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सिद्ध संत वामा खेपा

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सिद्ध संत वामा खेपा

संत बामाखेपा /वामा क्षेपा (1837-1911) जिन्हे लोग विक्षिप्त संत के रूप में भी जाना जाता है। वामा शब्द वामपंथ की पूजा पद्धति को इंगित करता है और क्षेपा शब्द इंगित करता है विक्षिप्त/उन्माद की अवस्था को। संत का बचपन का नाम वामाचरण चट्टोपाध्याय था अतः वामा क्षेपा उन्ही के सिद्ध अवस्था के प्राप्त हो जाने के बाद उनकी उन्माद को इंगित करता है। ये महदेवी तारा के महान भक्त थे और स्वयं को उनका पुत्र मानते थे। यह एक अन्य प्रसिद्ध बंगाली संत रामकृष्ण के समकालीन थे।वामाचरण ने छोटी उम्र में ही अपना घर छोड़ दिया और पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के प्रसिद्द तारापीठ मंदिर के कैलाशपति बाबा नामक संत के संरक्षण में आ गए, जो तारापीठ में ही रहते थे।

संत बामाखेपा, देवी तारा की मदिर में ही उपासना करते थे और निकट श्मशान में ही अपनी आध्यात्मिक साधनायें करते थे। संत बामाखेपा ने अपना पूरा जीवन तारा मां की पूजा के लिए समर्पित कर दिया। उनका आश्रम द्वारका नदी के किनारे और तारा मंदिर के पास स्थित है । तारापीठ मंदिर पश्चिम बंगाल राज्य के बीरभूम जिले के रामपुरहाट तहसील के चांदीपुर गाँव में स्थित है। यह तांत्रिक मंदिर माँ तारा महा देवी को समर्पित है, इसके पास में ही श्मशान भी है जहाँ संत बामाखेपा अपनी तांत्रिक साधनाएं भी करते थे।वाम मार्गी तंत्र साधना में यह पीठ एक प्रमुख स्थान रखता है।

 
जब बालक वामाचरण घर से भागकर तारापीठ में बाबा कैलाशपति के पास आये तो  काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा संपन्न  हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी।
 
शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था।
 
रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
 

उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
 

एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इच्छा थी कि उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।

परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
 

उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?

राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।

श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।

शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे।
 
अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।

 

वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी।

रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।

तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा,
“रानी  मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है।”
 
तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है।
 
माँ तारा ने कहा , ” मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बहार फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है।”
 
इसपर रानी बोली,” माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया”।
 
इस पर माँ तारा बोली, यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है।यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी।”
 
ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई।तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी। 

इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।

 

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