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दो बार वीरगति प्राप्त करने वाले सूरमा बल्लूजी चम्पावत

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वीर बल्लूजी चम्पावत जिन्होंने दो बार वीरगति प्राप्त की और ३ बार उनकी अंत्येष्टि हुई

शूरवीर श्री बल्लू सिंह जी राठौड़ चम्पावत हरसोलाव

जलम्यो केवल एक बर, परणी एकज नार ।
लडियो, मरियो कौल पर, इक भड दो दो बार ।।

उस वीर ने केवल एक ही बार जन्म लिया तथा एक ही भार्या से विवाह किया ,परन्तु अपने वचन का निर्वाह करते हुए वह वीर दो-दो बार लड़ता हुआ वीर-गति को प्राप्त हुआ।

आईये आज परिचित होते है उस बांके वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) से जिसने एक बार वीर गति प्राप्त करने के बावजूद भी अपने दिए वचन को निभाने के लिए युद्ध क्षेत्र में लौट आया और दुबारा लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की …

यह वीर गाथा प्रारम्भ होती है मारवाड़ महाराज श्री गज सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र सूरमा अमर सिंह जी से, जिनके बल्लू जी चम्पावत बड़े विश्वस्त सहयोगी थे ।


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वीर अमर सिंह जी (११ दिसंबर १६१३ -२५ जुलाई १६४४) मारवाड़ जोधपुर महाराजा गज सिंह की रानी मनसुखदे सोनगरा के पुत्र थे। वो बचपन से ही बड़ी वीर,निर्भीक और स्वतंत्र प्रकृति के थे। इनकी स्वछन्द प्रकृति से महाराज गज सिंह जी भी बड़े सशंकित हो गए तथा उन्होंने अपने छोटे पुत्र जसवंत सिंह को युवराज घोषित कर दिया। इससे अमरसिंह जी एवं महाराज के बीच मतभेद उत्पन्न हो गया और अंततः उन्हें देश से निर्वासित होना पड़ा।

मारवाड़ जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने अपने जयेष्ट पुत्र अमरसिंह(११ दिसंबर १६१३ -२५ जुलाई १६४४)को जब राज्याधिकार से वंचित कर देश निकला दे दिया तो वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) व वीर भावसिंह जी कुंपावत दोनों सरदार अमरसिंह के साथ यह कहते हुए चल दिए कि यह आपका विपत्ति काल हैं व आपत्ति काल में हम सदैव आपकी सहायता करेंगे ,यह हमारा वचन हैं।

राजपरिवार में मतभेद को देखते हुए अवसरवादी शाहजहां ने अमर सिंह की वीरता व रण कौशल को अपने लाभ के लिए भुनाने का अच्छा अवसर समझा। संपर्क स्थापित होने पर अमरसिंह अपने दोनों सहयोगी वीरों के साथ शाहजहां के पास आगरा आ गए।

यहाँ आने पर शाहजहां ने अमरसिंह को नागौर परगने का राज्य सौंप दिया। अमरसिंह को नागौर का राव बनाकर पृथक राज्य की मान्यता दे दी गयी और उन्हें बड़ौद, झालान, सांगन आदि परगनो की जागीरे भी दी गयीं। अमर सिंह जी की कीर्ति और रुतबा दरबार में बढ़ता देख दरबार में उनके शत्रुओं की संख्या भी बढ़ने लगी।.मुस्लिम सामंतो को एक हिन्दू राजपूत का दबदबा बढ़ना रास न आया।

शाहजहां के साले सलावत खान बक्शी का एक लड़का एक विवाद में अमर सिंह के हाथों मारा गया था। इसलिए वह उनसे बदला लेने के फ़िराक में था। जोधा केसरी सिंह जो कल्ला रायमल के पोते थे शाही सेवा छोड़कर अमर सिंह जी की सेवा में चले गए और अमर सिंह ने उन्हें नागौर की जिम्मेदारी और जागीर दे दी जिससे शाहजहां भी अमर सिंह से रुष्ट हो गया था।

अमरसिंह जी को मेंढे लड़ाने का बहुत शौक था। अमरसिंह ने (नागौर) आते ही अपनी नई जागीर में मीढ़ों को एकत्र करना आरंभ कर दिया, इसलिए नागौर में अच्छी किस्म के मेंढे पाले गए और उन मेंढों की भेड़ियों से रक्षा हेतु सरदारों की नियुक्ति की जाने लगी। इन मीढ़ों की देख रेख उसके सामंत बारी-बारी से किया करते थे।

 एक दिन इसी कार्य हेतु बल्लू चांपावत की भी नियुक्ति की गयी इस पर बल्लूजी यह कहते हुए नागौर छोड़कर चल दिए कि ” मैं विपत्ति में अमरसिंह के लिए प्राण देने आया था, मेंढे चराने नहीं। अब अमरसिंह के पास राज्य भी हैं ,आपत्ति काल भी नहीं, अत: अब मेरी यहाँ जरुरत नहीं है।”

बल्लूसिंह चाम्पावत ने उक्त घटना के पश्चात से नागौर को भी त्याग दिया।

उसने नागौर से चलकर बीकानेर की ओर कूच किया। जब वह बीकानेर पहुंचा तो वहां के शासक ने उसका भव्य स्वागत सत्कार किया। जिससे वह बड़ा प्रसन्न हुआ। ठाकुर जसवंत सिंह शेखावत का कहना है-”बल्लू बीकानेर में आराम से दिन काट रहा था। बरसात के दिन बीत गये थे खेतों में कामड़ी-मतीरे खूब पके थे, बीकानेर महाराजा के टीकामत एक गोदारा परिवार के खेत से एक बड़ा मतीरा भेंट स्वरूप लाया। महाराजा ने सोचा मारवाड़ से आये सरदार बल्लू को यह मीठा मतीरा क्यों न भेजा जाए। अत: खास व्यक्ति के साथ मतीरा बल्लू के घर भेजा गया।”

बल्लू ने पूछा-‘क्या लाये हो?’

‘महाराज साहब ने आपके लिए मतीरा भेजा है।’

‘हूं-मतीरो, राजाजी मने अठै रेण नही देणो, इण वास्ते यो फलभेज नेकेवायो के मतीरो (अर्थात मत रहो) महारे तो पागड़े पग लिख्योड़ा है ऐ चाल्या।’यूं कहकर बल्लू वहां से चल पड़ा।

उसे खूब समझाया कि महाराज का यह आशय कतई नही था। उन्होंने तो प्रेम से भेंट स्वरूप भेजा है। पर अंटीला राजपूत चल पड़ा, सो चल पड़ा। पीछे मुडक़र नही देखा, स्वाभिमानी जो था। वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) ने राजा द्वारा अपने लिए मतीरा भेजा जाना अपमानजनक समझा। उसे राजा का यह कृत्य उचित नही लगा। इसलिए उसने कह दिया कि राजा संभवत: मुझे यहां रहने देना नही चाहता, इसलिए मैं अब यहां से चल देता हूं। हो सकता है कि बल्लूसिंह ने राजा का अपने प्रति कोई अन्य कृत्य पूर्व में ही ऐसा देख लिया हो जो उसकी गरिमा के अनुकूल ना हो। इसलिए मतीरा को उसने अपने सम्मान के साथ जोड़ लिया। परिणामस्वरूप वहां से भी वह चल पड़ा।

कष्ट उठाते-उठाते चम्पावत पहुंचा अपने गांव देशधर्म के दीवाने और राष्ट्रभक्ति की उदात्त भावनाओं के जीते जगाते प्रमाण बल्लूसिंह ने नागौर से बीकानेर आकर शरण ली थी। पर अब उसे बीकानेर में भी नही रूकना था।

बल्लूजी बीकानेर छोड़ के मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी सिसोदिया के पास शरण लेने गए। बल्लूजी की वीरता और वचनबद्धता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी इसलिए मेवाड़ पहुंचते ही महाराणा राजसिंह जी ने उनको जागीर बख्शते हुए अपने दरबार मे ऊंचा ओहदा प्रदान किया। बल्लूजी की दिन-प्रतिदिन बढ़ती ख्याति से मेवाड़ के सरदारों के माथे पे चिंता की सलवटें उभरने लगी और वो बल्लूजी को दरबार से हटाने की योजना बनाने लगे।

अपने सरदारों द्वारा बल्लूजी के विरुद्ध रोज़-रोज़ कान भरे जाने के बाद एक दिन महाराणा राजसिंह जी ने अपने दरबार में पिंजरे में कैद एक भूखे खूंखार शेर को बुलाया और बल्लूजी से कहा आज मैं आपकी वीरता देखना चाहता हूं।

बल्लूजी ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल के अपने आसन पे रखी और बिना देर किए भूखे खूंखार शेर के पिंजरे में दाखिल हो गए।

बल्लूजी को क्षण भर भी नहीं लगा और उन्होंने उस जंगली खतरनाक शेर को जबड़ों से पकड़ के चीर दिया।

महाराणा राजसिंह जी सहित समूचा मेवाड़ दरबार बल्लूजी की वीरता देख के स्तब्ध रह गया।

बल्लूजी ने पिंजरे से बाहर निकल के अपनी तलवार उठाई और हाथ जोड़ के विनम्रतापूर्वक मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी से कहा ,”हुकुम योद्धा की वीरता की परीक्षा रणभूमि में शत्रु से लड़वाकर ली जाती है निहत्थे जानवर से लड़वाकर नहीं।”

इतना कह कर बल्लूजी मेवाड़ छोड़कर वहां से प्रस्थान कर गए।

महाराणा राजसिंह जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बल्लूजी को वापस मनाने के लिए अपने प्रमुख सिसोदिया सरदारों को भेजा। महाराणा बल्लु जी की वीरता से अति प्रसन्न थे और उन्होंने मित्रता की सौगंध देकर मित्रता पक्की कर ली।

(ये महाराणा राजसिंह जी वही थे जिन्होंने बाद में १६७९ -८० ईस्वी में श्रीनाथजी के विग्रह रक्षा के लिए औरंगज़ेब से न केवल बैर लिया वरन उसे २ बार बुरी तरीके से हराकर भगा दिया था। इनसे सम्बंधित लेख यहाँ पढ़ें।)

वहां से चलकर बल्लू चंपावत (Ballu Champawat) अपने गांव हरसोलाव में आकर रूका। उसकी देशभक्ति की कहानियों को अब तक उसके पैत्रक गांव के लोगों ने सुना ही था, पर अब तो वह स्वयं ही लोगों के मध्य आ खड़ा हुआ था। लोगों को अपने गांव की मिट्टी के रजकणों में खेले गये बच्चे को जब एक शूरवीर से नायक के रूप में अपने मध्य खड़ा पाया था तो उन्हें भी असीम प्रसन्नता हुई। लोगों में कौतूहल था, जिज्ञासा थी, प्रसन्नता थी अपने नायक से प्रेरणा पाकर वैसा ही बनने और वैसा ही करने की एक लगन थी।

जब बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव में आया तो उसे यहां भी एक चिंता ने घेर लिया। अपने गांव हरसोलाव आकर इस शूरवीर ने देखा कि उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है। इसलिए उसने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर देने का मन बनाया। परंतु उसके पास विवाह के लिए आवश्यक और अपेक्षित धन की कमी थी। तब उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह ने एक सेठ के यहां अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर उससे अपनी पुत्री के विवाह के लिए अपेक्षित धन प्राप्त किया और पुत्री के विवाह के दायित्व से वह मुक्त हो गया।पुत्री के विवाह के दायित्व से मुक्त होकर बल्लूसिंह सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा।

उधर नगर में अमर सिंह के परगने में शाही दरबारियों की कूटनीति सलावत खान के इशारे पर बदस्तूर जारी थी। उसी समय तरबूज की बेल के एक छोटे से मामले में बीकानेर और नागौर राज्यों के बीच संघर्ष हो गया जिसमें शाहजहां ने बीकानेर का पक्ष लिया और अमर सिंह से यमुना तट पर हाथियों की चराई का कर भी मांग लिया जिससे तनाव बढ़ गया। इन सब घटनाओं के पीछे सलावत खान बक्शी था जो लगातार शाहजहां के कान भर रहा था।

सलावत खान को अमर सिंह की अनधिकृत अनुपस्थिति के बारे में कुछ छोटी-छोटी बातों के बारे में पता चला। यह विषय और हाथी के चरवाई के कर को लेकर सलावत खान ने एक मुद्दे के रूप में इसे इतना बढ़ा दिया कि शाहजहां ने सलावत को अमर सिंह को दंड देने का आदेश दिया ।

२५ जुलाई १६४४

अमर सिंह जी राठौड़ दरबार पहुंचे और सलवात खान ने उनकी लम्बी अनुपस्थिति और हाथी की चरवाई के कर को लेकर तुरंत कर दंड भुगतान की मांग की। सलाबत ने अमर सिंह को धमकी देते हुए उसी वक्त दंड का भुगतान करने को कहा। सलाबत ने यह भी चेतावनी दी कि वह अमर सिंह को बिना दंड का भुगतान किये उन्हें जाने नहीं देगा। सलावत ने उनसे अनुचित धर्म सूचक शब्दों करते हुए काफिर कह कर उन्हें सम्बोधित किया।

इतना सुनना था की अमरसिंह जी का राजपूती खून खौल उठा। उन्होंने भरे दरबार में ही अपनी तलवार के एक भरपूर वार से भरे दरबार में शलावत-खां की गर्दन को उसकी धड़ से जुदा कर दिय।

आगरा दरबार में एकदम सन्नाटा पसर गया।

बादशाह के दरबार में मौजूद मुगल और राजपूत शासक सकते में आ गए। दरबार मे मौजूद बादशाह शाहजहां का पुत्र शहजादा औरंगजेब खौफ से अपने आसन में दुबक गया।

शाहजहां भी इस घटना से अचंभित हो गया और अमर सिंह को मारने के लिए अपने सैनिकों को आदेश दिया। इतना सुनते ही अमरसिंह जी तलवार ले के अब मुगल तख्त पे विराजमान शाहजहां की छाती पे चढ़ने को आगे बढ़ने लगे। बादशाह और अमरसिंह के बीच चंद कदमों का फासला रह गया था कि मुगल सैनिको ने अमरसिंह को घेर लिया। शाहजहां और उसके पुत्र ने भाग-छिप कर अपनी जान बचाई ।

.अमर सिंह ने वहां मौजूद सभी ३० -४० दरबारी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जब तक कोई कुछ समझ पाता , तब तक अमर सिंह वहां से तेजी से निकल चले और आगरा के किले में मौजूद मुगल सैनिकों को चीरते हुए अपने घोड़े बहादुर पे सवार हुए और बहादुर को ऐसी एड़ लगाई कि घोड़ा बहादुर आगरा से नागौर आ के ही रुका।

महावीर श्री अमर सिंह जी राठौड़

(महाराणा प्रताप के स्वामिभक्त घोड़े चेतक की तरह राजस्थान में अमरसिंह राठौड़ के घोड़े बहादुर का नाम भी आदर और सत्कार के साथ लिया जाता है।)

अमरसिंह जी के सगे साले अर्जुनसिंह गौड़ ने शाहजहां के प्रलोभन में आ के अमरसिंह जी को दुबारा आगरा ले जा के आगरा दरबार मे धोखे से उनकी हत्या कर दी और शव को शाही पहरे में आगरे के किले में खुले में रखवा दिया।

अमरसिंह राठौड़ के शव को कौन शेर आगरा के किले से उठाकर लाये? यह प्रश्न उस समय हर देशभक्त के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन चुका था। पूरे हिंदू समाज की प्रतिष्ठा को मुगल बादशाह ने एक प्रकार से चुनौती दी थी कि जिसकी मां ने दूध पिलाया हो वह आये और अपने देश-धर्म के रक्षक अमरसिंह राठौड़ के शव को ले जाए। बादशाह की इस चुनौती में अहंकार भी था और हिंदू समाज के प्रति तिरस्कार का भाव भी था।

अमरसिंह जी की हत्या के समाचार नागौर पहुंचे तो उनकी एक रानी हाड़ी (बूंदी के हाड़ा शासकों की पुत्री) ने अमरसिंह जी की पार्थिव देह के साथ सती होने की इच्छा जताई।

किन्तु ….हाड़ी सती हो कैसे ?? …. अमरसिंह जी का शव तो आगरा किले में मुगलों की गिरफ्त में कैद पड़ा था।

हाड़ी को अपने विश्वासपात्र हरसोलाव (नागौर) के राठौड़ सरदार वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) की याद आयी। रानी हाड़ी ने सती होने के लिए अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत को बुलवा भेजा , क्योंकि विपत्ति में सहायता का वचन उन्ही दोनों वीरों ने दिया था।

बल्लूजी चाम्पावत ने जैसे ही यह दुखद समाचार सुना तो वह सन्न रह गया। अमरसिंह राठौड़ जैसे शूरवीर योद्घा के समय मुगल बादशाही का ऐसा क्रूरतापूर्ण कृत्य सुनकर चाम्पावत का चेहरा तमतमा गया। उसने आसन्न संकट का सामना करने और मां भारती की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का निश्चय किया। बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सुनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडकने लगीं, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसी घटना और वह भी अमरसिंह राठौड़ के साथ हो सकती है? उसने बिना समय खोये निर्णय लिया, तलवार उठायी और एक योद्घा की भांति मां भारती के ऋण से उऋण होने का संकल्प लेकर चल दिया।

अभी बल्लू सिंह ने एक पग ही रखा था कि बाहर से एक सेवक दौड़ा हुआ आया। उसने बल्लू चाम्पावत से कहा कि ”महोदय मेवाड़ के महाराणा ने आपको स्मरण करते हुए एक घोड़ा भेंट स्वरूप आपकी सेवा में भेजा है।”

बल्लू चंपावत (Ballu Champawat) की आर्थिक स्थिति उस समय अच्छी नहीं थी। उसने जब यह समाचार सुना कि मेवाड़ के महाराणा राज सिंह सिसोदिया जी ने एक घोड़ा उसके लिए भेजा है तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि जिस मनोरथ के लिए वह निकल रहा था-उसके लिए घोड़े की नितांत आवश्यकता थी।

इसलिए बल्लू चाम्पावत को लगा कि महाराणा के द्वारा भेजे गये घोड़े की शुभसूचना उसी समय मिलना जब इसकी आवश्यकता थी-निश्चय ही एक शुभ संयोग हैं। उसने अपने लक्ष्य की साधना के लिए मेवाड़ी घोड़े का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया।

उन्होंने मेवाड़ से आये व्यक्ति को ससम्मान अपने प्रयोजन की जानकारी देकर बताया कि , “महाराणा जी से हमारा प्रणाम बोलना और उन्हें हमारी विवशता की जानकारी देकर यह भी बता देना कि बल्लू चाम्पावत यदि अपनी लक्ष्य साधना में सफल होकर जीवित लौट आया तो आपके चरणों में उपस्थित होकर अवश्य ही भेंट करेगा और यदि नही लौट सका तो भी संकट के समय अवश्य ही उपस्थित होऊंगा।”

अब वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) की दृष्टि में केवल आगरा दुर्ग चढ़ चुका था, उन्हें एक पल भी कहीं व्यर्थ रूकना एक युग के समान लग रहा था। इसलिए बिना समय गंवाये अपने चुनिंदा ५०० राजपूत साथियों के साथ वह आगरा की ओर चल दिए। उनके रणबाकुरे वीर साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टाप से जंगल का एकांत गूंजता था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्ध होकर चढ़े चले जा रहे थे।

शत्रु निश्चिंत था। उसे नहीं लग रहा था कि कोई ‘माई का लाल’ अमरसिंह राठौड़ के शव को उठाकर ले जाने में सफल भी हो सकता है? यद्यपि बादशाह के सैनिक अमरसिंह राठौड़ के शव की पूरी सुरक्षा कर रहे थे और अपने दायित्व का निर्वाह पूर्णनिष्ठा के साथ कर रहे थे। फिर भी उनमें निश्चिंतता का भाव था, उनके भीतर यह भावना थी कि किले के भीतर आकर शव को उठाने का साहस किसी का नही हो सकता। बस, यह सोचना ही उनकी दुर्बलता थी और उनकी सुरक्षा व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष भी यही था।

अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। उधर बल्लूजी चाम्पावत तीव्र वेग के साथ किले की ओर बढ़े चले आ रहे थे । उनके दल के घोड़ों के वेग के सामने आज वायु का वेग भी लज्जित हो रहा था। हवा आज उसका साथ दे रही थी और बड़े सम्मान के साथ उन्हें मार्ग देती जा रही थी।

आगरा दुर्ग के पास पहुँचाने पर उन्हें पता लगा कि कोई नौजवान वीर अभी-अभी दुर्ग की सुरक्षा भेद कर घुसा है और अपने चंद साथियों के साथ मुग़ल मुसलमानो से घमासान युद्ध कर रहा है। बल्लु जी को समझतें देर न लगी वह नौजवान अमर सिंह जी की भतीजा राम सिंह ही हैं। इससे पहले कि दुर्ग के रक्षक कुछ संभल पाते वीर बल्लू सिंह जी दुर्ग में प्रवेश कर चुके थे। बल्लूसिंह चाम्पावत और राम सिंह जी घनघोर युद्ध करते हुए श्री अमर सिंह जी के शव के पास पहुंच चुके थे। इससे पहले कि मुग़ल सैनिक शव को सुरक्षित कर पाते माँ भारती के शेर वीर बल्लूमल जी ने एक झटके के साथ अपने स्वामी श्री अमर सिंह जी के शव को उठा कर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर लपके।

मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू सिंह जी दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़े और वहां से उन्होंने घोड़े सहित किले के बुर्ज से नीचे छलांग लगा दी।

बल्लूजी ने किले के बाहर मौजूद अपने नागौरी/मारवाड़ी राठोड़ों को राम सिंह की अगुआई में अमरसिंह जी का शव सौंप के नागौर रवाना किया और अपने चंद मुट्ठी भर साथियों के साथ मुगल सेना को रोकने के लिए खुद दुबारा आगरा किले में प्रवेश कर गए।

घोड़े की लगाम को मुंह मे दबाकर दोनों हाथों में तलवार ले के बल्लूजी मुगल सेना से भीड़ गए।

आगरा का किला नागौरी राठोड़ों के रक्त से लाल हो गया। मुगलों से लड़ते हुए बल्लूजी भी आगरा के किले में खेत हो गए।

लेकिन …. बल्लूजी ने मुगलों को अमरसिंह के शव के आसपास नहीं फटकने दिया। वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) स्वयं किले के भीतर ही युद्घ करते-करते बलिदान हो गए।

आगरा में यमुना नदी के तट पे सैन्य सम्मान के साथ बल्लूजी का दाह-संस्कार किया गया गया।

(ये बल्लूजी की प्रथम वीरगति व प्रथम दाह-संस्कार था)।

आगरा के किले के सामने यमुना नदी के तट पे बल्लूजी की छतरी व उनके घोड़े की समाधि आज भी अडिग खड़ी है/बनी हुई है।

आगरा के किले के मुख्य द्वार को अमरसिंह द्वार कहा जाता है।

समय एक बार फिर अपनी गति से आगे बढ़ने लगा ….

इस घटना के ३६ -३८ वर्ष बाद जब सन् १६८०-८२ के करीब देबारी (मेवाड़) के मैदान में आज मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी और मुगल बादशाह औरंगजेब की सेनाएं आमने-सामने डटी थी।

संख्याबल में ज्यादा मुगल आज मुट्ठी भर मेवाड़ी शूरमाओं पे अत्यधिक भारी पड़ रहे थे।

रणभूमि में विचलित महाराणा राजसिंह जी को आज बल्लूजी जी चम्पावत की याद आयी और विपत्तिकाल में साथ निभाने के बल्लूजी के वचन की याद आयी।

देबारी की घाटी में मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी आंखे बंद कर के और हाथ जोड़ के अरदास करते हैं …., काश आज बल्लूजी जैसे योद्धा मेवाड़ की और से लड़ रहे होते ।’

कुछ पलों बाद मेवाड़ी और मुगल सेना भौचक्की रह गयी।

मेवाड़ नरेश द्वारा दिये घोड़े पे सवार बल्लूजी चम्पावत दोनों हाथों में तलवार लिए मुगल सेना पे कहर ढा रहे हैं। बल्लूजी जबरदस्त वीरता से युद्ध लड़ते हुए देबारी घाटी में मुगल सेना को चीरते चले जा रहे थे।

देखते ही देखते मुगल सेना में हाहाकार मच गया।

इस युद्ध में मेवाड़ की विजयी हुई।देबारी घाटी की रणभूमि में वीर बल्लू चंपावत (Veer Ballu Champawat) एक वार फिर दुबारा वीरगति को प्राप्त हो गए।

प्रथम वीरगति की घटना १६४४ मे आगरे में तलवार बजाते वीर-गति को प्राप्त हुए बल्लू चांपावत को आज के ३६ -३८ वर्ष बाद दूसरी बार सन् १६८० -८२ में” देबारी ” की घाटी में तलवार बजाते हुए फिर वीर-गति को प्राप्त होते हुए लोगों ने देखा।

मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी ने सैन्य सम्मान के साथ एक वार पुनः बल्लूजी चम्पावत का दाह-संस्कार करवाया।

यह बल्लूजी का दूसरा दाह-संस्कार था। साथ ही मेवाड़ महाराणा राजसिंह जी ने मेवाड़ की देबारी घाटी में बल्लूजी जी की दूसरी छतरी का निर्माण करवाया।

आज के भौतिकवादी युग में दुनिया में किसी के लिए भी यहां तक कि आप पाठकों के लिए भी ये घटना अविश्वसनीय हो सकती है।

इतिहास की इस अदभुत घटना को भले ही आज के भौतिकवादी न माने पर मेवाड़ का इतिहास इस बात को भुला नहीं सकता कि वह क्षत्रिय मृत्यु के उपरांत भी अपना वचन निभाने के लिए देबारी की घाटी में युद्ध लड़ने आया था।

किन्तु ….यह घटना बिल्कुल सत्य है।

आगरा और देबारी में स्थित बल्लूजी की छतरी को कोई भी मित्र/पाठक पुष्टि के लिए जा के देख सकता है।

अपने संकटकाल में बल्लूजी ने लाडनूँ जिला नागौर मारवाड़ के एक ओसवाल बणिया के पास अपनी मुच्छ का एक बाल गिरवी रख के कुछ धन उधार लिया था।

अपने जीवनकाल में लाडनूँ के इस बणिया से बल्लूजी उधार लिया हुआ धन लौटा के अपनी मुच्छ का वो बाल बंधक से छुड़वा नहीं पाये थे।

बल्लूजी की छविं पीढ़ी के वंशज हरसोलाव (नागौर) के ठाकुर सूरतसिंह जी चम्पावत ने लाडनूँ के बणिया की छठवीं पीढ़ी को धन का भुगतान कर के बल्लूजी चम्पावत द्वारा गिरवी/बंधक रखे बाल को मुक्त करवाया/छुड़वाया।

ठाकुर सूरतसिंह जी चम्पावत ने लाडनूँ से अपने पूर्वज बल्लूजी का बाल बंधक से छुड़वाकर उस बाल का सम्पूर्ण विधि-विधान से अंतिम-संस्कार करवाया।

बल्लूजी के इस दाह-संस्कार में सारे बल्लुदासोत चम्पावत एकत्रित हुए तथा सम्पूर्ण विधि-विधान से बल्लूजी के तेरहवीं तक के सारे शोक के दस्तूर पूरे किए गए।

हरसोलाव/नागौर के महापराक्रमी शूरवीर योद्धा और वचन के पक्के ठाकुर बल्लूजी चम्पावत राठौड़ का ये तीसरा दाह-संस्कार था।

नागौर सहित सम्पूर्ण मेवाड़ और सम्पूर्ण मारवाड़ में बल्लूजी का नाम बड़े आदर व सत्कार से लिया जाता है।

बल्लूजी ने जन्म भी एक वार लिया और शादी भी एक ही क्षत्राणी से की किन्तु वीरगति दो वार प्राप्त की और उनका अंतिम-संस्कार तीन वार हुआ। इस तरह एक राजपूत वीर का तीन बार दाह संस्कार हुआ जो हिन्दुस्थान के ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में इसके अलावा कही नही मिलता। नागौर सहित समस्त राजपुताना के इतिहास में बल्लूजी की वीरता का अध्याय स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

राजस्थान के कण-कण में गोरा-बादल और बल्लूजी जैसे निष्ठावान योद्धा/सेनानायक/रणबांकुरे पैदा होते आये हैं ….

कमधज बल्लू युं कहे,सोहे सूणो सिरदार।
बैर अमररा बालस्या,मुगला हुनै मार ।।
कमधज्जा ईसड़ी करौ,रहै सुरज लग नाम।
मुगला मारज्यो चापड़े,होय स्याम रो काम।।
अमलज पोधा राठवड़,हुआ सकल असवार ।
सीस जका ब्रहमंड आडे,बल्लु दी हलकार।।
बल्लु कहै गोपालरौ,सतिया हाथ संदैश ।
पतशाही धड़ मोड़ कर,आंवा छां अमरेस।।

अमर सिंह राठौड़ जी की जयंती आज भी नागौर में हर साल समारोह पूर्वक मनाई जाती है और साथ में वीर बल्लू जी चम्पावत को भी श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।

जय हो वीर बल्लु जी चांपावत की
!!शत शत नमन करूँ मैं आपको !!

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महाराणा राजसिंह जी की वीरता

References:

बांके वीर बल्लू चंपावत

Thakur’s Era (Rajput’s Era)

Ballu Champawat Rathore of Harsolav(Nagaur)

वीरवर बल्लु जी चम्पावत जिनकी मुंछ के बाल की किमत RBI गर्वनर के वचन से ज्यादा थी

बल्लू जी चम्पावत हरसोलाव

बल्लू चांपावत : एक वीर जिसने दो बार वीर-गति प्राप्त की

अमरसिंह राठौड़ मारवाड़ राज्य के प्रसिद्ध राजपूत

बल्लूजी चम्पावत के तीन अनुठे दाह-संस्कार

भारत का गुप्त इतिहास- BHARAT KA RAHASYAMAY ITIHAAS

शूरवीर अमर सिंह जी राठौड़

आचर्य कि बात नहीं है, क्षत्रीयो में ऐसा होता है वो अपने वतन व वचन के खातीर भगवान के घर से भी वापस आ जाते हैं। अहमदाबाद की लड़ाई लड़ने पाबूजी महाराज भी आये थे जबकि उनको देवलोक हुए उस समय बर्षो बीत गए थे ।

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धर्मो रक्षति रक्षितः