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माता सुमित्रा-एक तेजपुंज

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रामचरितमानस या रामायण में सबसे उपेक्षित मगर महत्वपूर्ण किरदार की बात की जाए तो आपके मन में कौन आएगा? ऐसा ही विचार संभवतः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के मन में उठा होगा जिस कारण उन्होंने 1920 के अपने लेख में ” कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता ” इस महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर सबका ध्यान खींचा था।

उनके इस निबंध का ही प्रभाव था कि मैथिलीशरण गुप्तजी ने ” साकेत ” जैसे महाकाव्य की रचना की और समसामयिक साहित्य जगत में उर्मिला की प्रतिष्ठा स्थापित करने की शुरुआत की। इसके बाद फिर अनेकों लेखकों ने इस पर असंख्य लेख व कविताएं लिखी जो अभी तक भी लिखी जा रही है। उर्मिला को अंततः न्याय दिया गया।

उर्मिला के बाद अगर दृष्टि जाए, तो लोग संभवतः भरत का नाम लें, कुछ लक्ष्मण भी कह सकते हैं। तो कौशल्या मां की उदारता और वत्सलता भी लोगों को द्रवित करती है।

मगर इन सबके समक्ष होकर भी, प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर ना भी होते हुए, एक चरित्र उज्जवल तारे सा यदा कदा जगमगाता रहता है और जिस प्रकार गहन अंधकार के क्षणों में ही तारे का उज्जवल प्रकाश हमारी नज़रों के सामने आता है उसी प्रकार परिवार की विपत्ति, बड़ों की सेवा और महल के एकाकीपन से होता हुआ एक नाम हमेशा छूट जाता है…

सुमित्रा मां…


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कौशल्या, भरत और श्रीराम के जीवन पर उन्होंने अपना और अपने दोनों बेटों का पूरा जीवन सहर्ष न्यौछावर कर दिया। तमाम ग्रंथों में मौजूद सुमित्रा मां का यश गाते रज कण यत्र तत्र बिखरे हुए हैं। उनको एकत्र करके हम उस महान चरित्र का एक उज्जवल प्रकाश तो पा ही सकते हैं। कुछ नया लिखना हमेशा जरूरी भी नहीं।

पुत्रेष्ठी यज्ञ में अग्नि द्वारा प्रदत्त हवि के भाग को जब माता कौसल्या और माता कैकेयी के द्वारा सुमित्रा मां गृहण करती है। जिससे उनकी दो संतान लक्ष्मण और शत्रुघ्न होते हैं कहा जाता है कि तब ही उनके मन में ये विचार आता है कि अपनी दोनों संतानों को इन माता और इनके पुत्रों की सेवा में अर्पित कर दूंगी; और ऐसा ही हुआ भी।

व्यथित भरत को दिलासा देने उस समय शत्रुघ्न के सिवा कौन था?

और लक्ष्मण का तो कहना ही क्या और खुद वे, जब श्रीराम वन जाते है तो पुत्र विरह में माता कौशल्या तीन दिन तक जल भी ग्रहण नहीं करती तो उनके सामने तीसरे दिन दूध का कटोरा लेकर प्रार्थना कौन करती हैं। जबकी वियोग में वे भी थी। पुत्र उनका भी वन गया था। मगर वे अपने मन को समझाती हैं। और कौशल्या मां के सामने व्यथित नहीं होती। वरन तरह तरह से उन्हें समझाती है कि भला राम को वन में कौन कष्ट दे सकता है।

वाल्मीकि रामायण में इसका बड़ा सुंदर प्रसंग आया है…

आश्वासयन्ती विविधैश्च वाक्यैः , वाक्योपचारे कुशलाऽनवद्या।
रामस्य तां मातरमेवमुक्त्वा, देवी सुमित्रा विरराम रामा ॥ ३० ॥

श्रीरामचरितमानस के बाद गीतावली गोस्वामी तुलसीदास जी की दूसरी सबसे प्रसिद्ध रचना है। मानस में जहां वो श्रीराम के सभी रूपों का और रामायण के सारे प्रसंगों का सुन्दर वर्णन करते हैं, वहीं गीतावली में वो ऐसा कोई बाध्यता या बंधन नहीं स्वीकारते।

और जहां कहीं भी श्रीराम का सौंदर्य दर्शन उन्हें मिला है उस पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करते हैं इसलिए बाल कांड और अयोध्या काण्ड के अलावा बाकी कांड काफी संक्षिप्त में है और वही प्रसंग आए हैं जहां श्रीराम के मनोहारी रूप का वर्णन हुआ है।

इस कारण से गीतावली में सुमित्रा जी और राम जी के बेहद सुंदर दृश्य बन हमें देखने को मिलते हैं। जैसे एक दृश्य में जब चारों पुत्र पालने में खेल रहे होते हैं, राम लला को दशरथ जी ने अपने अंक में भर लिया है, फिर कौशल्या जी ने लक्ष्मण को अपनी गोद में ले लिया है.. अब सुमित्रा जी यदि चाहती तो अपने पुत्र शत्रुघ्न को अपनी गोद में ले सकती थी मगर..

राम-सिसु गोद महामोद भरे दसरथ, कौसिलाहु ललकि लखनलाल लये हैं
भरत सुमित्रा लये, कैकरयी सत्रुसमन, तन प्रेम-पुलक, मगन मन भये हैं ॥

.. वे अनायास ही स्वभाव वश भरत जी को गोद में उठा लेती हैं.. और कैकयी शत्रुसूदन को अंक में बैठा लेती हैं!

श्रीराम जी के वनवास में भी एक विलक्षणता है जहां भिन्न भिन्न व्यक्ति उनके वन जाने का अलग अलग कारण मानते हैं। कोई मंथरा कहता है कोई कैकयी। वशिष्ठ जी ने इसे विधाता का नियम कहा। भरद्वाज जी ने सरस्वती को कारण बताया जिन्होंने कैकयी मती फेरी। तुलसीदास जी ने कहा कि सरस्वती तो कठपुतली है सूत्रधार तो स्वयं प्रभु राम जी ही है। परन्तु इसी प्रश्न का उत्तर सुमित्रा जी क्या देती है?

तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥

लक्ष्मण इसमें तुम्हारा ही सौभाग्य है। तुम्हारे ही कारण राम वन जा रहे हैं, दूसरा कोई कारण नहीं है। ज्ञातव्य है कि लक्ष्मण जी शेषनाग का अवतार है, धरती उनके शीश पर है और धरती पर पाप का भार इतना बढ़ गया है कि उसे संभालने के लिए ही राम वन जा रहे हैं… कैसी अनूठी दृष्टि!

जहां मां अपना पुत्र नारी को अर्पित करती है सुमित्रा ने उसे नारायण को अर्पित कर दिया। जब वनवास ने जाने के लिए लक्ष्मण सुमित्रा मां से आज्ञा लेने जाते हैं तो उनका संवाद मानस का सर्वश्रेष्ठ संवाद भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे सब सुनकर भी घबराती नहीं अपितु कहती हैं…

बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिये भगवान् ने मुझे माँ के लिये निमित्त बनाया है,

“तात तुम्हारी मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही”

सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया।

अयोध्या कहाँ हैं? अयोध्या वहाँ है जहाँ रामजी हैं, और सुनो लखन

“जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं”

अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है, तुम्हारा जन्म ही रामजी की सेवा के लिये हुआ है। धन्य है ऐसी माँ .. जिनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

तभी तो जब कालिदास रघुवंश लिखते हैं तो तीनों रानियों में सर्वप्रथम सुमित्रा जी को स्थान देते हैं..

तमलभन्त पति पतिदेवताः शिखारिणामिव सागरमापगाः ॥
मगधकोसलकेकयशासिनां दुहितरोऽहितरोपितमार्गणम् ॥ १७॥

अर्थात :-शत्रुओं के ऊपर बाण का संधान करने वाले चक्रवर्ती महाराज दशरथ को मगधराज कन्या सुमित्रा, कोशलराज कन्या भगवती कौशल्या तथा कैकय राजकन्या कैकयी ने उसी प्रकार पति रूप में प्राप्त किया जिस प्रकार पर्वत प्रसूता नदियां समुद्र को प्राप्त कर कृतकृत्य हो जाती है।

सुमित्रा जी तेज की खान है। उनमें तेज का आधिक्य है। अतः उनके दोनों पुत्र तेजपुंज हुए। राम जब वनवास जाते हैं तो सुमित्रा मां के पास खुद ना जाते हुए लक्ष्मण को भेजते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सुमित्रा मां अगर सत्य का पक्ष लेकर खड़ी हो गई तो उनकी बात टालने का साहस किसी में नहीं है।

इसीलिए जैसे कौशल्या के पुत्र को कौशल्येय, कुंती पुत्र को कौंतेय और द्रौपदी पुत्र को द्रौपदेय कहा जाता है उसी प्रकार सुमित्रा के पुत्र सौमित्रेय कहना चाहिए… मगर उन्हें सौमित्रि कहा जाता है।

संस्कृत व्याकरण के सबसे बड़े रचयिता महर्षि पाणिनि कहते हैं कि सुमित्रा का व्यक्तित्व इतना ऊंचा है कि उन्हें स्त्री कहने का साहस मुझमें नहीं। इसलिए उन्होंने स्त्री वाचक प्रत्यय प्रयोग नहीं किया। राम को दाशरथि कहते हैं और लक्ष्मण को सौमित्रि! ऐसी सुमित्रा मां…

कृतवास रामायण में तो सुमित्रा का प्रभु राम के प्रति अटूट विश्वास का और भी सुंदर प्रसंग आया है। जब अयोध्या आने के पश्चात लक्ष्मण सुमित्रा जी से मिले तो घाव का चिन्ह देखकर उन्होंने श्रीराम से पूछा ये चिन्ह कैसा? तो राम रो दिए और पूरी शक्ति लगने और संजीवनी वाली कथा सुनाई। सुनकर सुमित्रा जी ने हंसते हुए कहा कि इतने सब की क्या जरूरत… आप हाथ फेर देते और ये ठीक हो जाता। कैसा अनन्य विश्वास! वहीं कुंती के पास श्रीकृष्ण होते हुए भी वे कर्ण के पास अपने पुत्रों की रक्षा हेतु जाती है… किसका विश्वास ज्यादा बड़ा??

ऐसे ही जब लक्ष्मण के लिए हनुमान संजीवनी लेने जाते हैं तो अयोध्या में भरत और शत्रुघ्न से मिलते हैं। समाचार सुनकर सुमित्रा मां भी आती है मगर देखिए इस अवसर पर, अपने पुत्र वियोग में भी, उनकी पहली टिप्पणी क्या है…

कपिसौं कहति सुभाय अँबके अंबक अँबु भरे हैं ।
रघुनन्दन बिनु बन्धु कुअवसर जधपि धनु दुसरे हैं ।

राम जी कुअवसर पर भाई से बिछड़ गए… हालांकि उनके पास धनु बाण हैं जिसके होते उन्हें किसी और की सहायता की आवश्यकता नहीं। वे अपने आप को धन्य समझती है कि उनके एक पुत्र का जीवन और मृत्यु दोनों राम जी के काम आया और उसी समय दूसरे पुत्र को भी वहां जाने का आदेश देने लगती हैं। ऐसे अवसर पर भी धीरज नहीं खोती।

लक्ष्मण और शत्रुघ्न में जो तेज है वो सुमित्रा जी का ही अंश है। इसीलिए जब मिथिला की सखियां दोनों राजकुमार को देखती हैं तो कैसा अनूठा परिचय देती हैं कि, रामचंद्र कौशल्या सुत है वहीं लक्ष्मण की माता सुमित्रा है।

स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥

एक ओर राम की प्रधानता है तो दूजी ओर सुमित्रा की। सुमित्रा जी शुरू से ही श्रीराम के असली स्वरूप से अवगत थी। और इसके अनेकों उद्धरण गीतावली में बार बार मिलते हैं। ऐसी विद्वान, त्याग की प्रतिमूर्ति सुमित्रा मां को मैं बार बार वंदन करता हूं!

लेख सौजन्य -श्री अभिषेक नागर

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