दो बाघ दो बाघिन
दो बाघ दो बाघिन
(पुरानी ग्रामीण आँचलिक कहानी)
एक थे मियांजी। एक दिन वह सफर पर निकले। बीवी ने बड़े प्रेम से पराठे बना दिए। पराठों की पोटली बगल में दबाकर मियांजी चल पड़े। रास्ते में एक काठी का साथ हो गया। दोनों साथ-साथ चलने लगे। कुछ दूर जाने पर मियांजी ने पूछा, “भैया! आपका नाम क्या है?”
काठी बोला, “मियांसाहब, मेरा नाम तो बाघजी है।”
मियांजी मन-ही-मन बोले, ‘दुष्ट काठी मुझको डरा रहा है।’
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इसी बीच काठी ने पूछा, “मियांसाहब, आपका नाम क्या है?”
मियां ने कहा, “मेरा नाम? मेरा नाम तो है दो बाघ, दो बाघिन, ऊपर दो-दो फू-फू और उन पर बिच्छू का टोकना।”
काठी समझ गया कि मियांजी कोरी डींग हांक रहे हैं! ठीक है, जब मौक़ा पड़ेगा, तो पता चल जायगा।
चलते-चलते रास्ते में बबूल की घनी झाड़ी आई। वहां बाघों और भेड़ियों को बड़ा डर था।
मियांसाहब बोले, “देखो भैया! साथ में रहना। यह घनी झाड़ी है। मुझे तो डर लगने लगा है।”
काठी ने कहा, “मियांजी, आप डरिये मत। मेरे साथ चले चलिए।”
काठी को पता चल गया कि मियांजी कितने बहादुर हैं। दोनों कुछ दूर आगे चले।
काठी ने हंसकर पूछा, “मियांजी! अपना नाम तो एक बार फिर बता दीजिए। मैं तो उसे भूल ही गया हूं।”
मियांजी कुछ नरम तो पड़ ही चुके थे, फिर भी थोड़े तनकर बोले, “मेरा नाम है—दो बाघ, दो बाघिन, ऊपर दो-दो फू-फू और उन पर बिच्छू का टोकना!
काठी ने कहा, “नाम तो आपका बड़ा ही बहादुरी-भरा है!”
इतने में दूर का एक बाघ दिखाई पड़ा। वह सो रहा था।
काठी ने कहा, “देखिए, वह बाघ सो रहा है।”
मियां बोले, “क्या कहा, बाघ है! तब तो हम मर गए। ओ खुदा!”
काठी ने कहा, “मियांजी! आप तो दो बाघ है, दो बाघिन, ऊपर दो-दो फू-फू और उन पर बिच्छू का टोकना-वोकना कुछ हैं न?”
मियां बोले, “अरे भैया! मैं न तो टोकना हूं, और न वोकना हूं। मैं तो बस, तुम्हारी गाय हूं। तुम मुझे इससे बचा लो। भैया! मेरा असल नाम तो मियां फुसकी है।”
इसी बीच बाघ उठ खड़ा हुआ और इनकी ओर झपटा। काठी ने अपनी तलवार के एक वार से बाघ को वहीं ढेर कर दिया। मियां तो उल्टे पैरों न जाने कितनी दूर भाग गए। बाद में दोनों फिर इकट्ठे हुए और आगे चलने लगे। रास्ते में एक नदी मिली। दोनों ने कहा, “अब हम यहां खाना खा लें।”
काठी तो बेचारा ग़रीब था। उसकी चादर के छोर में ज्वार की रोटी और मिर्च बंधी थी। उसे खोलकर वह खाने बैठा। मियांजी अच्छी हैसियत वाले थे और उनकी बीवी ने उनके लिए बढ़िया पराठे बनाकर रख दिये थे।
काठी ज्वार की रोटी चबाता था, बीच-बीच में मिर्च का टुकड़ा खा लेता था और पानी की मदद से रोटी के कौर गले के नीचे उतारता जाता था। मियांजी मौज के साथ पराठे खाते जाते थे और अपनी घरवाली की तारीफ़ करते जाते थे। काठी बेचारा देखता रहा। और करता ही क्या!
इसी बीच मियांजी बोले, “भैया, बाघजीभाई! आप यह क्या खा रहे हैं, और बीच-बीच में इतना पानी क्यो पी रहे हैं?”
काठी ने मन-ही-मन कहा, ‘हां, अब अच्छा मौक़ा मिला है।’
वह बोला, “मियांजी! यह तो मैं घटकमेवाला खा रहा हूं।”
मियां ने कहा, “यह घटकमेवाला तो हमने कभी खाया ही नहीं। सुनो बाघजीभाई! ये मेरे पराठे आप ले लो और अपना घटकमेवाला मुझे दे दो।”,
दोनों ने आपस में अपना खाना बदल लिया। काठीभाई समझ गए कि उनको क्या खाना है। जैसे ही मियां के पराठे उनके हाथ में आए, वे उन्हें झटपट चटकर गए और पानी पीकर अपने पेट पर हाथ फेरने लगे।
उधर मियांजी घटकमेवाला खाने लगे। लेकिन ज्वार की सूखी रोटी और मिर्च उनके गले के नीचे कैसे उतरती? मियांजी ने बड़ी मुश्किल के साथ घूंट-घूंट पानी पीकर रोटी के दो-तीन कौर अपने गले के नीचे उतारे। बाद में मियां बोले, “काठीभैया! यह अपना घटकमेवाला तो आप अपने ही पास रखो, और मुझको मेरे पराठे लौटा दो।”
काठी ने कहा, “मियांजी, आपके पराठे तो अब मेरे पेट में पहुंच चुक हैं। आपको घटकमेवाला खाना हो, तो खा लो, नहीं तो नदी में बहा दो।”
सुनकर मियांजी का मुंह उतर गया और वे लौट पड़े।
मियांजी ने अपना रास्ता पकड़ा और काठीभाई अपने रास्ते चल दिए।