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यज्ञोपवीत की आवश्यकता और महत्व

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यज्ञोपवीत की आवश्यकता और महत्व

सनातन धर्म में यज्ञोपवीत की बड़ी महत्ता कही गयी है| यहाँ तक कि हर एक पूजा, यज्ञ, और देव , पितृ आदि कर्मों में यज्ञोपवीत धारण करना अनिवार्य ( आवश्यक ) बताया गया है| शास्त्र यहा तक कहते हैं कि सभी देव कार्य इत्यादि बिना यज्ञोपवीत के अपना फल नही देते| अतः यज्ञोपवीत धारण करना हर तरह से अनिवार्य बतलाया गया है|

यज्ञोपवीत  ‘उपनयन संस्कार या ‘यज्ञोपवीत संस्कार या ‘व्रतबन्ध संस्कार के बाद ही पहना जात है| जैसे की नाम से ही विदित है कि यह एक व्रत पालन में खुद को समर्पित करने कि क्रिया है|वस्तुतः मनुष्य व्रत बन्ध संस्कार के बाद कुछ यम-नियमों का पालन करने के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो जाता है|

यज्ञोपवीत को आम बोल चाल की भाषा में जनेऊ भी कहते हैं| शास्त्रों में इसे यज्ञसूत्र या ब्रह्मसूत्र, व्रतबन्ध,  यज्ञसूत्र भी कहा गया है| साधारण तया 8 वर्ष की आयु में, प्राचीन काल में जब बालक गुरुकुल में प्रवेश करते थे|  उस समय उनका अनिवार्य यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता था|  एक बार गुरुकुल में प्रवेश करने के बाद वे बालक ब्रह्म ब्रहंचारी जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञान अर्जित करते थे| यज्ञोपवीत के पश्चात उन्हे द्विज नाम से संबोधित किया जाता था| द्वीज (द्वि- दो, ज- जन्म) अर्थात जिसका दो बार जन्म हुआ हो| यह बताता है की यज्ञोपवीत के समय बालक को सनातन धर्म के श्रेष्ठतम मंत्र गायत्री मंत्र की भी दीक्षा दी जाती है| जिससे बालक ब्रह्मचारी का अध्यात्मिक जगत और ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में प्रवेश होता था| चूँकि यहा उसका अध्यात्मिक और शिक्षा जगत में नये जन्म के समान होता था, अतः इसे दूसरे जन्म के समकक्ष माना जाता था|

यज्ञोपवीत विभिन्न कर्म कांड के समय 3 तरीके से पहना जाता है:

  1. उपवीत: सबसे उचित अवस्था इसकी ‘उपवीत’ अवस्था होती है. इस अवस्था में यज्ञोपवीत बायें कंधे के उपर और दाहिने भुजा के नीचे से होता है| इस अवस्था में ही देव पूजन, गुरु के पास ज्ञान अर्जन, संध्या वंदन , संत समागम , भोजन और अन्य सामान्य शुभ कार्य करने चाहिए|
  2. नीवीत अवस्था इस अवस्था में जनेऊ गले में माला की तरह से लटका होता है| साधारणतया इसका प्रयोग ना के बराबर ही होता है| कभी कभी जब विशेष यज्ञ कर्म में ही इसका प्रयोग होता है|
  3. प्राचीनावीत या अपसव्य अवस्था– इस अवस्था में यज्ञोपवीत दाहिने कंधे के उपर से होकर बायें हाथ के नीचे से पहना जाता है| इस अवस्था का प्रयोग प्रायः पितृ कर्म जैसे श्राद्ध इत्यादि में होता है|

ब्रह्मचर्य आश्रम( गुरुकुल में ज्ञान अर्जन ) अवस्था में यज्ञोपवीत 3 धागों का बना होता है| गृहस्थ अवस्था में यज्ञोपवीत 6 सूत्रों का धारण किया जाता है|यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

इसके अलावा वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है।

जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं।  यह तीन धागे निम्न का प्रतिनिधित्व करते हैं:

  1. ये त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं।
  2. यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं
  3. यह सत्व, रज और तम गुणों का प्रतीक है।
  4. यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों – भू:, भुव:, स्व: का प्रतीक है।
  5. यह तीन आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, और वानप्रस्थ का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।

यज्ञोपवीत के नौ सूत्र : यज्ञोपवीत के एक-एक धागे में तीन-तीन सूत्र होते हैं। इस तरह कुल सूत्रों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।

पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।

यज्ञोपवीत की लंबाई 96 (64+32)  अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।

शास्त्रों के मुताबिक जन्म से आयु की गिनती करने पर उपनयन संस्कार के लिए ब्राह्मण की आयु 5 या 8 वर्ष, क्षत्रिय की 6 या 11 वर्ष तथा वैश्य के लिए 8 या 12 वर्ष होती है। यज्ञोपवीत संस्कार के लिए अधिकतम आयु ब्रह्मणों के लिए 16 वर्ष, क्षत्रीय के लिए 22 वर्ष और वैश्य के लिए 24 वर्ष होती है।

यज्ञोपवीत करने वालों के लिए गायत्री मंत्र का अभ्यास अनिवार्य माना जाता है| ऐसा कहते हैं कि जो यज्ञोपवीत का पक्का होता है , उसके पास भूत,प्रेत आदि बुरी शक्तियाँ पास भी नहीं फटकती| क्योंकि यज्ञोपवीत सिर्फ़ बाह्य ज्ञान का प्रतीक ही नही बल्कि धारणकर्ता के अंदर ब्रह्मतेज को भी समाहित कर देता है| यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्तिको सदाचारी जीवन जीते हुए उन्नत जीवन व्यतीत करना चाहिए| हमेशा लघुशंका और दीर्घशंका के समय यज्ञोपवीत को कान पर धारण करना चाहिए | अच्छा होगा यदि उसे दाहिने कान पर लपेट लें| यज्ञोपवीत साधारणतया श्वेत रंग कपास के धागे का बना होता है पर कभी कभी इसे हल्दी से पीले रंग में या कभी गेरुए रंग में भी रंग लिया जाता है|

यदि एक यज्ञोपवीत अपवित्र हो जाए तो पुनः नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए|

यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र:

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥

यज्ञोपवीत धारण करने से पहले उसे हाथ में लेकर यथाशक्ति, जितना हो सके गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए| कम से कम 24 बार जप तोअवश्य करें|  फिर यज्ञोपवीत धारण मंत्र पढ़ते हुए पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए|

गायत्री मंत्र:

||ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ||

नया यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात पुराना यज्ञोपवीत गले से पीछे की ओर निकाल कर फेंक देना चाहिए|

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