कबीर दास के दोहे (Kabir Das Ke Dohe)
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार ।।1
अर्थ: संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें ।
भाव बिना नहिं भक्ति जग , भक्ति बिना नहिं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुझाव ।।2
अर्थ: भक्ति और भाव का निरूपण करते हुए सन्त शिरोमणि कबीर साहेब जी कहते है कि संसार में भाव के बिना भक्ति नहीं और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता है भक्ति और भाव एक दुसरे के पूरक है अर्थात इनके बीच कोई भेद नहीं है । भक्ति एवम भाव के गुण, लक्षण , स्वभाव आदि एक जैसे है ।
कबीर माया मोहिनी , भई अंधियारी लोय ।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय ।।3
अर्थ: संत कबीर कहते है कि माया मोहिनी उस काली अंधियारी रात्रि के समान है जो सबके ऊपर फैली है । जो वैभव रूपी आनन्द में मस्त हो कर सो गये अर्थात माया रूपी आवरण ने जिसे अपने वश में कर लिया उसे काम , क्रोध और मोहरूपी डाकुओ ने लूट लिया और वे ज्ञान रूपी अमृत तत्व से वंचित रह गये ।
कह आकाश को फेर है , कह धरती को तोल ।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल ।।4
अर्थ: आकाश की गोलाई , धरती का भार , साधु सन्तो की जाति क्या है तथा पारसमणि का मोल क्या है? कबीर जी कहते है कि इनका अनुमान लगा पाना असम्भव है अतः ऐसी चीजों के चक्कर में न पड़कर सत्य ज्ञान का अनुसरण करिये जिससे परम कल्याण निहित है ।
कबीर कमाई आपनी , कबहुं न निष्फल जाय ।
सात समुद्र आड़ा पड़े , मिलै अगाड़ी आय ।।5
अर्थ: कबीर साहेब कहते है कि कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाये अर्थात कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतःसत्कर्म करें ।
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप ।।6
अर्थ: परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है । कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है । जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचै , शीश देय ले जाय ।।7
अर्थ: कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वास्तु नहीं है । प्रेम नामक अमृत राजा रैंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुच कर लगे अपना शीश देकर बदले में ले ।
साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द ।
तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द ।।8
अर्थ: साधु सन्त एवम ज्ञानी महात्मा को समुद्र की सीप के समान जानो और सद्गुरु को स्वाती नक्षत्र की अनमोल पानी की बूंद जानो जिसकी एक बूंद से ही सारी प्यास मिट गई फिर समुद्र के निकट जाने का क्या प्रयोजन । सद्गुरु के ज्ञान उपदेश से मन की सारी प्यास मिट जाती है ।
माला फेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय ।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय ।।9
अर्थ: माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाठ को आप नहीं खोलेंगे । मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो । सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी ।
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय ।
ओरन को शीतल करे, आपन को सुख होय ।।10
अर्थ: ऐसी वाणी बोलिए जिसमें अहंकार का नाम न हो और आपकी वाणी सुनकर दुसरे लोग भी पुलकित हो जाँ तथा अपने मन को भी शान्ति प्राप्त हो ।
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