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सनातन धर्म संस्कृति – गौ महिमा

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गौ-महिमा-प्रसंग-१


एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा – नाथ ! आपने बताया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति भगवान् के मुख से हुई है;
फिर गौओं की उससे तुलना कैसे हो सकती है ?
विधाता ! इस विषय को लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।


ब्रह्माजी ने कहा – बेटा ! पहले भगवान् के मुख से महान् तेजोमय पुञ्ज प्रकट हुआ। उस तेज से सर्व प्रथम वेद की उत्पत्ति हुई।
तत्पश्चात् क्रमशः अग्नि, गौ और ब्राह्मण – ये पृथक्-पृथक् उत्पन्न हुए।

मैंने सम्पूर्ण लोकों और भुवनों की रक्षा के लिये पूर्वकाल में एक वेद से चारों वेदों का विस्तार किया। अग्नि और ब्राह्मण
देवताओं के लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य (घी) गौओं से उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों ही इस जगत् के जन्मदाता हैं।
यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्व में नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत् को धारण किये रहते हैं,
जिससे स्वभावत: इसकी स्थिति बनी रहती है।

ब्राह्मण, देवता तथा असुरों को भी गौ की पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्यों में उदार तथा वास्तव में समस्त गुणों की खान है।
वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। सब प्राणियों पर उसकी दया बनी रहती है।


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प्राचीन काल में सबके पोषण के लिये मैंने गौ की सृष्टि की थी। गौओं की प्रत्येक वस्तु पावन है। और समस्त संसार को पवित्र कर देती है। गौ का मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी – इन पञ्चगव्यों का पान कर लेने पर शरीर के भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौ के दूध, दही और घी खाया करते हैं।

गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्यों में श्रेष्ठ, शुभ और प्रिय हैं। जिसको गाय का दूध, दही और घी खाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मल के समान है।

अन्न आदि पाँच रात्रि तक,
दूध सात रात्रि तक,
दही दस रात्रि तक और
घी एक मास तक
शरीर में अपना प्रभाव रखती है।

जो लगातार एक मास तक बिना गव्य का भोजन करता है, उस मनुष्य के भोजन में प्रेतों को भाग मिलता है, इसलिये प्रत्येक युग में सब कार्यों के लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाली है।

जो गौ की एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर अक्षय स्वर्ग का सुख भोगता है।
जैसे देवताओं के आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं,जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार
गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है।

जो मनुष्य प्रात:काल उठकर गौ और उसके घी का स्पर्श करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
गौएँ दूध और घी प्रदान करने वाली हैं। वे घृत की उत्पत्ति-स्थान और घी की उत्पत्ति में कारण हैं। वे घी की नदियाँ हैं, उनमें घी की भँवरें उठती हैं।

ऐसी गौएँ सदा मेरे घर पर मौजूद रहें। घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मन में स्थित हो। ‘गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें।
मेरे सब अंगों को गौओं का स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओं के बीच में निवास करूँ।’

इस मन्त्र को प्रतिदिन सन्ध्या और सबेरे के समय शुद्ध भाव से आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करने से उसके सब पापों का क्षय हो जाता है । तथा वह स्वर्गलोक में पूजित होता है।

जैसे गौ आदरणीय है, वैसे ही ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं । वैसे भगवान् विष्णु। जैसे भगवान् श्री विष्णु हैं, वैसी ही श्री गङ्गाजी भी हैं।
ये सभी धर्म के साक्षात् स्वरूप माने गये हैं ।
गौएँ मनुष्यों की बन्धु हैं और मनुष्य गौओं के बन्धु हैं। जिस घर में गौ नहीं है, वह बन्धु रहित गृह है।

छहों अङ्गों, पदों और क्रमों सहित सम्पूर्ण वेद गौओं के मुख में निवास करते हैं।

उनके सींगों में भगवान् श्री शंकर और श्री विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ।
गौओं के उदर में कार्तिकेय,
मस्तक में ब्रह्मा,
ललाट में महादेवजी,
सीङ्गों के अग्रभाग में इन्द्र,
दोनों कानों में अश्विवनीकुमार,
नेत्रों में चन्द्रमा और सूर्य,
दाँतों में गरुड़,
जिह्वा में सरस्वती देवी,
अपान ( गुदा ) – में सम्पूर्ण तीर्थ,
मूत्रस्थान में गङ्गाजी,
रोमकूपों में ऋषि,
मुख और पृष्ठभाग में यमराज,
दक्षिण पार्श्व में वरुण और कुबेर,
वाम पाश्र्व में तेजस्वी और महाबली यक्ष,
मुख के भीतर गन्धर्व,
नासिका के अग्रभाग में सर्प,
खुरों के पिछले भाग में अप्सराएँ,
गोबर में लक्ष्मी,
गोमूत्र में पार्वती,
चरणों के अग्रभाग में आकाशचारी देवता,
रँभाने की आवाज में प्रजापति और
थनों में भरे हुए चारों समुद्र निवास करते हैं।

जो प्रतिदिन स्नान करके गौ का स्पर्श करता है, वह मनुष्य सब प्रकार के स्थूल पापों से भी मुक्त हो जाता है।
जो गौओं के खुर से उड़ी हुई धूल को सिर पर धारण करता है, वह मानों तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है और सब पापों से छुटकारा पा जाता है ।

【पद्मपुराण】 साभार : फेसबुक सनातन धर्म संस्कृति – गौ महिमा
भारतीय देशी गौ माता की जय ।

प्रथम रोटी गुण और घास की अधिकारी- भारतीय देशी गौ माता ।


गौ-महिमा-प्रसंग-२


गाय की उत्पत्ति के बिषय में एक बार महर्षि नारद ने भगवन नारायण से प्रश्न किया तो भगवान नारायण ने बताया की हे नारद ! गौमाता का प्राकट्य भगवान श्रीकृष्ण के वाम भाग से हुआ है ! उन्होंने बताया कि एक समय की बात है । भगवान श्रीकृष्ण राधा गोपियों से घिरे हुए पुण्य बृन्दाबन में गए, और थके होने से वे एकान्त में बैठ गए।

उसी समय उनके मन में दूध पीने की इच्छा जागृत हुई, तो उन्होंने अपने बाम भाग से लीला पूर्वक ”सुरभि गौ ” को प्रकट किया । उस गौ के साथ बछड़ा भी था और सुरभि के थनो में दूध भरा था! उसके बछड़े का नाम ”मनोरथ ” था ! उस सुरभि गौ को सामने देख कर श्रीदामा जी ने एक नूतन पात्र पर उसका दूध दूहा ! वह दूध जन्म और मृत्यु को दूर करने वाला एक दूसरा अमृत ही था ! स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उस स्वादिस्ट दूध को पीया !

भगवान नारायण ने आगे देवर्षि नारद जी को बताया कि श्री दामा जी के हाथ से वह दूध का पात्र गिर कर फूट गया । और दूध धरती पर फ़ैल गया! गिरते ही यह दूध सरोवर के रूप में परणित हो गया!

जो गोलोक में ”छीर सरोवर ” के नाम से प्रसिद्ध है ! भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से उसी समय अकस्मात असंख्य कामधेनु गौएँ प्रकट हो गई ! जितनी वो गायें थी । उतने ही गोपी भी उस ”सुरभि ” गाय के रोमकूप से निकल आये ! फिर उन गउवों से बहुत सी सन्तानें हुईँ ! इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी से प्रकट सुरभि देवी से गउवों का प्राकट्य कहा जाता है ! उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने देवी ”सुरभि ” की पूजा की और इस प्रकार त्रिलोकी में उस देवी सुरभि की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया !

पुराणो में गाय की पूजा से प्राप्त प्रतिफल का आख्यान है –

  1. जो गौशाला में स्थित गायों की प्रदक्षिणा करता है , उसने मानों सम्पूर्ण चराचर विश्व की प्रदक्षिणा कर ली !
  2. गायों की सींग का जल परम पवित्र है, वह सम्पूर्ण पापों का शमन करता है ,
  3. साथ ही गायों के शरीर को खुजलाना -शहलाना भी सभी दोष पापों का शमन करता है !
  4. गायों को ग्राश देने वाला स्वर्ग लोक में पूर्ण प्रतिष्ठा पता है !
  5. जो ब्यक्ति लगातार एक वर्ष तक भोजन करने से पूर्व गाय को ग्राश खिलता है, वह ज्ञानी बन जाता है ।
  6. गउवों के लिए जो धूप और ठण्ड से बचाने वाले गौशाला का निर्माण करता है ,वह अपने सात कुल का उद्धार कर लेता है ।
गौ दान ब्राह्मण को करना चाहिए

अथर्ववेद / दशमं काण्डं / पञ्चमोऽनुवाक: / सूक्तं – १० / ऋचा संख्या – ३३

ब्राह्मणेभ्यो वशां दत्वा सर्वांल्लोकान्त्समश्नुते ।
ऋतं ह्यास्यामार्पितमपि ब्रह्माथो तप : ।।

( ब्राह्मणेभ्यो वशां दत्वा ) ब्राह्मणों को वशा ( वशां – भारतीय देशी गौ माता का गव्य और हव्य ) का दान करने से ( सर्वांल्लोकान्त्समश्नुते ) सब लोकों को यह प्राणी ठीक ठीक पाता है ।
( हि अस्याम् ऋतं अपि ) क्योंकि इस अर्थात् वशां अर्थात् गौ में (ऋतं अपि ब्रह्म अथो तप: आर्पितं ) सत्य व्यवहार वेदज्ञान और तप ऐश्वर्य स्थापित है ।
जो लोग ब्राह्मणों को गौ का दान करते हैं । वे सब लोकों को प्राप्त करते हैं । क्योंकि इस वशा गौ में ऋत , ब्रह्म , तप रहते हैं ।

अथर्ववेद / दशमं काण्डं / पञ्चमोऽनुवाक: / सूक्तं – १० / ऋचा संख्या – १८

वशा माता राजन्यस्य वशा माता स्वधे तव ।
वशाया यज्ञ आयुधं ततश्चित्तमजायत ।।

वशा ( गौमाता ) क्षत्रियों की माता हैं । हे ( स्वधे ! ) आत्मिक शक्ति वाले ! तेरी भी माता यह गौ है ।
यज्ञ मानो गौमाता का अस्त्र है । इसी से दुनिया में चेतना हुयी है ।

Post courtesy: Mantra Tantra Yantra Vigyan Gurudev Dr. Narayan Dutt Shrimali Ji

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