विद्या और अविद्या किसे कहते हैं?
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥
इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥ एक अविद्या दुष्ट दोषयुक्त है और अत्यंत दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है| संस्कृत में अविद्या का यौगिक अर्थ है विद्या से भिन्न ज्ञान जो यथार्थ ज्ञान नहीं है।
विद्या एवं अविद्या में भेद बहुत ही हल्का होता है ,बल्कि वास्तव में तो लोग अविद्या की गठरी को ही, विद्या समझ कर उसे उपने सिर पर लादे फिरते है, ऋषि-मुनियों ने हमेशा ही विद्या के धोखे में अविद्यासे सचेत रहने के लिये लगभग सभी शास्त्रों में अवगत कराया है, किन्तु मनुष्य ने अपने मन को स्वतन्त्र न रख कर, माया के हाथो गिरवी रखा हुआ है।
परिणाम सामने है कि वह विद्या के भ्रम में अविद्या की गठरी को ढो रहा है, उसके बोझ तले दबा जा रहा है, किन्तु विद्या समझकर अपने मन को तुष्टि प्रदान करता रहता है, मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो, ज्ञानी कहलाने पर भी अज्ञानी है, दुनिया के सारे शास्त्र केवल मनुष्य के लिए ही बने है और इसके बाद भी ज्ञान की धारा का प्रवाह अवरुद्ध दिखाई पड़ता है।
इसका ये अर्थ हुआ कि जिसे हम विद्या समझ रहे है वास्तव में वह तो केवल मात्र सूचना एकत्र करने का जरिया है, इससे विद्या का सीधा कोई सम्बन्ध साबित नहीं होता है, सभी शास्त्रों में एक बात ऊभर कर सामने आती है कि;
- शरीर स्थूल है और पाँच तत्वों से मिलकर बना हुआ है,
- इन्द्रियाँ शरीर से शूक्ष्म है और शक्तिवान है, मन इन्द्रियों से सूक्ष्म एवं बलवान है।
- प्राण (परा-शक्ति,चेतना) मन से सूक्ष्म और बलवान है,
- प्राण से सूक्ष्म एवं बलवान स्वयं आत्मा(परब्रह्म, परमेश्वर का प्रतिनिधि) है, शरीर की चेतना शक्ति प्राण है और यही इस शारीर का संचालक भी है |
भगवान् श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट करते है- शरीर रथ है ,इन्द्रियाँ अश्व ,मन सारथि और प्राण रथी है, आत्मा लक्ष्य है प्राण का और प्राण का स्वभाव है अध्यात्म यानि आत्मा की अधीनता या आत्मा के साथ मेल।
जिसने अपना प्राण आत्मा की और उन्मुख कर लिया है वही युक्त अर्थात जुड़ा हुआ है|आत्म संयुक्त प्राणवान व्यक्ति को ही योगी कहा जाता है|
श्री कृष्ण अर्जुन को बार बार “तू योगी बन कहते है, इसका अर्थ हुआ कि यदि किसी जीव को अपने लक्ष्य आत्म-मिलन तक पहुंचना है, तो उसे आत्मोन्मुख होना पड़ेगा।
किन्तु शरीर रूपी रथ के अश्व (इन्द्रियाँ) सारथि (मन) को अपनी और उन्मुख कर लेते है, तथा सारथि (मन) जिसे अपने रथी (प्राण) के अनुसार रथ को हाँकना चाहिये, वह उल्टा अश्वों एवम् स्वयं अपनी मर्जी से रथ को लक्ष्य (अध्यात्म) की और ले जाने के बजाय, प्रकृति यानी संसार की ओर मोड़ देता है।
अब यह रथी ( प्राण) की क्षमता ,सामर्थ्य पर निर्भर है कि वह अपने सारथि (मन) को कितना नियंत्रित कर पाता है, प्राण जिसकी शक्ति कम होने पर, प्राण मन पर नियंत्रण खो देता है, यानि प्राण को मन एवं इन्द्रियों के अधीन कर दे, यानि प्रकृति (माया) में लगा दे ऐसी सभी कर्म,उपकर्म, जानकारीयाँ, सूचनायें केवल अविद्या है।
और प्राण को मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण की शक्ति देकर क्षमता वान बना कर मंजिल(अध्यात्म) की ओर उन्मुख कर सकें केवल वही विधा है, अब यह विचारनीय प्रश्न है कि, प्राण को शक्ति ,सामर्थ्य और क्षमता किस उपकर्म से मिल सकती है, मन किस उपकर्म से इतना बलवान बन सकता है कि वह आसानी से अपने मन रूपी सारथि पर अपना शासन कायम रख सके।
और वह केवल मात्र एक ही उपाय, एक ही कर्म या उपकर्म है, और वह है- ब्रह्म का नाम-जप, प्रभु का स्मरण|
मात्र नाम-जप ही प्राण को इतना शक्तिवान बना सकता है, कि वह प्राण (चेतना) को मन सहित इन्द्रियों के पाश जिसे माया कहा जाता है, माया से आसानी से मुक्ति पाकर अपनी मंजिल (आत्म-मिलन) की ओर अपने शरीर रूपी रथ पर चढ़कर पहुँच सकता है।
अतः अब स्वयं आकलन कर ले की हम किसे विद्या रूपी अमृत का घडा समझ कर सिर पर लादे फिर रहे है, दरअसल वह अविद्या रूपी ज्ञान की आभास युक्त सूचनाओं की गठरी के बोझ के अतिरिक्त कुछ नहीं है और इसका व्यवहारिक पक्ष भी अति गौण है।
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