो नहि गुर आयसु अनुसरई।

अर्थ: उस स्त्री का भी दुख करना चाहिये जो पति से छलावा करने बाली कुटिल झगड़ालू ओर मनमानी करने बाली है। उस ब्रह्मचारी का भी दुख करना चाहिये जो ब्रह्मचर्यब्रत छोड़कर गुरू के आदेशानुसार नहीं चलता है।

सोचिअ गृही जो मोहवस करइ करम पथ त्याग
सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग।

अर्थ: उस गृहस्थ का भी सोच करना चाहिये जिसने मोहवश अपने कर्म को छोड़ दिया है। उस सन्यासी का भी दुख करना चाहिये जो सांसारिक जंजाल में फॅसकर ज्ञान वैराग्य से विरक्त हो गया है।

बैखानस सोइ सोचै जोगू।तपु विहाइ जेहि भावइ भोगू।
सोचअ पिसुन अकारन क्रोधी।जननि जनक गुर बंधु विराधी।

अर्थ: वह वानप्रस्थी ब्यक्ति भी सोच का कारण है जो तपस्या छोड़ भोग में रत है। चुगलखोर अकारण क्रोध करने बाला माता पिता गुरू एवं भाई बंधु के साथ बैर विरोध रखनेवाला भी दुख और सोच करने लायक है।

सब विधि सोचिअ पर अपकारी।निज तनु पोसक निरदय भारी।
सोचनीय सबहीं विधि सोई।जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।

अर्थ: जो दूसरोंका अहित करता है-केवल अपने शरीर का भरण पोशण करता है और अन्य लोगों के लिये निर्दयी है-जो सब छल कपट छोड़कर भगवान का भक्त नहीं है-उनका तो सब प्रकार से दुख करना चाहिये।

अनुचित उचित विचारू तजि जे पालहिं पितु बैन
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।

अर्थ: जो उचित अनुचित का विचार छोड़कर अपने पिता की बातें मानता है वे इस लोक में सुख और यश पाकर अन्ततः स्वर्ग में निवास करते हैं।

गुर पित मातु स्वामि हित बानी।सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।
उचित कि अनुचित किएॅ विचारू।धरमु जाइ सिर पातक भारू।

अर्थ: गुरू पिता माता स्वामी की बातें अपने भलाई की मानकर प्रसन्न मन से मानना चाहिये। इसमें उचित अनुचित का विचार करने पर धर्म का नाश होता है और भारी पाप सिर पर लगता है।

करम प्रधान विस्व करि राखा।जो जस करई सो तस फलु चाखा।

अर्थ: ईश्वर ने विश्व मंे कर्म की महत्ता दी है। जो जैसा कर्म करता है-वह वैसा हीं फल भोगता है।

जो सेवकु साहिवहि संकोची।निज हित चहई तासु मति पोची।
सेवक हित साहिब सेवकाई।करै सकल सुभ लोभ बिहाई।

अर्थ: सेवक यदि मालिक को दुविधा में डालकर अपना भलाई चाहता है तो उसकी बुद्धि नीच है।सेवक की भलाई इसी में है कि वह तमाम सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा करे।

रहत न आरत कें चित चेत।

अर्थ: दुखी ब्यक्ति के हृदय चित्त में विवेक नहीं रहता है।

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।सेवा धरमु कठिन जगु जाना।
स्वामि धरम स्वारथहिं विरोधू।वैरू अंध प्रेमहि न प्रबोधू।

अर्थ: वेद शाश्त्र पुराणों में प्रसिद्ध है और संसार जानता है कि सेवा धर्म अत्यंत कठिन है। अपने स्वामी के प्रति कर्तब्य निर्बाह और ब्यक्तिगत स्वार्थ एक साथ नहीं निबह सकते। शत्रुता अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता है।दोनाे में गलती का डर बना रहता हैै।

सहज सनेहॅ स्वामि सेवकाई।स्वारथ छल फल चारि विहाई।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा।सो प्रसादु जन पावै देवा।

अर्थ: छल कपट स्वार्थ अर्थ धर्म काम मोक्ष सबों को त्याग स्वाभावतःस्वामी की सेवा और आज्ञा पालन के बराबर स्वामी की और कोई सेवा नहीं है।

गुर पितु मात स्वामि सिख पालें।चलेहुॅ कुमग पग परहिं न खाले।

अर्थ: गुरू पिता माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने से पैर गडटे़ में नहीं पड़ता है।

मुखिआ मुख सो चाहिऐ खान पान कहुॅ एक
पालइ पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक।

अर्थ: मुखिया मुॅह के समान होना चाहिये जो खाने पीने में अकेला है पर विवेक पूर्वक शरीर के सभी अंगों का पालन पोशन करता है।

ऐसेहु पति कर किएॅ अपमाना।नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।काएॅ वचन मन पति पद प्रेमा।

अर्थ: पति का अपमान करने पर स्त्री नरक में अनेक प्रकार का दुख पाती है। शरीर वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिये एकमात्र धर्म ब्रत और नियम है।

एक दुश्ट अतिसय दुखरूपा।जा बस जीव परा भवकूपा।
एक रचइ जग गुन बस जाके।प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।

अर्थ: अविद्या दोशपूर्ण है और अति दुखपूर्ण है।इसी के अधीन लोग संसार रूपी कुआॅ में पड़े हुये हैं। विद्या के वश में गुण है जो इस संसार की रचना करती है और वह ईश्वर से प्रेरित होती है।उसकी अपनी कोई शक्ति नही है।

ग्यान मान जहॅ एकउ नाहीं।देख ब्रह्म समान सब माॅही।
कहिअ तात सो परम विरागी।तन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।

अर्थ: ज्ञान वहाॅ है जहाम् एक भी दोश नहीं है।वह सब में एक हीं ब्रह्म को देखता है। उसी को वैरागी कहना चाहिये जो समस्त सिद्धियों और सभी गुणों को तिनका के जैसा त्याग दिया हो।

माया ईसु न आपु कहुॅ जान कहिअ सो जीव
बंध मोच्छ वद सर्वपर माया प्रेरक सीव।

अर्थ: जो माया ईश्वर और अपने आप को नहीं जानता-वही जीव है। जो कर्मों के मुताविक बंधन एवं मोक्ष देने बाला सबसे अलग माया का प्रेरक है-वही ईश्वर है।

धर्म तें विरति जोग तें ग्याना।ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।

अर्थ: धर्म के आचरण से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है और ज्ञान हीं मोक्ष देने बाला है।

राज नीति बिनु धन बिनुधर्मा।हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा।
विद्या बिनु विवेक उपजाएॅ।श्रमफल पढें किएॅ अरू पाएॅ।
संग मे जती कुमंत्र ते राजा।मान तें ग्यान पान तें लाजा।

अर्थ: नीति सिद्धान्त बिना राज्य धर्म बिना धन प्राप्त करना, भगवान को समर्पित किये बिना उत्तम कर्म करना और विवेक रखे बिना विद्या पढ़ने से, केवल मिहनत हीं हाथ लगता है। सांसारिक संगति से सन्यासी, बुरे सलाह से राजा, मान से ज्ञान और मदिरापान से लज्जा हाथ लगती है।

प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी।नासहिं वेगि नीति अस सुनी।

अर्थ: नम्रता बिना प्रेम और घमंड से गुणवान जल्द हीं नश्ट हो जाते हैं।

तब मारीच हृदयॅ अनुमान।नवहि विरोध नहि कल्याना।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।बैद बंदि कवि भानस गुनी।

अर्थ: शस्त्रधारी रहस्य जानने बाला शक्तिशाली स्वामी मूर्ख धनी बैद्य भाट कवि एवं रसोइया-इन नौ लोगों से शत्रुता विरोध करने में कल्याण कुशल नहीं होता है।

इमि कुपंथ पग देत खगेसा।रह न तेज तन बुधि बल लेसा।

अर्थ: कुमार्ग पर पैर देते हीं शरीर में बुद्धि ताकत तेज लेशमात्र भी नहीं रह जाता है।

परहित बस जिन्ह के मन माहीं।तिन्ह कहुॅ जग दुर्लभ कछु नाहीं।

अर्थ: जिनके हृदय मन में दूसरों का हित बसता है उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।

अर्थ: अच्छी तरह विचारित अैार चिन्तन किये हुये शास्त्र को भी अनेकों बार देखना चाहिये और अच्छी तरह सेवा किये हुये राजा को भी अपने वश में नहीं मानना चाहिये।

राखिअ नारि जदपि उर माहीॅ।जुबती सास्त्र नृपति बस नाहिं।

अर्थ: स्त्री को हृदय में रखने पर भी; युवती शास्त्र और राजा किसी के बश मेंनहीं रहते।

तात तीनि अति प्रवल खल काम क्रोध अरू लोभ
मुनि विग्यान धाम मन करहिं निमिस महुॅ छोभ।

अर्थ: काम क्रोध और लोभ-येतीनों अति बलवान शत्रु हैं। ये ज्ञानी मुनियों के मन को भी तुरंत दुखी कर देते हैं।

लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केबल नारि
क्रोध के पुरूश बचन बल मुनिवर कहहिं विचारि।

अर्थ: लोभ को इच्छा और घमंड का बल है।काम को केवल स्त्री का बल है। क्रोध को कठोर बचनों का बल है-ऐसा ज्ञानी मुनियों का विचार है।

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृश्टि बिलोकइ जोइ।ताहि बधें कछु पाप न होइ।

अर्थ: रे मूर्ख-सुन लो।छोटे भाई की स्त्री बहन पुत्र की स्त्री और बेटी-ये चारों एक हैं। इनकी ओर जो बुरी नजर से देखे-उसे मारने में तनिक भी पाप नहीं लगता है।

छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा।

अर्थ: पृथ्वी जल आग आकाश और हवा-इन्हीं पाॅच तत्वों से यह अधम शरीर बना है।

सचिव वैद गुर तीनी जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।

अर्थ: मंत्री वैद्य गुरू ये तीनों यदि डर या लोभ से हित की बात नहीं कह कर केवल प्रिय बोलते हैं तो राज्य धर्म और शरीर तीनो का जल्दी हीं विनाश हो जाता है।

जो आपन चाहै कल्याना।सुजस सुमति सुभ गति सुख नाना।
सो परनारि लिलार गोसांई।तजउ चउथि के चाॅद की नाई।

अर्थ: जो आदमी अपनी भलाई अच्छी प्रतिश्ठा अच्छी बुद्धि और विकाश तथा अनेक प्रकार के सुख चाहते हों वे दूसरों की स्त्री के मस्तक को चतुर्थी की चाॅद की तरह त्याग दें-पर स्त्री का मुॅह कभी न देखे।

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ
सब परिहरि रघुवीरहि भजहुॅ भजहि जेहि संत।

काम क्रोध घमंड लोभ सब नरक के रास्ते हैं। इन्हें छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करें जैसा संत लोग सर्वदा करते हैं।

सुमति कुमति सब के उर रहहिं।नाथ पुरान निगम अस कहहिं।
जहाॅ सुमति तहॅ सम्पति नाना।जहाॅ कुमति तहॅ बिपति निदाना।

अर्थ: वेद पुराण का मत है कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके दिल में रहता है किंतु जहाॅ अच्छी बुद्धि है वहाॅ अनेको प्रकार की सुख सम्पत्ति रहती है एवं कुबुद्धि की जगह विपत्तियों का भंडार रहता है।

सरनागत कहुॅ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि
ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।

अर्थ: जो आदमी स्वयं का अहित समझकर शरण में आये ब्यक्ति का त्याग करते हैं वे नीच और पापी हैं तथा उन्हें देखने में भी नुकसान है।

बरू भल बास नरक कर ताता।दुश्ट संग जनि देइ विधाता।

अर्थ: नरक में रहना अच्छा है किंतु ईश्वर दुश्ट दुर्जन की संगति कभी न दे।

नाथ बयरू कीजे ताही सों।बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।

अर्थ: दुशमनी उसी से करनी चाहिये जिसे बुद्धि और बल के द्वारा जीता जा सके।

प्रिय बानी जे सुनहि जे कहहिं।ऐसे नर निकाय जग अहहिं।

अर्थ: संसार में ऐसे लोग बहुत ज्यादा हैं जो मुॅह पर सामने प्यारी मीठी बात हीं कहते और सुनते हैं।

बचन परम हित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।

अर्थ: ऐसे लोग बहुत कम हीं होते हैं जो सुनने में कठोर किंतु प्रभाव में कल्याणकारी बातें कहते और सुनते हैं।

साहस अनृत चपलता माया।भय अविवेक असौच अदाया।
रिपु कर रूप सकल तैं गावा।अति विसाल भय मेाहि सुनाबा।

अर्थ: साहस असत्य वचन चंचलता छल कपट डर मूर्खता अपवित्रता और निर्दयता ये सब आठ शत्रु के समग्र गुण होते हैं।

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद
मूरूख हृदय न चेत जौं गुरू मिलहिं विरंचि सम।

अर्थ: ब्रहमा जैसा गुरू मिल जाने पर भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान उत्पन्न नहीं होता जैसे कि बादल द्वारा अमृत रूपी बर्शा होने के बाबजूद बेंत फलता फूलता नहीं है।

प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति अस आहि
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।

अर्थ: प्रेम और शत्रुता बराबरी बाले से हीं करना चाहिये।नीति ऐसा हीं कहता है। यदि शेर मेढक को मार दे तो क्या कोई भी उसे अच्छा कहेगा।

जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।मुएहि बधें नहि कछु मनुसाई।
कौल कामबस कृपिन बिमूढा।अति दरिद्र अजसी अति बूढा।

अर्थ: वाममार्गी, कामी, कंजूस,अति मूर्ख, अत्यंत गरीब, बदनाम और अतिशय बूढा मारने में कुछ भी मनुश्यता बहादुरी नहीं है।

सदा रोगबस संतत क्रोधी।विश्नु विमुख श्रुति संत विरोधी।
तनु पोशक निंदक अघ खानी।जीवत सब सम चैदह प्रानी।

अर्थ: सर्वदा रोगी रहने वाला, लगातार क्रोध करने वाला, भगवान विश्नु से प्रेम नहीं रखने वाला, बेद पुराण तथा संत महात्माअेंा का बिरोधी, केवल अपने शरीर का भरण पोशन करने वाला, सदा दूसरों की निंदा करने वाला और महान पापी-ये सब चैदह तरह के लोग जिन्दा हीं मृतक समान हैं।

काल दंड गहि काहु न मारा।हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।
निकट काल जेहिं आबत सांई।तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहिं नाई।

अर्थ: काल मृत्यु लाठी लेकर किसी को नहीं मारता।वह धर्म शक्ति बुद्धि और विचार छीन लेता है। जिसका काल निकट आ गया हो उसे रावण की तरह हीं भ्रम हो जाता है।

साम दाम अरू दंड विभेदा।नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।

अर्थ : बेद का कथन है कि साम दाम दण्ड और विभेद का गुण राजा के हृदय में बसते हैं।

सुत बित नारि भवन परिवारा।होहिं जाहि जग बारहिं बारा।

अर्थ: पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार इस संसार में बार बार होते हैं।

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुॅ मन विश्राम
भूत द्रोह रत मोह बस राम विमुख रति काम।

अर्थ: जो जीवों का द्रोही मोह माया के अधीन ईश्वर भक्ति से विमुख और काम वासना में लिप्त है उसे सपना में भी धन संपत्ति शुभ शकुण और हृदय मन की शान्ति नहीं हो सकती है।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहुॅ सखा मति धीर।

अर्थ: इस जन्म मृत्यु रूपी महान दुर्जन संसार को जो जीत सकता है-वही महान वीर है और जो स्थिर बुद्धि रूपी रथ पर सवार है-वही ब्यक्ति इसे जीत सकता है।

सेवत विशय विवर्ध जिमि नित नित नूतन मार।

अर्थ: काम वासना का सेवन करने से उन्हें अधिक भोगने की इच्छा दिनानुदिन बढ़ती हीं जाती है।

पर हित सरिस धर्म नहि भाई।पर पीड़ा सम नहि अधमाई
निर्नय सकल पुरान बेद कर।कहेउॅ तात जानहिं कोविद नर।

अर्थ: दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नही है और दूसरों को दुख देने के समान कोई पाप नही है।यही सभी बेदों एवं पुराणों का विचार है।

नर सरीर धरि जे पर पीरा।करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।
करहिं मोहवस नर अघ नाना।स्वारथ रत परलोक नसाना।

अर्थ: मनुश्य रूप में जन्म लेकर जो अन्य लोगों को दुख देते हैं उन्हें जन्म मरण का महान तकलीफ सहना पड़ता है। लोग स्वार्थ के कारण अनेकों पाप करते हैं।इसीसे उनका परलोक भी नाश हो जाता है।

सुनहु तात माया कृत गुन अरू दोस अनेक
गुन यह उभय न देखि अहि देखिअ सो अविवेक।

अर्थ: हे भाई -माया के कारण हीं इस लोक में सब गुण अवगुण के दोस हैं।असल में ये कुछ भी नही होते हैं।इनको देखना हीं नहीं चाहिये।इन्हें समझना हीं अविवेक है।

एहि तन कर फल विसय न भाई।स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।
नर तन पाई विशयॅ मन देही।पलटि सुधा ते सठ विस लेहीं।

अर्थ: यह शरीर सांसारिक विसय भोगों के लिये नहीं मिला है। स्वर्ग का भोग भी कम है तथा अन्ततः दुख देने बाला है। जो आदमी सांसारिक भोग में मन लगाता है वे मूर्ख अमृत के बदले जहर ले रहे हैं।

जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।

अर्थ: जो आदमी प्रभु रूपी साधन पाकर भी इस संसार सागर से नहीं पार लगे वह मूर्ख मन्दबुद्धि कृतघ्न है जो आत्महत्या करने बाले का फल प्राप्त करता है।

नर सहस्त्र महॅ सुनहुॅ पुरारी।कोउ एक होइ धर्म ब्रत धारी।
धर्मशील कोटिक महॅ कोई।बिशय बिमुख बिराग रत होई।

अर्थ: हजारों लोगों में कोई एक धर्म पर रहने बाला और करोड़ों में कोई एक सांसारिक विशयों से विरक्त वैराग्य में रहने बाला मनुश्य होता है।कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।

ग्यानवंत कोटिक महॅ कोउ।जीवन मुक्त सकृत जग सोउ।

अर्थ: शास्त्र का कहना है कि करोड़ों विरक्तों मे कोई एक हीं वास्तविक ज्ञान प्राप्तकरता है और करोड़ों ज्ञानियों मे कोई एक ही जीवनमुक्त विरले हीं संसार में पाये जाते हैं।

तिन सहस्त्र महुॅ सब सुख खानी।दुर्लभ ब्रह्म लीन विग्यानी।
धर्मशील विरक्त अरू ग्यानी।जीवन मुक्त ब्रह्म पर ग्यानी।

अर्थ: हजारों जीवनमुक्त लोगों में भी सब सुखों की खान ब्रह्मलीन विज्ञानवान लोग और भी दुर्लभ हैं।धर्मात्मा वैरागी ज्ञानी जीवनमुक्त और ब्रह्मलीन प्राणी तो अत्यंत दुर्लभ होते हैं।

जो अति आतप ब्याकुल होईं।तरू छाया सुख जानई सोईं

अर्थ: धूप से ब्याकुल आदमी हीं बृक्ष की छाया का सुख जान सकता है।

मोह न अंध कीन्ह केहि केही।को जग काम नचाव न जेही।
तृश्ना केहि न कीन्ह बौराहा।केहि कर हृदय क्रोध नहि दाहा।

अर्थ: किस आदमी को मोह ने अंधा नहीं किया है।संसार में काम वासना ने किसे नहीं नचाया है। इच्छाओं ने किसे नहीं मतवाला बनाया है।क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जलाया है।

ग्यानी तापस सूर कवि कोविद गुन आगार
केहि के लोभ विडंवना कीन्हि न एहि संसार।

अर्थ: संसार में कौन ज्ञानी तपस्वी बीर कवि विद्वान और गुणों का भंडारी है जिसे लोभ ने बर्बाद न किया हो।

श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि
मृग लोचनि के नैन सर को अस लागि न जाहि।

अर्थ: लक्ष्मी के अहंकार ने किसे टेढ़ा और प्रभुता अधिकार ने किसे बहरा नही किया है। युवती स्त्री के नयन वाण से कौन पुरूश बच सका है।

गुन कृत सन्यपात नहि केही।कोउ न मान मद तजेउ निबेही।
जोबन ज्वर केहि नहि बलकाबा।ममता केहि कर जस न नसाबा।

अर्थ: अपने गुणों का बुखार किसे नही चढ़ता।किसी को मान और मद ने नही छोड़ा है। यौवन के बुखार से कौन अपना नियंत्रण नही खोया है। ममता ने किसकी प्रतिश्ठा का नाश नही किया है।

मच्छर कहि कलंक न लाबा।काहि न सोक समीर डोलाबा।
चिंता साॅपिनि को नहि खाया ।को जग जाहि न ब्यापी माया।

अर्थ: डाह इरशया ने किसे कलंकित नही किया है।शोक की लहर ने किसे नही हिलाया है। चिन्ता के साॅप ने किसे नही खाया है।संसार में ऐसा कोइ नही जिसे माया ने नही प्रभावित किया है।

कीट मनोरथ दारू सरीरा।जेहि न लाग घुन को अस धीरा।
सुत वित लोक ईसना तीनी।केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।

अर्थ: मन की इच्छायें शरीर रूपी लकड़ी के घुन का कीड़ा है।ऐसा कौन बीर है जिसे यह घुन न लगा हो। पुत्र, धन, इज्जत की तीन प्रबल इच्छायें किसकी बुद्धि को नही बिगाड़ा है।

ब्यापि रहेउ संसार महुॅ माया कटक प्रचंड
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड।

अर्थ: सम्पूर्ण जगत में माया छायी हुई है।काम क्रोध और लोभ माया रूपी सेना के सेनापति हैं और घमंड छल और पाखंड उसके सैनिक हैं।

सुनहु राम कर सहज सुभाउ।जन अभिमान न राखहिं काउ।
संसृत मूल सूलप्रद नाना।सकल सोक दायक अभिमाना।

अर्थ: यह प्रभु का स्वभाव है कि वे किसी भक्त में अभिमान नही रहने देते हैं। यह घमंड जन्म मृत्यु रूपी संसार की जड़ है।यह अनेकों तकलीफों और सभी दुखों का दाता है।

जौं सब कें रह ग्यान एकरस।ईश्वर जीवहिं भेद कहहु कस।
मायाबस्य जीव अभिमानी।ईस बस्य माया गुन खानी।

अर्थ: यदि जीवों में पूर्ण ज्ञान हो जाये तो फिर जीव और ईश्वर में भेद क्या रहेगा। घमंडी जीव माया के अधीन सत्व रज तम तीनों गुणों के खान के कारण ईश्वर के नियंत्रण मे है।

अखिल बिस्व यह मोर उपाया।सब पर मोहि बराबरि दाया।
तिन्ह महॅ जो परिहरि मद माया।भजै मोहि मन बच अरू काया।

अर्थ: यह अखिल संसार प्रभु का पैदा किया हुआ है।अतः सब उनकी समान दया है। लेकिन इनमें भी जो सब अहंकार और माया छोड़कर मन वचन और शरीर से मुझे भजता है|

पुरूस नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।

अर्थ: वह पुरूस नपुंसक स्त्री या चर अचर कोई जीव हो छल कपट छोड़कर जो पूरे भाव से मुझे भजता है-वह परमात्मा को बहुत प्रिय है।

बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ विराग बिनु
गावहिं बेद पुरान सुखकि लहिअ हरि भगति बिनु।

अर्थ: गुरू के बिना ज्ञान और वैराग्य के बिना ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। वेद और पुराण कहते हैं कि प्रभु की भक्ति के बिना सुख कदापि नही हो सकती।

कोउ विश्राम कि पाव तात सहज संतोश बिनु
चलैकि जल बिनु नाव केाटि जतन पचि पचि मरिअ।

अर्थ: स्वभावतः संतोश के बिना शान्ति नही मिल सकती। करोड़ों उपाय करके मरते रहने पर भी क्या जल के बिना नाव चल सकती है।

बिनु संतोश न काम नसाहीं।काम अछत सुख सपनेहुॅ नाहीं।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।थल बिहीन तरू कबहुॅ कि जामा।

अर्थ: संतोश बिना इच्छाओं का नाश और इच्छाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता है। बिना ईश्वर भक्ति के कामनाओं का विनाश नहीं हो सकता जैसे कि बिना धरती क्या पेड़ उग सकता है।

बिनु विज्ञान कि समता आबइ।कोउ अवकास कि नभ बिनु पाबइ।
श्रद्धा बिना धर्म नहि होई।बिनु महि गंध कि पाबइ कोई।

अर्थ: मूल तात्विक ज्ञान बिना समता की भावना नहीं हो सकती। आकाश के बिना क्या कोई अंत जान सकता है। श्रद्धा के बिना धर्म नही जैसे कि पृथ्वी के बिना कोई गंध नही मालूम कर सकता है।

बिनु तप तेज कि कर विस्तारा।जल बिनु रस कि होइ संसारा।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई।जिमि बिनु तेज न रूप गोसांई।

अर्थ: तपस्या के बिना तेज नही फैल सकता।जल बिना संसार में रस नही हो सकता है। विना ज्ञानियों की सेवा के सदाचार नहीं प्राप्त होता है। बिना तेज के रूप की प्राप्ति नही हो सकती है।

निज सुख बिनु मन होइ कि धीरा।परस कि होइ विहीन समीरा।
कब निउ सिद्धि कि बिनु विस्वासा।बिनु हरि भजन न भव भय नासा।

अर्थ: निजी सुख बिना मन स्थिर नही हो सकता।वायु तत्व के बिना स्पर्श नही हो सकता। विश्वास के बिना कोई सिद्धि नही प्राप्त हो सकती है। बिना ईश्वर की भक्ति के संसार रूपी जन्म मृत्यु का डर नाश नही हो सकता है।

बिनु विस्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रवहि न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुॅ जीव न लह विश्राम।

अर्थ: विश्वास किये बिना भक्ति नही और प्रभु द्रवित होकर कृपा नही करते।ईश्वर की कृपा बिना हम सपने में भी शान्ति नहीं पा सकते हैं।

अग जग जीव नाग नर देवा।नाथ सकल जगु काल कलेवा।
अंड कटाह अमित लय काटी।कालु सदा दुरति क्रम भारी।

अर्थ: नाग आदमी देवता सभी चर अचर जीव एवं यह सम्पूर्ण संसार काल का भोजन है। समस्त ब्रम्हान्डों का विनाश करने बाला काल बड़ा आवश्यक तत्व है।

जेहि ते कछु निज स्वारथ होई।तेहि पर ममता करसब कोई।

अर्थ: जिसका जिसपर कुछ निजी स्वार्थ होता है उस पर सब कोई प्रेम करते हैं।

पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं
अति नीचहुॅसन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।

अर्थ: वेदों की नीति और सज्जनों का कथन है कि आपको अपना अच्छा हितैषी जानकर अति नीच ब्यक्ति से भी प्रेम करना चाहिये।

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रूचिर
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।

अर्थ: रेशम कीड़े से सुन्दर रेशमी वस्त्र बनता है। इसलिये अत्यधिक अपवित्र कीड़े को भी लोग प्राणों के समान पालते हैं।

भव कि परहिं परमात्मा बिंदक।सुखी कि होहिं कबहुॅ हरि निंदक।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें।अघ कि रहहिं हरि चरित बखाने।

अर्थ: ईश्वर को जानने बाले जन्म मृत्यु के चक्र में नही पड़ते।प्रभु की निंदा करने बाले कभी सुखी नही रह सकते। राज्य बिना नियम नीति के आधार नही रह सकता। ईश्वर के चरित्र का वर्णन कहने सुनने से पाप का नाश हो जाता है।

पावन जस कि पुन्य बिनु होई।बिनु अघ अजस कि पावई कोई।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना।जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।

अर्थ: विना पुण्य के पवित्र यश प्रतिश्ठा नही मिल सकती। बिना पाप के अपयश नहीं मिल सकता है।ई्रश्वर भक्ति के समान दूसरा लाभ नही है। ऐसा बेद पुराण सभी धर्मग्रंथ कहते हैं।

अघ कि पिसुनता सम कछु आना।धर्म कि दया सरिस हरि जाना।

अर्थ: चुगलखोरी के समान अन्य कोई पाप नही है।दया के समान दूसरा कोई धर्म नही है।

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।

अर्थ: बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती। माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है।

कबहुॅ कि दुख सब कर हित ताकें।तेहि कि दरिद्र परसमनि जाकें।
परद्रोही की होहिं निसंका।कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।

अर्थ: सबकी भलाई चाहने से कभी दुख नही हो सकता। पारसमणि के स्वामी के पास गरीबी नही रह सकती। दूसरों से बिरोध करने बाले कभी भयमुक्त नही रह सकते। कामी पुरूश कभी कलंक रहित नही रह सकता है।

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें।कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हें।
काहू सुमति कि खल संग जामी।सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।

अर्थ: ब्राम्हण का अहित करने पर बंश का नाश होता है। बिना आत्मज्ञान के अनासक्ति पूर्वक कर्म नही हो सकता। दुश्ट की संगति से सुबुद्धि नही उत्पन्न हो सकती है। परस्त्री गमन करने बालों को उत्तम गति नही मिल सकती है।

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