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धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का अर्थ|Dhobi Ka Kutta

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धोबी का कुत्ता न घर का घाट का

अर्थ : इसका सीधा सा अर्थ है कि ‘कहीं का न रहना’ ,कोई ठिकाना न होना। हर तरफ से दुत्कारा जाना।

विवेचन : धोबी कपडे धोने के लिए निकट के नदी या तालाब के घाट पर जाता है। अब धोबी का कुत्ता न घर जायेगा और न घाट पर जायेगा तो कहाँ जाएगा। अगर गली में रहेगा तो गली का कुत्ता न हो जायेगा। फिर ये गली का कुत्ता आया कहाँ से ?

असल में मूल कहावत इस प्रकार है:-

धोबी का कुतका न घर का न घाट का।


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अब ये कुतका क्या है ? धोबी लोग कपडे धोने के लिए एक भारी लकड़ी के टुकड़े का उपयोग करते थे। यह बेलनाकार और एक और से कुछ चपटा होता था। इसी कुतके का छोटा भाई थोड़े छोटे आकार कि लकड़ी का प्रयोग कुछ समय पहले तक (वाशिंग मशीन के आने के पहले तक ) हमारे घर की महिलाएं भी करती थी। जिसे पीटना , थापी,थापनी आदि कहते हैं। लेकिन कुतका इससे काफी भारी होता था। धोबी महोदय के लिए इसे रोज रोज घर से घाट तक ले जाना और ले आना थोड़ा कष्टप्रद होता था। और भारी मात्रा में कपड़ों को धोने के लिए इसकी मुख्य उपयोगिता थी। धोबी इसे घाट पर भी नहीं छोड़ सकता था, अन्यथा चोरी हो जाने का डर था।

तब धोबी काम हो जाने के बाद वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में इस कुतके को घाट के निकट ही किसी पेड़ कि जड़ या कोटर में छुपा देता था। फिर अगले दिन काम के लिए इसे दुबारा वहीँ से ले आता था।

इस प्रकार न धोबी के घर में और न घाट पर जगह मिलने के कारण यह कहावत शुरू हुयी कि धोबी का कुतका न घर का न घाट का

कुतका का कुत्ता में अपभ्रंश

समय के साथ लोग गाँव से शहरों में आ गए। आधुनकिता मार से गाँवों से हटकर भी धोबी भी शहरों में ड्राई क्लीनर्स हो गए। सामाजिक व्यवस्था तो बदली ही साथ में लोग सांस्कृतिक रूप से भी दूरी बढ़ गयी। लोग कुतका भूल गए और कुत्ता ही याद रह गया। इस प्रकार कहावत बदल कर हो गयी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का

कुतका की व्युत्पत्ति

कुतका शब्द कूटका से उद्भूत हुआ है। कूटका कूटने से आया है। जिसका अभिप्राय किसी वास्तु पर बार बार प्रहार करने से है। कुतका के द्वारा भी बार बार कपड़ों के ऊपर नियंत्रित रूप से प्रहार करके उन्हें स्वच्छ किया जाता है।

धोबी का कुत्ता का वाक्य प्रयोग

हमारे स्थानीय नेता जी ने विपक्षी पार्टी से चुनाव टिकट पाने के लोभ में अपनी पार्टी से स्तीफा दे दिया। परन्तु विपक्षी पार्टी ने उन्हें चुनाव टिकट देना तो दूर अपनी पार्टी की सदस्यता तक न दी। इसी को कहते हैं ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का‘….. अरे नहीं नहीं ‘धोबी का कुतका न घर का न घाट का‘।

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