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नर्मदा सप्तमी जयंती महत्त्व एवं कथा

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हिन्दू रीति-रिवाजों में माघ माह हो अत्यंत ही शुभ माना जाता हैं इसीलिए वेदों में इसे ब्रह्मा मुहूर्त भी कहते हैं. इसी माह में तिल चौथ और मकर संक्रांति का भी पर्व आता हैं इसी कारण इस माह में दान करने की परंपरा हैं. ऐसा कहा जाता हैं इसी माघ माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को भगवान शिव के पसीने से 12 वर्ष की एक कन्या ने जन्म लिया था. वह कन्या माँ नर्मदा थी. इसी कारण इस दिवस को नर्मदा जयंती यानी नर्मदा का जन्म पर्व के रूप में मनाया जाता हैं.

माघ शुक्ल सप्तमी’ (अरूणोदय स्नान)

तापत्रयहारिणी परम पुण्यप्रदायिनी” माँ नर्मदा जयन्ती पर्वोत्सव” को महा महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। वैसे तो संसार में ९९९ नदियां हैं, पर नर्मदाजी के सिवा किसी भी नदी की प्रदक्षिणा करने का प्रमाण नहीं देखा गया है। ऐसी नर्मदाजी अमरकंटक से प्रवाहित होकर रत्नासागर में समाहित हुई है और अनेक जीवों का उद्धार भी करती है।

युगों से हम सभी शिव-शक्ति की उपासना करते आए हैं। हम इनका सम्मान और पूजन करते हैं। ऐसे में कोई शक्ति अजर-अमर होकर लोकहित में अग्रसर रहे तो उनका जन्म दिवस कौन नहीं मनाएगा।

नर्मदा को एक अव्यक्त दर्द था जो हर कथा के साथ बहता चला आता है। नर्मदा नदी की तड़प, वेदना, अपमान की पीड़ा और अपने स्वत्व-स्त्रीत्व की क्रोधाग्नि, हर मनोभाव को कहीं गहरे तक अनुभूत किया गया हैं। नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्म निर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है।

तत्पश्चात-
माघै च सप्तमयां दास्त्रामें च रवि दिने।
मध्याह्न समये राम भास्करेण कृमागते॥

माघ शुक्ल सप्तमी को मकर राशि सूर्य नें मध्याह्न काल के समय नर्मदाजी को जल रूप में बहने का आदेश दिया।

तब नर्मदाजी प्रार्थना करते हुए बोली- भगवन् ! संसार के पापों को मैं कैसे दूर कर सकूंगी’

तब भगवान विष्णु ने आशीर्वाद रूप में वक्तव्य दिया-नर्मदे त्वें माहभागा सर्व पापहरि भव। त्वदत्सु याः शिलाः सर्वा शिव कल्पा भवन्तु ताः। अर्थात् तुम सभी पापों का हरण करने वाली होगी तथा तुम्हारे जल के पत्थर शिव-तुल्य पूजे जाएंगे।

“मत्स्यपुराण में “माँ नर्मदा” की महिमा””कनखल क्षेत्र में ‘गंगा’ पवित्र है ! और कुरुक्षेत्र में ‘सरस्वती’ !! परन्तु गांव हो चाहे वन,’नर्मदा’ सर्वत्र पवित्र है !!!

यमुना का जल सात दिन में,
सरस्वती का तीन दिन में,
गंगाजल उसी दिन और
नर्मदा का जल दर्शन करते ही उसी क्षण पवित्र कर देता है !!

एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में- ‘सप्त सरिताओं’ का गुणगान’

“गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिंकुरु
“ॐ नमो नर्मदा माई रेवा पार्वती वल्लभ सदा शिवा

नर्मदा नदी से जुडी कहानियाँ

हिन्दू धर्मं की सप्त पावन नदियों में से नर्मदा एक हैं. इसके महत्व से जुडी कई कहानियाँ हमारे पुराणों में मौजूद हैं. जिसमे में मुख्य कुछ इस प्रकार हैं.

कथा 1 : अंधकासुर के वध से जुडी हुई

वामन पुराण की एक कथा के अनुसार अंधकासुर भगवान शिव और पार्वती का पुत्र था. एक दैत्य हिरण्याक्ष ने भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्ही की तरह बलवान पुत्र पाने का वरदान माँगा. भगवान शिव ने एक क्षण भी गवाए अपना पुत्र “अन्धक” हिरण्याक्ष को दे दिया. अंधकासुर भगवान शिव का परम भक्त था उसने भगवान शिव की भक्ति कर उनसे से 2000 हाथ, 2000 पांव, 2000 आंखें, 1000 सिरों वाला विकराल स्वरुप प्राप्त किया. लेकिन जैसे ही जैसे हिरण्याक्ष की ताकत बढते चली गई उसके अत्याचार बढते चले गए. भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर दिया. पिता की मृत्यु की खबर सुनते ही अंधकासुर के मन में बदले की भावना जल उठी. वह विष्णु और महादेव को अपना शत्रु मानने लग गया.

अंधकासुर ने अपने बल और पराक्रम से देवलोक पर अपना अधिपत्य जमा लिया. ऐसा कहा जाता हैं राहू और केतु के बाद अंधकासुर एकलौता ऐसा दैत्य था जिसने अमृत का पान किया था. देवलोक पर आधिपत्य करने के बाद अंधकासुर ने कैलाश की और अपना रुख किया. कैलाश में अंधकासुर और महादेव के बीच घोर युद्ध होता हैं. जिसमे शिवजी अंधकासुर का वध करते हैं.

अंधकासुर के वध होने के बाद देवताओं को भी अपने द्वारा किये गए पापों का ज्ञात होता हैं. सभी देवता, भगवान विष्णु और ब्रह्मा, भगवान शिव के पास आते हैं जो कि मेकल पर्वत (अमरकंटक) पर समाधिस्थ थे. शिव अंधकासुर राक्षस का वध कर शांत-सहज समाधि में बैठे थे. अनेकों स्तुतियाँ, वंदना और प्रार्थना करने के बाद भगवान शिव अपनी आँखे खोलते हैं. सभी देवता निवेदन करते हैं “हे भगवन, अनेकों प्रकार के विलास, भोगो और असंख्य दैत्यों के वध से हमारी आत्मा पापी हो चुकी हैं, इसका निवारण कैसे किया जाए. कैसे हमें पुण्य की प्राप्ति होगी”. जिसके बाद भगवान शिव के सिर से पसीने की एक बूंद धरती पर गिरती हैं. कुछ ही क्षणों में वह बूंद तेजोमय कन्या के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं. उस कन्या का नाम नर्मदा (नर्म का अर्थ है- सुख और दा का अर्थ है- देने वाली) रखा गया और अनेकों वरदानों से कृतार्थ किया.

भगवान शिव ने नर्मदा को माघ मास की शुक्ल सप्तमी से नदी के रूप में बहने और लोगों के पापों को हरने का आदेश दिया. नर्मदा के अवतरण की इसी तिथि को नर्मदा जयंती मनाई जाती हैं. शिव से आदेश मिलने के बाद नर्मदा प्रार्थना करते हुए कहती हैं कि “भगवन! मैं कैसे लोगों के पाप दूर का सकती हैं” तब भगवान विष्णु नर्मदा को आशीर्वाद देते हैं.

नर्मदे त्वें माहभागा सर्व पापहरि भव,
त्वदत्सु याः शिलाः सर्वा शिव कल्पा भवन्तु ताः”

अर्थात नर्मदा तुम्हारे अंदर संसार के सभी पापों को हरने की क्षमता होगी. तुम्हारे जल से शिव का अभिषेक किया जायेगा. भगवान शिव ओमकारेश्वर के रूप में सदैव तुम्हारे तट पर विराजमान रहेंगें और उनकी कृपा तुम पर बन रहेगी. जिस प्रकार स्वर्ग से अवतरित होकर गंगा प्रसिद्द हुई थी उसी प्रकार तुम भी जानी जाओगी.

तब नर्मदा ने शिवजी से वर मांगा। जैसे उत्तर में गंगा स्वर्ग से आकर प्रसिद्ध हुई है, उसी प्रकार से दक्षिण गंगा के नाम से प्रसिद्ध होऊं। शिवजी ने नर्मदाजी को अजर-अमर का वरदान और अस्थि-पंजर राखिया शिव रूप में परिवर्तित होने का आशीर्वाद दिया।

इसका प्रमाण ‘मार्कण्डेय ऋषि’ ने दिया, जो कि अजर-अमर हैं। उन्होंने कई कल्प देखे हैं। इसका प्रमाण ‘मार्कण्डेय पुराण’ में है।
नर्मदाजी का तट सुर्भीक्ष माना गया है। पूर्व में भी जब सूखा पड़ा था तब अनेक ऋषियों ने आकर प्रार्थनाएं कीं कि भगवन् ऐसी अवस्था में हमें क्या करना चाहिए और कहां जाना चाहिए ? आप त्रिकालज्ञ हैं तथा दीर्घायु भी हैं। तब मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि कुरुक्षेत्र तथा उत्तरक्षेत्र को त्याग कर दक्षिण गंगा तट पर निवास करें। नर्मदा किनारे अपनी तथा सभी के प्राणों की रक्षा करें।

कथा 2 : राजा हिरण्य तेजा की कहानी

स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार राजा हिरण्य तेजा अपने पितरो का तर्पण करने के लिए धरती के सभी तीर्थों पर गए लेकिन तब भी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी. तब उन्होंने अपने पितरों के पूछा कि आपको कहाँ संतुष्टि मिल पायेगी? पितरो ने बताया हमें माँ नर्मदा के पवित्र जल में तर्पण से मोक्ष मिलेगा।

पितरो के कहे अनुसार नर्मदा के उद्गम के लिए राजा हिरण्य तेजा 14 वर्ष तक भगवान शिव का घोर तप करते हैं. भगवान शिव राजा के तप से प्रसन्न होते हैं हिरण्य तेजा वरदान स्वरुप माँ नर्मदा को धरती पर आने की याचना करते हैं. भगवान शिव ने तथास्तु कहा और अपनी बेटी नर्मदा को ख़ुशी-ख़ुशी मगरमच्छ के आसन पर सवार कर और विंध्यचल पर्वत पर भेजा. राजा ने अपने पितरो का नर्मदा नदी के किनारे तर्पण कर पितरों को मोक्ष प्रदान किया।

कथा 3 : ब्रम्हा जी की कहानी

ऐसा कहा जाता हैं कि संसार की रचना के दौरान ब्रम्हा जी की आँखों से दो बूंद धरती पर आ गिरी. उन्ही दो बूंदों से दो नदियों रेवा और सोन का जन्म हुआ. रेवा नर्मदा का ही एक नाम है. स्कन्दपुराण में भी नर्मदा को रेवा कहा गया हैं. स्कन्दपुराण के छ: खंडो में से एक रेवाखंड भी हैं।

नर्मदा केवल एक नदी नहीं है इसे माँ की तरह पूजा जाता हैं. इस नदी का धार्मिक महत्व भी हैं. ब्रह्माण्ड पुराण में इसे सिद्ध क्षेत्र कहा गया. इसके जल को पाप निवारनी माना गया है. जिसके जल में स्नान करने से जन्मो-जन्मो के पाप मुखत हो जाते हैं. नर्मदा के तट पर लोग अपने पितरों का पिंड दान करते हैं।


नर्मदा नदी के किनारे पर ही भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक ओमकारेश्वर स्थित हैं।


Astrologer Gyanchand Bundiwal. Nagpur । M.8275555557

Mata Narmada Devi
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