माता श्री शाकंभरी देवी चालीसा-1
॥दोहा॥
श्री गणपति गुरुपद कमल, सकल चराचर शक्ति ।
ध्यान करिअ नित हिय कमल । प्रणमिअ विनय सभक्ति ।
आद्या शक्ति पधान, शाकम्भरी चरण युगल ।
प्रणमिअ पुनि करि ध्यान, नील कमल रुचि अति बिमल ॥
॥चौपाई॥
जय जय श्री शाकम्भरी जगदम्बे, सकल चराचर जग अविलम्बए ।
जयति सृष्टि पालन संहारिणी, भव सागर दारुण दुःख हारिणी ।
नमो नमो शाकम्भरी माता, सुख सम्पत्ति भव विभव विधाता ।
तव पद कमल नमहिं सब देवा, सकल सुरासुर नर गन्धर्वा ।
आद्या विद्या नमो भवानी, तूँ वाणी लक्ष्मी रुद्राणी ।
नील कमल रूचि परम सुरूपा, त्रिगुणा त्रिगुणातीत अरूपा ।
इन्दीवर सुन्दर वर नयना, भगत सुलभ अति पावन अयना ।
त्रिवली ललित उदर तनु देहा, भावुक हृदय सरोज सुगेहा ।
शोभत विग्रह नाभि गम्भीरा, सेवक सुखद सुभव्य शरीरा ।
अति प्रशस्त धन पीन उरोजा, मंगल मन्दिर बदन सरोजा ।
काम कल्पतरु युग कर कमला, चतुर्वर्ग फलदायक विमला ।
एक हाथ सोहत हर तुष्टी, दुष्ट निवारण मार्गन मुष्टी ।
अपर विराजत सुरुचि चापा, पालन भगत हरत भव तापा ।
एक हाथ शोभत बहु शाका, पुष्प मूल फल पल्लव पाका ।
नाना रस, संयुक्त सो सोहा, हरत भगत भय दारुण मोहा ।
एहि कारण शाकम्भरी नामा, जग विख्यात दत सब कामा ।
अपर हाथ बिलसत नव पंकज, हरत सकल संतन दुःख पंकज ।
सकल वेद वन्दित गुण धामा, निखिल कष्ट हर सुखद सुनामा ।
शाकम्भरी शताक्षी माता, दुर्गा गौरी हिमगिरि जाता ।
उमा सती चण्डी जगदम्बा, काली तारा जग अविलम्बा ।
राजा हरिश्चन्द्र दुःख हारिणी, पुत्र कलत्र राज्यसुखं कारिणी ।
दुर्गम नाम दैत्य अति दारूण, हिरण्याक्ष कुलजात अकारूण ।
उग्र तपस्या वधि वर पावा, सकल वेद हरी धर्म नशावा ।
तब हिमगिरि पहुँचे सब देवा, लागे करन मातु पद सेवा ।
प्रगट करुणामयि शाकम्भरी, नाना लोचन शोभिनी शंकरि ।
दुःखित देखि देवगण माता, दयामयि हरि सब दुःख जाता ।
शाक मूल फल दी सुरलोका, क्षुधा तृषा हरली सब शोका ।
नाम शताक्षी सब जग जाना, शाकम्भरी अपर अभिघाना ।
सुनि दुर्गम दानव संहारो, संकट मे सब लोक उबारो ।
किन्हीं तब सुरगण स्तुति-पूजा, सुत पालिनी माता नहि दूजा ।
दुर्गा नाम धरे तब माता, संकट मोचन जग विख्याता ।
एहि विधि जब-जब उपजहिं लोका, दानव दुष्ट करहि सुर शोका ।
तब-तब धरि अनेक अवतारा, पाप विनाशनि खल संहारा ।
पालहि विबुध विप्र अरू वेदा, हरहिं सकल संतन के खेदा ।
जय जय शाकम्भरी जग माता, तब शुभ यश त्रिभुवन विख्याता ।
जो कोई सुजस सुनत अरू गाता, सब कामना तुरंत सो पाता ।
नेति नेति तुअ वेद बखाना, प्रणब रूप योगी जन जाना ।
नहि तुअ आदि मध्य अरू अन्ता, मो जानत तुअ चरित्र अनन्ता ।
हे जगदम्ब दयामयि माता, तू सेवत नहिं विपति सताता ।
एहि विधि जो तच्च गुण गण जाता, सो इह सुखी परमपद पाता ।
॥दोहा॥
जो नित चालीसा पढ़हि, श्रद्धा मे नव बार ।
शाकम्भरी चरण युगल, पूजहिं भक्ति अपार ॥
सो इह सुख सम्पत्ति लभहि, ज्ञान शक्ति श्रुति सार ।
बिनु श्रम तरहिं विवेक लहि, यह दुर्गम संसार ॥
कृष्णानन्द अमन्द मुद, सुमति देहु जगदम्ब ।
सकल कष्ट हरि तनमन के, कृपा करहु अविलम्ब ॥
॥ बोलो श्री शाकम्भरी माता की जय ॥
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