श्री कृष्ण का व्रज से लौटकर मथुरा में आगमन
??श्री गर्ग संहिता; मथुराखण्ड : अध्याय-23??
*श्री कृष्ण का व्रज से लौटकर मथुरा में आगमन*
श्रीनारदजी कहते हैं:- राजन् ! साक्षात भगवान श्रीकृष्ण व्रज में कई दिनों तक सबको अपना दर्शन दे मथुरा जाने को उद्यत हुए।
नौ नन्दों, नौ उपनन्दों, छः वृषभानुओं तथा वृषभानुवर और व्रजेश्रर नन्दराज से मिलकर कलावती, यशोदा, अन्यान्य गोपियों तथा गौओं के गणों से भी भेंट करके, आश्वासन और ज्ञान दे, सबसे विदा लेकर माधव चंचल अश्वों से जुते हुए अपने दिव्य रथ पर आरूढ़ हो मथुरा जाने की इच्छा से नन्दगाँव से बाहर निकले।
Dibhu.com-Divya Bhuvan is committed for quality content on Hindutva and Divya Bhumi Bharat. If you like our efforts please continue visiting and supportting us more often.😀
उनके पीछे-पीछे समस्त मोहित व्रजवासी बहुत दूर तक गये, वे माधव-के अत्यन्त कष्टमय विरह को नहीं सह सके।
जिन्हें भूमण्डल पर कभी एक बार भी श्रीविष्णु का दर्शन हुआ हो, उन्हें भी उनका विरह दुस्सह हो जाता हैं, फिर जिन्हें प्रतिदिन उनका दर्शन होता रहा हो, उनको उनके विरह से कितना दुःख होता होगा, इसका वर्णन कैसे किया जा सकता है।
नरेश्वर, अपलक नेत्रों से श्रीधर के मुँह की ओर देखते हुए समस्त व्रजवासी गोप स्नेह-सम्बन्ध के कारण प्रेमविह्वल हो उनसे बोले।
गोपों ने कहा:- “श्रीकृष्ण, तुम फिर जल्दी आना और हम समस्त व्रजवासियों की रक्षा करना, जैसे पूर्वकाल में तुमने देवताओं को अमृत प्रदान किया था, उसी प्रकार अब हमें अपने दर्शन की सुधा का पान कराते रहना।
देव, केवल तुम्हीं सदा यशोदा के आनन्ददायक हो, तुम्हीं श्रीनन्दराज को आनन्द प्रदान करने वाले हो और तुम्हीं व्रजवासियों के जीवन हो।
प्रभो, तुम्हीं इस व्रज के धन हो, गोपकुल के दीपक हो और महापुरुषों के भी मन को मोहने वाले हो।
जैसे निदाघ से जले हुए प्राणी को शीतल जल प्राप्त हो जाय, सर्दी से पीड़ित मनुष्य को जैसे आग मिल जाय, ज्वर से आर्त पुरुष को उपयुक्त औषध प्राप्त हो जाय और मरे हुए मानव को भी जैसे मंगलमय अमृत मिल जाय, तो वे जी उठते हैं, उसी प्रकार समस्त व्रज के लिये तुम्हारा दर्शन ही जीवन है, इसलिये तुम यहीं निवास करो, इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ।
हमारे इस जन्म अथवा पूर्वजन्म में जो कुछ भी पुण्य हुआ हो, उसके फलस्वरूप हमारा चित्त सदा तुम्हारे चरणार विन्दों में लगा रहे।
जिनका चित्त तुम्हारे चरण-कमल में लगा हुआ हैं, वे भक्तजन तुम्हें सदा ही प्रिय हैं।
तुम प्रकृति से परे निर्गुण हो, तथपि अपने भक्तों के लिये सगुण हो जाते हो, तुम्हें अपने भक्त से अधिक प्रिय शिव, ब्रह्मा और लक्ष्मी भी नहीं हैं।
जो ब्रह्मपद आदिकी अभिलाषा को छोड़कर तुझ भगवान का निष्काम भाव से भजन करते हैं वे युक्त चित्त पुरुष ही शान्त एवं निरपेक्ष सुख का अनुभव करते हैं।”
श्रीनारद जी कहते हैं:- राजन् यों कहकर वे सब गोप प्रेम से विह्वल हो श्रीकृष्ण के देखते-देखते आनन्द के आँसू बहाते हुए रोने लगे।
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण के मुख पर भी अश्रु की धारा बह चली, वे प्रसन्नचेता परमेश्वर उन विरह-विहवल गोपों से बोले।
श्रीभगवान ने कहा:- “व्रजवासियों, तुम सब मेरे प्राण हो और मेरे परम प्रिय हो, मेरा हृदय तुम लोगों में ही स्थित है, केवल शरीर अन्यत्र दिखायी देता है।
मैं प्रतिमास तुम सबको देखने और दर्शन देने के लिये आऊँगा यह वचन देता हूँ।
मन से मैं दूर नहीं हूँ, मन हीं सबका कारण है।
हे गोपागण, यादवों से युद्ध करने के लिये जरासंध आया है, अतः यदुवंशियों की सहायता के लिये मैं जाता हूँ, तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये।”
श्रीनारदजी कहते है:- राजन्, इस प्रकार उन गोपों बार-बार आश्वासन दे, फिर लौटकर यशोदा सहित नन्दराज को दूसरे रथ पर बिठाया और श्रीदामा आदि सखाओं को साथ ले, उद्धव सहित रथ पर आरूढ़ हो, वे सर्वकारण कारण भगवान मथुरा को गये।
वीर, जब तक रथ, उसमें जुते हुए सौ वेगशाली घोडे़ और फहराती पताका से युक्त तिरंगा ध्वज तथा उड़ती हुई धूल दिखायी देती रही, तब तक अन्य व्रजवासी वहीं खडे़ रहे फिर वे अपने घर को लौट आये।
श्रीकृष्णचन्द्र का यह परम उत्तम विचित्र चरित्र मनुष्यों के महान पापों को हर लेने वाला है, जो भक्तप्रवर पृथ्वी पर इस चरित्र को सुनता है, वह उत्तमोत्तम गोलोकधाम में जाता है।
इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीमथुरा खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में व्रजयात्रा के प्रसंग में ‘श्रीकृष्ण का आगमन’ नामक तेइसवाँ अध्याय पूरा।
श्रीशुक उवाच
भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्ल मल्लिकाः ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥