वीर कुंवर सिंह का जीवन परिचय -Veer Kunwar Singh
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम महान योद्धा बाबू वीर कुंवर सिंह परमार
Babu Veer Kunwar Singh
सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम विद्रोह के सबसे सफल नायक कहे जाने वाले बाबू वीर कुंवर सिंह जी (Babu Veer Kunwar Singh) (13 नवंबर 1777 – 26 अप्रैल 1858) को 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है। अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह एक कुशल सेना नायक और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम विद्रोह के महानायक थे।
अस्सी की आयु थी जिसकी, पर लहू राजपूताना था। कुँवर सिंह जिनको सबने, फिर भीष्म पितामह माना था।।
जिस 80 वर्ष की वृद्धावस्था में लोग खाट पकड़ लेते हैं। लोगों के लिए चलना फिरना दूभर होता है उस अवस्था में बाबू वीर कुंवर सिंह जी (Babu Veer Kunwar Singh) साहब रणभूमि में थे और रणभूमि में सिर्फ थे नहीं बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस तत्कालीन दुनिया सबसे सशक्त ब्रिटिश सेना को कई कई बार हराकर बताया था कि भीष्म पितामह कोई कल्पना नहीं ।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी, आजादी का गाना था, भारत के कोने-कोने में, होगा यह बताया था, उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई, और पेशवा नाना था, इधर बिहारी वीर बाँकुरा, खड़ा हुआ मस्ताना था, अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था, सब कहते हैं कुंवर सिंह बड़ा वीर मर्दाना था। (कविता सौजन्य राघवेंद्र प्रताप सिंह)
बाबू कुंवर सिंह जी साहब 1857 के एकमात्र योद्धा थे जिनसे ब्रिटिश साम्राज्य को कई बार युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा ।उसे 80 वर्ष के जवान से लगातार सात युद्धों में मात खानी पड़ी। विद्रोह की शुरुवात से उनकी मृत्यु तक वो अंग्रेजों से लड़ते रहे और समर्पण नही किया। उनका अभियान सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं था बल्कि उनकी विद्रोही सेना बिहार ,उत्तर प्रदेश ,मध्य प्रदेश में अंग्रेजो से टकराती रही।
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भारतीय सेना के काफी सम्मानित अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल श्रीनिवास सिन्हा ने कुंवर सिंह पर एक पुस्तक लिखी हुई है और उन्हे सबसे सफल विद्रोही सेना नायक माना है।बाबू कुंवर सिंह अदम्य साहस के धनी थे। बिहार के ग्रामीण अंचलों में उन्हें गीत संगीत के माध्यम से आज भी बड़े सम्मान से याद किया जाता है।
आज ही के दिन 23 अप्रैल 1858 में कुंवर सिंह जी की सेना ने कप्तान ली ग्रैंड के नेतृव वाली फिरंगी पलटन को जगदीशपुर के पास हरा कर अपना ध्वज फहराया था ।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीर कुंवर सिंह के योगदान की पृष्ठभूमि
सन 1857 में पूरे भारतवर्ष में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश की भावना चरम सीमा पर थी।क्रूर ब्रिटिश वर्ग की सत्ता को समाप्त करने के लिए भारत के सभी वर्गों और धर्मों के लोगों ने मिलजुल कर अंग्रेजों को भारत से भगाने का फैसला कर लिया था।अंग्रेजों द्वारा भारतवासियों पर किए गए अत्याचारों से परेशान होकर भारतवासी 1857 की क्रांति में कूद गए थे।
सारे भारतवासी एक साथ अंग्रेजों का विद्रोह कर रहे थे और स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। उस समय स्वतंत्रता सेनानी नाना साहिब तथा झांसी की रानी झांसी से और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ क्रांति करने वाले वीर कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) एक प्रमुख नेता थे। तात्या टोपे, बेगम हजरत महल तथा अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने -अपने क्षेत्रों से युद्ध का एलान किया ब्रिटिश सरकार के सामने इन सबका नेतृत्व बहुत ही वीरता से वीर कुंवर सिंह ने किया। वीर कुंवर सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ एक अच्छे लीडर भी थे।
सन् 1857 का संग्राम स्वतंत्रता के लिए एकजुट होकर पूरे भारत में लड़ा गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है। ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि इससे पहले भारतवासियों ने इतनी बड़ी मात्रा में इकट्ठे होकर एक साथ अंग्रेजी सरकार का मुकाबला नहीं किया था।
बाबू वीर कुंवर सिंह का परिचय -Veer Kunwar Singh:Place of Birth
वीर कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) का जन्म 13 नवंबर 1777( एक अन्य मतानुसार 23 अप्रैल 1782) को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। पिता जी एक सुसम्पन्न जमींदार थे।बाबू कुंवर सिंह राजपूतों की उज्जैन शाखा के परमार वंश ठाकुर थे। उनके पूर्वज 14 वीं शताब्दी में उज्जैन से आकर बिहार में बस गए थे।
उनके माताजी का नाम महारानी पंचरत्न कुंवर था। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे।


बाबू कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) जिला शाहाबाद की कीमती और अतिविशाल जागीरों के मालिक थे। सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत चाहते थे। वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे ही साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी। कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के कारण वह अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने।बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी की गलत तथा धोखेबाज नीतियों चलाकर इनकी सारी जागीर जमीन कंपनी ने अपने नाम कर ली थी।
सन 1826 में कुंवर सिंह पर अपनी पैतृक जिम्मेदारी संभालने का दायित्व आ पड़ा था। कुंवर सिंह को जमींदारी से प्रतिवर्ष लगभग 600000 रुपये की नगद आमदनी हो जाए करती थी। वीर कुंवर सिंह जी एक सीधे-साधे व्यक्ति थे। वह अंग्रेजों की कूटनीति को नहीं समझ पाए। जब तक कुंवर सिंह अंग्रेजों की कूटनीति को समझ पाते – तब तक काफी समय बीत चुका था और उनकी सारी जमीन अंग्रेजो के पास जा चुकी थी।
इससे वीर कुंवर सिंह काफी क्रोधित हो चुके थे और इसका परिणाम सन 1857 की क्रांति में देखने को मिला।वीर कुंवर सिंह के मन में अंग्रेजों के प्रति इतना घृणा भाव पैदा हो चुका था कि वह अंग्रेजों को बुरी तरह से पराजित करते रहे तथा उन्होंने ठान लिया था कि अगर उनकी मृत्यु भी होगी तो वह भी अंग्रेजों के हाथों नहीं होगी और बाद में उन्होंने इस बात को सत्य करके भी दिखाया।
1857 के संग्राम में बाबू कुंवर सिंह का योगदान
1857 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए मंगल पांडे की बहादुरी भरे शुरुआत ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। मंगल पाण्डे की बहादुरी ने सारे देश को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया।
बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh) ने अपने सेनापति मैकु सिंह ने उन भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया। बाबू कुंवर सिंह की आयु लगभग 80 वर्ष थी उस समय। 25 अप्रैल 1857 के दिन दानापुर से आई विद्रोही सैनिकों का नेतृत्व कुंवर सिंह ने संभाला था ।
बाबू कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) ने 27 अप्रैल, 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर आरा नगर पर कब्जा कर लिया। इस तरह कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ।
26 जुलाई 1857 की घटना है जब कैप्टन सी. डनबर के नेतृत्व में सोन नदी के किनारे 400 से भी ज्यादा सैनिक रुके हुए थे। यहां पर कुंवर सिंह जी ने योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेज सैनिको पर आक्रमण किया और युद्ध को जीता।
कुंवर सिंह ने अगला मोर्चा बीबीगंज में खोला जहां 2 अगस्त, 1857 को अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए।
अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा।
जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए।
आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की। घायलों को भी फांसी पर लटका दिया। महल और दुर्ग खंडहर कर दिए।बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। कुंवर सिंह पराजित भले हुए हों लेकिन अंग्रेजों का खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों था।
सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए वहां उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आए।
अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे।
ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है,
‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह (Veer Kunwar Singh)की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।
कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) ने जगदीशपुर के गढ में हथियारों और गोला बारुद बनाने का एक कारखाना भी खोल रखा था। वीर कुंवर सिंह को एक युद्ध योजना परिवर्तन करने में निपुण तथा युद्ध योजना को अंजाम देने में कुशल नेता के रुप में जाना जाता था।
वीर कुंवर सिंह की जीत की मुख्य विशेषता यह थी कि वह जिस युद्ध योजना से पहली बार अंग्रेजी सरकार का सामना करते थे दूसरी बार युद्ध होने पर वह उसी योजना को बदल देते थे। इसे यह होता था कि अंग्रेजी सरकार उनकी कभी भी युद्ध करने की योजना को समझ नहीं पाती थी।
जैसे अंग्रेजी सरकार उनकी युद्ध करने की पहली नीति को समझती वह अपनी नीति को बदल चुके होते थे।जिससे की अंग्रेज काफी परेशान हो जाते और उनकी युद्ध की संरचना को नहीं समझ पाते और अंततः युद्ध हार जाते। युद्धनीति और कपट में तेज समझे वाले अंग्रेजों ने भी कुंवर सिंह के पराक्रम और चातुर्य के आगे स्वयं को कई बार असहाय पाया।
वीर कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) ने अंग्रेजो को पराजित करने के लिए छापामार योजना भी बनाई थी। इसी योजना के तहत वीर कुंवर सिंह अपनी सेना के साथ अंग्रेजो की छावनियों पर अटेक करते थे और अंग्रेजों के हथियारों को लूट लेते थे और फिर उन्हीं के हथियारों से दुबारा अंग्रेजों पर आक्रमण किया जाता था। इसी युद्ध योजना के कारण वीर कुंवर सिंह ने काफी विजयें प्राप्त की।
80 वर्ष के अदम्य साहस वाले वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजी सरकार को कई बार पराजित किया।
वीर कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) ने जगदीशपुर से आगे बढ़ कर गाजीपुर, बलिया आदि जनपदों में अपनी युद्ध योजना से अंग्रेजी सरकार को पराजित किया ।
इस बीच बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। लेकिन कुंवर सिंह की यह विजयी गाथा ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकी और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुन: कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया।


इस तरह से अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और इसके बाद कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे। इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी।
युद्ध के दौरान उनके दाहिने हाथ पर गोली लग चुकी थी।गोली की चोट से काफी मात्रा में खून बहा था और अब उनकी बांह से संक्रमण सारे शरीर में फ़ैल रहा था। ऐसी परिस्थिति में भी कुंवर सिंह(Veer Kunwar Singh) अपने साहस से डटे रहें और उन्होंने जो कसम खाई थी उसे नहीं भूले। जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे । उन्होंने अपनी तलवार निकाली और अपना हाथ काट कर गंगा को समर्पित कर दिया।
गंभीर चोटिल होने के बावजूद इन्होने ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से गोरे पिस्सुओं का “यूनियन जैक” नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। इस प्रकार 23 अप्रैल 1858 में कुंवर सिंह जी की सेना ने कप्तान ली ग्रैंड के नेतृव वाली फिरंगी पलटन को जगदीशपुर के पास हरा कर अपना ध्वज फहराया।
अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को ही जगदीशपुर पहुंचे। इस समय वह कटी बांह और अन्य चोटों से बुरी तरह से घायल थे। वहाँ से अपने किले में लौटे।
वीर कुंवर सिंह की मृत्यु कब हुई-Death of Veer Kunwar Singh
यह कहना उचित नहीं होगा कि वीर कुंवर सिंह की मृत्यु गोली लगने से हुई थी। परंतु गोली लगना वीर कुंवर सिंह की मृत्यु का कारण अवश्य रहा। उनके हाथ में गोली लगने के कारण उनका जख्म काफी बढ़ गया था जिसकी वजह से वह हर वक्त परेशानी में रहते थे। गोली लगने के कारण व उनके द्वारा अपना हाथ काटने के कारण उनके हाथ से लगातार रक्त स्त्राव हो रहा था।
उनका स्वास्थ्य लगातार खराब ही होता गया। वह इतनी कठिन परिस्थितियों में भी अपने आदम साहस और शोर्य के कारण अंग्रेजों से बचकर अपने गांव तो पहुंच गए थे परंतु अपने रक्त के स्त्राव को नहीं रोक पाए जिस कारणवस उनके हाथ में गहरा घाव बन गया था। इस पीडा के चलते अपने जीवन का अंतिम युद्ध जीतने के ३ दिन बाद, 1857 की क्रान्ति का यह महान नायक अदम्य वीरता का प्रदर्शन करते हुए आखिरकार युध्दजनित चोटों से 26 अप्रैल, 1858 वीरगति को प्राप्त हो गया।
आरा-पटना निर्माणाधीन फोर लेन सड़क से पटना से आरा जाते समय कायमनगर के पास नदी के किनारे बाबू वीर कुंवर की 21 फीट की ऊंची कांसे की चमकती तलवार का निर्माण किया गया है.


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