पिताजी! कौआ
(शिक्षाप्रद पुरानी ग्रामीण आँचलिक कहानी)
एक था व्यापारी। उसके छ: सात साल का एक लड़का था। लड़का बहुत ही लाड़ला था और दिन भर बाप से कुछ न कुछ पूछता रहता था। वह रोज बाप के साथ दुकान जाता, और कोई न कोई बात पूछता रहता। बनिया इतने शान्त स्वभाव का था कि बेटे को खुश रखने के लिए उसके सवालों के जवाब देता रहता था। वह अपने लाड़ले बेटे को कभी नाराज नहीं करता था। कभी उस पर खीझता नहीं था। बेटा जो भी चाहता, बाप वही करता।
एक दिन बेटा बाप के साथ दुकान पर आया और बड़े प्यार के साथ बाप की गोद में उछलने-कूदने लगा। उसने तरह-तरह के सवाल पूछने शुरु कर दिए। दुकान के सामने नीम का एक पेउ़ था। उस पर एक कौआ आकर बैठा और कांव-कांव करने लगा। बेटे ने कौए को देखा, तो उसकी तरफ अंगुली उठाकर बाप से कहा, “पिताजी! कौआ।”
बाप बोला, “हां बेटा! कौआ।”
लड़के ने फिर बाप का हाथ पकड़कर कहा, “पिताजी! कौआ!”
बाप ने फिर जवाब दिया, “हां बेटा कौआ।”
बेटे ने तीसरी बार कहा, “पिताजी! पिताजी! कौआ।”
बाप ने बड़े धैर्य के साथ कहा, “हां बेटा, कौआ।”
जवाब देकर बाप थोड़ी देर के लिए दुकान के काम में लगा ही था कि बेटे ने बाप का घुटना हिलाते हुए कहा, “पिताजी! देखिए तो कौआ”
बाप ने अपने काम में से ध्यान खींचकर बड़ी शान्ति के साथ कहा, “हां बेटा! कौआ।”
बेटे को अपने बाप के जवाब से सन्तोष नहीं हुआ। जब बाप फिर अपने काम में लग गया, तो बेटे ने बाप की पगड़ी खींचते हुए कहा, “पिताजी! कौआ।”
बिना चिढ़े बाप ने शान्तिपूर्वक कहा, “हां, बेटा! कौआ।”
बेटा जिद पर चढ़ा और बोला, “पिताजी! देखिए, इस कौए को।”
बाप ने बही लिखते-लिखते सामने देखा और कहा, “हां,हां, बेटा! यह तो कौआ ही है।”कुछ देर तक लड़का कौए को देखता रहा, और फिर जब सनक सवार हुई, तो जारे से बाप का कंधा हिलाकर बोला, “पिताजी! कौआ।”
बाप ने बिना गुस्से के कहा, “हां, बेटा! कौआ।”
इस तरह लड़का बार-बार बाप को “पिताजी कौआ, पिताजी कौआ” कहता रहा, और बाप “हां बेटा! कौआ” “हां बेटा! कौआ” कहता चला गया। आखिर लड़का थक गया। और उसने “पिताजी! कौआ! कहना बन्द कर दिया।
बाप बनिया था। सयाना था। लउ़का ज्यों-ज्यों “पिताजी! कौआ, पिताजी कौआ” कहता गया, त्यों-त्यों वह अपनी बही में “पिताजी! कौआ,” “हां, बेटा! कौआ” लिखता रहा। जब लउ़का थक गया, तो बाप ने गिनती लगाकर देखा, “पिताजी! कौआ, “हां, बेटा! कौआ” सौ बार लिखा जा चुका था। यह सोचकर कि आगे कभी यह बही काम आयेगी, चतुर बनिये ने इस बही को संभालकर पुरानी बहियों में रखवा दिया।
इस बात को कई साल बीत गए। बनिया बहुत बूढ़ा हो चुका था, और उसका वह लाड़ला बेटा तीस साल का नौजवान बन गया था। बचपन का ‘पगला’ तो अब बहुत बड़ा सेठ बन चुका था, और उसका व्यापार धड़ल्लेसे चल रहा था। लोग उसे ‘पगले सेठजी’, ‘पगले सेठजी’ कहते थे, और सब कोई उसका बड़ा सम्मान करते थे। लेकिन बूढ़ा बनिया बहुत दुखी था। पगला सेठ उसकी सेवा चाकरी तो करता ही नहीं था, उलटे अपनी सेठानी क सीख मानकर मां बाप को बहुत दु:ख देता रहता था। जब बाप का दिल बहुत ही उकता उठा, तो उसने सोचा कि वह अपने पगले बेटे को याद दिलाए कि उसको उन्होंने कितने लाड़-प्यार से पाला पोसा था।
एक दिन बूढ़ा बनिया अपनी लकड़ी के सहारे-सहारे दुकान पर पहुंचा, और पगले सेठ की गद्दी पर जाकर बैठ गया। बाप को देखकर बेटा चिढ़ा और मन ही मन बड़बड़ाया “यह बूढ़ा यहां क्यों आ गया! यह बेमतलव क बातें कहकर मेरा सिर चाटेगा, और मेरी जान खायगा।”
कुछ देर बाद बूढ़े ने एक कौआ देखा, और शान्त स्वर में कहा “बेटा! कौआ।”
पगला सेठ बूढ़े बाप के सवाल से सोच में पड़ गया और फिर बहुत चिढ़कर बोला, “हां, पिताज! कौआ।”
बूढ़े ने फिर कहा, “बेटा! कौआ।
पगला सेठ बहुत गुस्सा हुआ, और तिरस्कार भरी आवाज में बोला, “हां पिताजी! कौआ।”
बूढ़े ने देखा कि बेटे को गुस्सा आ रहा है। लेकिन वह तो बेटी की आंखें खोलने के लिए ही आया था, इसीलिए पूरी शक्ति के साथ उसने फिर कहा, “बेटा! कौआ।”
सुनकर बेटा बुरी तरह झुझला उठा और भड़ककर बोला, “हां, पिताज! कौआ। वह कौआ ही है। आप बार-बार ‘बेटा कौआ, ‘बेटा कौआ’ क्यों बोलते जा रहे है? मुझे मेरा काम करने दीजिए।”
यों कहकर पगले सेठ ने पीठ फेर ली और वह अपने काम में लग गया। बूढ़ा बनिया भी कम नहीं था। उसने पगले सेठ का हाथ पकड़ा और कौएकी तरफ इशारा करते हुए कहा, “बेटा कौआ।”
अब तो पगले सेठ के गुस्से की हद हो गई। उसने सोचा, यह बूढ़ा नाहक ही बेटा! कौआ’ बेटा! कौआ’ बड़बड़ाता रहता है। इसके पास कोई न काम है, न काज। बेकार बैठा नाहक बक-बक किया करता है।
उसने बूढ़े की ओर देखकर कहा, “पिताजी! घर जाइए। यहां आपका क्या काम है? दुकान के काम में आप क्यों नाहक बाधा डालते है।”
बूढ़े ने शान्ति से सारी बातें सुन ली। फिर तनिक मुस्कराकर कौए क तरफ इशारा करते हुए बूढ़ा बोला, “लेकिन बेटा! कौआ।”
“हां, पिताजी! कौआ, कौआ, कौआ! अब और कितनी बार आप ‘कौआ, कौआ’ कहते रहेंगे? इस कौए में ऐसी क्या बात है कि आप ‘कौआ, कौआ’ बोलते ही रहते है?”
बूढ़ा फिर अंगुली का इशारा करके, “बेटा! कौआ।” कहे, इसके पहले ही पगले सेठ ने अपने मुनीम से कहा कि वह उस कौए को उड़ा दे। कौआ उड़ गया। बाद में बही लिखते-लिखते जले-भुने मन के साथ पगला सेठ जोर से बड़बड़ाया, “सचमुच ‘साठी, बुध नाठी’ वाली बात सही है। इस बूढ़े की बुद्धि तो अब बिलकुल नष्ट हो चुकी है। अब तो अच्छा यह हो कि यह बूढ़ा मर जाए।”
बूढ़ने ने यह सब सुना, तो उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने अपने पुराने मुनम को बुलाकर वह पुरानी बही निकलवाई और पगले सेठ के हाथ में वह पन्ना रखा, जिसमें “पिताजी! कौआ।” “हां, बेटा! कौआ” लिखा था। मुनीम ने पगले सेठ को उसके बचपन की सारी बातें व्योरेवार कह सुनाई। पगला सेठ तुरन्त ही सबकुछ समझ गया। उसने बाप से माफी मांगी और उस दिन से उसने सच्चे दिल से अपने मां-बाप की सेवा शुरु कर दी।
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