अमर स्वतंत्रता सेनानी पंडित श्री राम प्रसाद बिस्मिल
सुबह 5 बजे उन्हें फांसी दी जानी थी, सुबह 4 बजे ज़ब गोरखपुर जेल का सिपाही बिस्मिल साहब को जगाने गया तो वह दंड बैठक लगा रहे थे। सिपाही ने हंसते हुए कहा- “दंड पेलने का क्या फायदा बिस्मिल साहब, एक घंटे बाद तुम्हे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।” बिस्मिल बोले- “ज़ब तक जिंदगी है, जीवन के नियम नहीं तोड़ने चाहिए।” उनका उत्तर सुनकर सिपाही नि:शब्द हो गया।
कोई मुझसे पूछे कि भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में से किन्ही 3-4 से आपको मिलने का मौका दिया जाये तो आप किनको चुनेंगे तो मैं बार-बार, हर-बार तिलक, सावरकर, आज़ाद और बिस्मिल चिल्लाऊंगा। इन महामानवों की कहानियां आज भी रोम-रोम को कितना रोमांचित कर देती हैं।
गांधीजी से तुलना करना उचित तो नहीं लेकिन बिना तुलना किये बिस्मिल का कद भी समझ पाना असंभव है। बिस्मिल उस दौर में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू कर रहे थे जब गांधीजी ईश्वर के अवतार कहे जाने लगे थे, बिस्मिल और उनके साथियों को गांधीजी ने ‘हुल्लड़बाज’ घोषित कर दिया था लेकिन बिस्मिल ने सार्वजनिक मंच से कभी गांधीजी की आलोचना नहीं की। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया था जिसमें वो पूरी तरह असफल रहे ,वहीँ दूसरी ओर एक कट्टर आर्यसमाजी होते हुए भी अशफाकुल्ला खान को HRA में शामिल करने पर राजी होना देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता का मिसाल बन गया था। कहते हैं एक बार अशफाकुल्लाह के मुंह से बेहोशी की हालत में बस राम-राम ही निकल रहा था,इतना अगाध-प्रेम!!
1920 से 1930 तक जब गांधीजी को समझ नहीं आ रहा था कि आंदोलन को कहाँ ले जाना है, उस वक्त क्रांति की मशाल जीवित रखे था ये ‘हुल्लड़बाज‘ ।
ये बात सच है कि बिस्मिल बहुत बड़े ब्रांड-नेम नहीं बन पाए क्योंकि राजनीति के शीर्ष पर उन्ही घाघों का कब्ज़ा रहा जो इन्हे हुल्लड़बाज से ज्यादा मानने को तैयार नहीं थे। लेकिन ये भी सच है कि भारत का मन कहे जाने वाले तमाम लोक-गीतों में अगर किसी को जगह मिली तो वो थे बिस्मिल,वो थे आज़ाद,वो थे भगत। वन्दे-मातरम के बाद कोई सबसे प्रसिद्ध क्रांति गीत बना तो वो था बिस्मिल द्वारा स्वर दिया गया – “सरफ़रोशी की तमन्ना”।
रोज सुबह स्कूल में बच्चे कुछ गुनगुनाते हैं तो वो है बिस्मिल द्वारा स्वरित “वो शक्ति हमें दो दयानिधि “ और ये उपलब्धियां कोई ब्रांड बनकर भारी-भरकम किताबों में जगह पाकर लाइब्रेरी में सड़ने से कहीं बड़ी हैं ।
लेख सौजन्य -श्री इन्दर मोहन सिंह
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