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स्वतंत्रता सेनानी राजा राव रामबख्श सिंह|Raja Rao Ram Baksh Singh History in Hindi

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1857 के प्रथम स्वतंत्रता के महान क्रांतिकारी अमर पुरोधा राजा राव रामबख्श सिंह जी की गौरवगाथा

राजा राव रामबख्श सिंह जी की जन्मस्थली

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की पावन पवित्र जन्मभूमि अयोध्यापुरी और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) का निकटवर्ती क्षेत्र सदा से अवध कहलाता है। इसी अवध में जिला उन्नाव,रायबरेली क्षेत्र बैस राजपूतों के प्रभुत्व के कारण बैसवाड़ा(बैसवारा) कहा जाता है। यह क्षेत्र राजपूताना और बुंदेलखंड की तरह मुगलकाल और अंग्रेजी काल में क्रांतिकारी वीरों की मातृभूमि रहा है ।बलिदान का इतिहास है इस वीर प्रसूता भूमि का जिसके वीरों ने अपने जीते जी कभी बैसवारे में अंग्रेजों का झंडा गढ़ने नहीं दिया।

यहां के शौर्य , पराक्रम और आन -बान की शान ने अंग्रेजी हुकूमत को इस क्षेत्र का विघटन करने के लिए विवश कर दिया ।इसके लिए उन्होंने संपूर्ण बैसवारे को उन्नाव ,रायबरेली ,लखनऊ तथा बाराबंकी जिलों में विघटित कर दिया ताकि यहां के लोग एक स्थान पर एकत्र नही हो सके।

इसी बैसवारा की वीरभूमि में राजा राव रामबख्श सिंह(Raja Rao Ram Baksh Singh) का जन्म हुआ, जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अन्तिम दम तक संघर्ष किया और फिर हँसते हुए फाँसी का फन्दा चूम लिया।


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राजा राव रामबख्श सिंह जी की वंशशाखा परिचय

क्षत्रियों में एक वंश पाया जाता है लिच्छवी। शाक्य-गौतमों के बाद शायद यही क्षत्रियों का सबसे प्राचीन वंश है या यूं कह लीजिए दोनों एक ही वंश की दो भिन्न शाखाएं हैं। वैसाली गणराज्य के निर्माता होने के कारण क्षत्रियों के इस वंश को इतिहास में वैस/बैस नाम से भी जाना जाता है।

नेपाल के अंशुवर्मन और सम्राट हर्षवर्धन वैस जैसी अनेकों विभूतियां इसी महान लिच्छवी कुल की देन हैं। इन्हीं अनगिनत विभूतियों में से एक अमर शहीद राजा राव रामबख्श सिंह का जन्म हुआ था।

राव रामबख्श सिंह बैसवारा के पुनः संस्थापक विस्तारक महाराजा त्रिलोकचन्द्र सिंह बैस की 16 वीं पीढ़ी में जन्मे थे। इनके पूर्वज परम्परागत रूप से बैसवारा क्षेत्र के ही एक रियासत डौंड़ियाखेड़ा पर राज्य करते थे।डौंडिया खेड़ा बैसवाड़ा की राजधानी रहा है ।

डौंडिया खेड़ा के राव मर्दन सिंह के तीन संताने थीं। यही से राव रामबख्श सिंह की कहानी शुरू हुई। राव बसंत सिंह के बाद राव रामबख्श सिंह ने 1840 में डौंड़ियाखेड़ा का राज्य की बागडोर संभाली और बड़ी सूझ-बूझ के साथ राज चलाने लगे।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

यह वह समय था, जब अंग्रेज छल-बल से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। 1857 में जब स्वतंत्रता का बिगुल बजा ।तो अवध-पूर्वांचल के सभी राजाओं/जमीदारों की भांति रणोन्मत्त राजा राव रामबख्श सिंह भी संग्राम में कूद पड़े।

आजादी की इस सन सत्तावन की लड़ाई में अंग्रेजों के छक्के उड़ाने वाले राजा राव रामबख्श सिंह जी ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया। उन्होंने अंगरेजी हुकूमत के जुल्मों के खिलाफ क्षेत्र के राजाओं , जमींदारों, किसानों, युवाओं को जोड़कर क्रांति की ऐसी। मशाल जलाई कि अंग्रेजों के छक्के छूट गये ।

अंग्रेजों को कई बार उन्होंने परास्त किया और बाद में उनको मजबूर होकर भागना पड़ा। गदर के समय राव साहिब ने उन दिनों जिस सक्रीयता और युद्ध कौशल का परिचय दिया उसके कारण जनरल हेवलॉक का लखनऊ पहुंचना मुश्किल हो गया था,ऐसे बीच से ही कानपूर लौट जाना पड़ा था।

इसी समय लार्ड डलहौजी ने 17 फरवरी 1856 को अवध को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा की थी ।

इसी समय इस क्षेत्रमें स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे,राणा बेनीमाधव सिंह बैस आदि के नेतृत्व में लोग संगठित भी हो रहे थे। राव साहब भी इस अभियान में जुड़ गये।

31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलना था; पर दुर्भाग्यवश समय से पहले ही विस्फोट हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गये।

हमारे यहाँ एक लोकश्रुति है कि यदि सकुशल जीवन जीना चाहते हैं। तो भूरे रंग की आंख वाले ठाकुर से कभी नहीं उलझना चाहिए । कहते हैं कि ऐसी आंखों वाला ठाकुर शेर की मानिंद अत्यधिक रौद्र स्वभाव का होता है। कब झपट्टा मारकर आपके जीवन का अंत कर दें कुछ पता नहीं चलता। ब्रिटिश हुकूमत को नाकों चने चबवा देने वाले भूरी आंखों के राजा राव रामबख्श सिंह ने अपने रणकौशल से बताया कि कोई लोकश्रुति यूँ ही अकारण नहीं बन जाती।

जुलाई 1857 से सितंम्बर 1857 तक कानपूर -लखनऊ मार्ग के बीच बैसवारे के वीरों ने राजा राव रामबख्श सिंह(Raja Rao Ram Baksh Singh) के नेतृत्व में अंग्रेजों को बुरी तरह से मात दी । रायबरेली के राजा राणा बेनीमाधव सिंह वैस और डौंडियाखेड़ा के राजा राव रामबख्श सिंह वैस के संयुक्त नेतृत्व में लिच्छवियों ने ब्रिटिश सेनापतियों को कई युद्धों में पराजित किया और कानपुर-लखनऊ मार्ग उनके लिए अगम्य कर दिया। 29 जून 1857 को राव साहब के नेतृत्व में बैसवार वीरों ने कई लोगों की जान बचाई। 

कानपुर पर नानासाहब के अधिकार के बाद वहाँ से भागे 13 अंग्रेज बक्सर में गंगा के किनारे स्थित दिलेश्वर शिव मन्दिर में छिप गये।

वहाँ के ठाकुर यदुनाथ सिंह ने अंग्रेजों से कहा कि वे बाहर आ जायें, तो उन्हें सुरक्षा दी जाएगी; पर अंग्रेज छल से बाज नहीं आये। उन्होंने गोली चला दी, जिससे यदुनाथ सिंह वहीं मारे गये। क्रोधित होकर लोगों ने मन्दिर को सूखी घास से ढककर आग लगा दी। इसमें जनरल डिलाफ़स सहित 12 अंग्रेज जल मरे; पर तीन गंगा में कूद गये और किसी तरह गहरौली, मौरावाँ होते हुए लखनऊ आ गये।

लखनऊ में अंग्रेज अधिकारियों को जब यह वृत्तान्त पता लगा, तो उन्होंने सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी फौज बैसवारा के दमन के लिए भेज दी। 21 मार्च 1858 को लखनऊ की विजय के बाद अंग्रेजी सेना बैसवाड़ा की ओर बढ़ी और सर होप ग्रांट के नेतृत्व में 1 मई को पूर्वा(पुरवा) और 10 मई को दौराखेला पहुंचकर गोलाबारी के बीच आक्रमण शुरू कर दिया।

किले पर तोपों से आक्रमण

अंग्रेजी फौज ने पुरवा, पश्चिम गाँव, निहस्था, बिहार और सेमरी को रौंदते हुए दिलेश्वर मंदिर को जिसमे अंग्रेज जिन्दा जलाये गये थे उसको भी गोल बारूद से तहस-नहस कर दिया।

ब्रिटिश सेना ने जनरल हैवलॉक के नेतृत्व में जून 1858 और दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के किले पर दो-दो बार तोपों से आक्रमण किया। ब्रिटिश फौज ने 10 दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के डौडियाखेड़ा दुर्ग को घेर लिया। तोपों के अनवरत प्रहार से राजा राव रामबख्श सिंह का किला तो नेस्ताबूत हो गया। अंग्रेज़ों ने वहां के लोगों पर भरी अत्याचार किये । सर ग्रांटहॉप को आश्चर्य था कि राव साहिब क्यों नहीं आ रहे है ।

तस्वीर- राजा साहब के डौंडियाखेड़ा किले में बने मंदिर की है।

सर ग्रांटहॉप और हैवलॉक ये देखकर हैरान हो गए कि रामबख्श सिंह चमत्कारिक रूप से किले से सुरक्षित निकल सेमरी पहुंच गए। अंग्रेजों को पता चला कि वे अपने साथियों सहित सेमरी में ही रुके हुये है ,

क्रोधोन्मत्त ब्रिटिश सेना सेमरी की ओर बढ़ गई। जहाँ उसे जमीपुर ,सिरियापुर तथा बजौरा के त्रिभुजाकार क्षेत्र में लिच्छवियों की भीषण मोर्चाबंदी का सामना करना पड़ा उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। राव साहब ने सम्पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध किया; पर अंग्रेजों की सामरिक शक्ति अधिक होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। आधुनिक हथियारों एवं तोपों से युक्त ब्रिटिश सेना बेहद कठिन एवं लंबे चले इस युद्ध में संसाधनहीन लिच्छवियों को पराजित करने में तो सफल हो गई। किंतु राजा राव रामबख्श सिंह (Raja Rao Ram Baksh Singh) एक बार फिर चमत्कारिक रूप से निकल बनारस पहुंच गए और वहां सन्यासी का वेश धारण कर पुनः सेना संगठित करने लगे।

अंग्रेजों की इस विजय से क्षेत्र के लोगों का मनोबल टूट गयाऔर उसके नेता भी शिथिल पड़कर अपने बचाव का मार्ग तलाशने लगे।

परन्तु इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को छकाते रहे। वह काला कांकर होते हुए बनारस चले गए। जहां साधू के वेश में थे। उनके साथ उनके पांच सेवक भी थे। इनमें से एक का नाम चंडी केवट तथा दूसरे का नाम रामकिशन था। शेष तीन ब्राह्मण थे। ब्रिटिश सरकार ने रावसाहब की गिरफ्तारी के लिए इनाम घोषित किए थे।

अपनो की गद्दारी से हुए कैद

लेकिन इस देश का दुर्भाग्य कि चिरकाल से ही इस देश के लोगों से ही इस देश को दो स्वर मिले, एक वीर और एक गद्दार। उनके कुछ परिचितों ने अंग्रेजों द्वारा दिये गये चाँदी के टुकड़ों के बदले अपनी देशनिष्ठा गिरवी रख दी। इनमें एक था उनका नौकर चन्डी केवट। दुर्भाग्य से एक दिन चंडी ने राजा राव राम बक्स की सूचना वहां की पुलिस को दे दिया। उसकी सूचना पर अंग्रेज पुलिस ने उन्हें 26 अगस्त 1859 को ने राव साहब को काशी में गिरफ्तार कर लिया।फिर उन्हें रायबरेली लाया गया।

उसकी पहचान मुरारमऊ के श्री दुर्विजय सिंह और मौरवां के चंदन लाल खत्री ने की।चंदन लाल खत्री कानपुर कैंट में अंग्रेजो को रसद पहुंचाया करता था। चंदन लाल खत्री ने संभवतः अक्टूबर 1859 में राजा राव रामबख्श सिंह की शिनाख्त की थी।

राव साहिब का साथ देने में कई राजपूत जमींदारों की अंग्रेजो से युद्ध करने में जानें गयी थी जिनमे शिवरतन सिंह ठाकुर जगमोहन सिंह, ठा.चन्द्रिकाबख्श सिंह, लाख सिंह, यदुनाथ सिंह, बिहारी सिंह , रामसिंह , छेदी सिंह तथा रामप्रसाद मल्लाह प्रमुख थे।

जिन चार अंग्रेज़ों ने जान बचाकर दिलेश्वर मंदिर छोड़ दिया था, उन्हें महरौली गांव के ठाकुरों से इनाम के तौर पर दाउदियाखेड़ा का राज्य मिला था।

अंग्रेज़ों द्वारा मुकदमे का नाटक

रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने न्याय का नाटक खेला गया।

अंग्रेजों ने राव के खिलाफ झूठी गवाही और महाभियोग देकर उनकी राजधानी दिलेश्वर में स्थित डौडिया खेड़ा के बक्सर मंदिर में झूठे मुकदमे का नाटक किया, जिसमें ब्रिटिश अधिकारियों को जला दिया गया। मौरावाँ के देशद्रोही चन्दनलाल खत्री व दिग्विजय सिंह की गवाही पर राव साहब को मृत्युदंड की सजा सुनाई गयी।

अंग्रेज अधिकारी बैसवारा तथा सम्पूर्ण अवध में अपना आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बक्सर के उसी मन्दिर में स्थित वटवृक्ष पर 28 दिसम्बर, 1861 को राव रामबख्श सिंह को फाँसीकी सजा सुनाई।

फांसी के समय भी चमत्कार

राजा राव रामबख्श सिंह (Raja Rao Ram Baksh Singh) ने फांसी के फंदे पर भी अंग्रेजों को हैरान किया। उन्हें लगातार तीन बार फांसी दी गई ।लेकिन हर बार फांसी का फंदा टूट जाता। जैसे वो अंग्रेजो के हाथों मरने को ही तैयार न थे।

राव साहब डौडियाखेड़ा के कामेश्वर महादेव तथा बक्सर की माँ चण्डिका देवी “कालिका” के उपासक थे। इन दोनों का ही प्रताप था कि फाँसी की रस्सी दो बार टूट गयी।

Mata Chandirka Devi Buxar-Pic source Internet

ऐसा कहा जाता है कि राजा राव रामबख्श सिंह बैस सुबह मंदिर में शिवजी और मां चंडिका “कालिका” के दर्शन करने के बाद ही सिंहासन पर बैठते थे।वहां की किवदंतियों के अनुसार राव साहिब पूजा करने के बाद अपने गले मे गेंदे के फूल की माला जरूर पहनते थे।यही बजह थी कि भक्ति के प्रभाव से अंग्रेज उनको फांसी पर लटकाते थे रस्सी टूट जाती थी।दो बार रस्सी टूटने पर भी राजा साहिब को कुछ भी नहीं होआ।ये दैवीय कृपा थी। तब राजा साहिब ने अपने गले में पडी फूलों की माला को उतारकर फेंक दिया फिर स्वयं अपने हाथों से ही फांसी का फंदा बनाया और मैया से अपनी आगोश में लेने की प्रार्थना की उसके बाद जब अंग्रेजों ने उनको फांसी पर लटकाया तब उनके प्राण शरीर से निकले। राव साहब को 28 दिसंबर 1859 को शाम लगभग 4:00 बजे मंदिर के पास खड़े बरगद के पेड़ से फांसी लगी थी।

इस प्रकार यह महान स्वातंत्र्य वीर अपने आराध्य में विलीन हो गए।

राजा राव रामबख्श सिंह के दो विवाह हुए थे। पहली रानी लल्लू कुंवरि तथा दूसरी रानी छात्रपाल कुंवरि राम कसिया के तालुकेदार की राजकुंवारी थी। राव भी निसंतान थे। उन्होंने अपने जीवन काल मे किसी को अपना दत्तक पुत्र नहीं बनाया। उनकी फांसी और राज्य जब्त हो जाने के बाद उक्त दोनों रानियों को दर-दर की ठोकरे खानी पड़ी। 

शहीद स्मारक

Freedom Fighter Raja Rao Rambaksh Singh Statue

1992 में, भारत सरकार ने उस स्थान पर एक स्मारक बनाया जहां उन्हें उनकी मृत्यु के सम्मान में फांसी दी गई थी। उनके किले के जीर्ण-शीर्ण अवशेष – उनकी शाही हवेली के खंडहर, सैकड़ों एकड़ में फैला एक विशाल परिसर, शिव का एक मंदिर जो 180 से अधिक वर्षों से उपयोग में है, और विभिन्न अन्य संरचनाएं – चर्चा में रही हैं हाल ही में वहाँ दफन सोने के खजाने की एक शहरी कथा के कारण।

राजा राव रामबख्श सिंह (Raja Rao Ram Baksh Singh) के बलिदान को इस देश की सरकारों ने भले ही कभी न याद किया हो ।लेकिन 2013 में जैसे ही एक साधु शोभन सरकार ने राजा राव रामबख्श सिंह के किले में लाखों टन सोना होने का दावा किया। पूरा सरकारी तंत्र उनके किले की खुदाई के लिए पहुंच गया और उनका किला जो पहले ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। सोना पाने के लोभ में सरकारों ने उसका भी उत्खनन कर किले को पूरी तरह से खंडहर में तब्दील कर दिया।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अक्टूबर 2013 में उनके किले की खुदाई के बाद, एक ईंट की दीवार, शेर्ड, चूड़ियों के टुकड़े, हॉप्सकॉच खिलौने और एक मिट्टी के फर्श की खोज की, जो 17-19वीं शताब्दी की हो सकती है, लेकिन कोई सोने का खजाना या कोई अन्य नहीं है। मूल्यवान सामग्री।

डौडिया खेड़ा रियासत के विकास में योगदान

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार राजा राव राम बक्स सिंह उन्नाव की डौडिया खेड़ा रियासत के 24वें राजा थे। उन्होंने अपने पूर्वजों से छीने गए कई गावों को मिलाया था उस समय यहा करीब 30 गाव थे। जिसमें 12 समृद्ध थे। बैसवारा के प्रख्यात राजा त्रिलोक चंद्र की छठीं पीढ़ी में राव देवराज (देवराय) संग्रामपुर से शासक हुए कहा जाता है कि इन्हीं के नाम पहले देवरिया खेड़ा बाद में डौडिया खेड़ा विख्यात हुआ। देवराज के चौथी पीढ़ी में राव संग्राम सिंह हुए। चाचा हमीर शाह, मधुकर शाह. आलम शाह किशन शाह ने जीत शाह राजा हुए। उन्नाव गजेटियर की मानें तो यह क्षेत्र हमेशा सबसे ज्यादा लगान देने वाला क्षेत्र रहा है। इसमें एक जगह जिक्र है कि डौडिया खेड़ा रियासत से 200 पाउंड लगान जाती थी।

Mata Chandirka Devi Mandir Buxar

Raj Rao Ram Baksh Singh

Raja Rao Ram Baksh Singh was a 19th-century Hindu zamindar of Daundia Khera in Unnao district, in the then Oudh province of British India. He was Kshatriya by birth. He was one of the leaders of the Revolt of 1857, and a close associate of Nana Sahib. He was hanged by the British on 28 December 1857 for taking part in the revolt and being found guilty of the killing of British soldiers. In 1992, the Government of India built a memorial at the place where he was hanged to honor his death.

The dilapidated remains of his fort – consisting of the ruins of his royal mansion, a huge campus spread over hundreds of acres, a temple to Shiva which has been in use for more than 180 years, and various other structures – have been in the news recently due to an excavation for gold by the Archaeological Survey of India.

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