सुनों, मैं मणिकर्णिका हूं। समस्त मानव जाति को तारने वाली। मोक्षद्वार की पहली सीढ़ी हूं मैं। बिना किसी राग द्वेष के सबके पार्थिव देह को भस्मीभूत करने वाली। मैं वो स्थान हूं जहां आने के बाद सब बराबर हो जाते हैं। न कोई ऊंच है और न नीच। यहां तुम्हारे ब्राह्मण या क्षत्रीय होने का भी कोई मतलब नहीं। देखो, जिस जगह पर अभी ये किसी डोम का पार्थिव देह जल रहा है ना ठीक इसी जगह पर थोड़ी देर बाद किसी ब्राह्मण की चिता सजेगी। वही कर्मकांड होंगे जो इस डोम के लिए हुए। ब्राह्मण बेचारा अपने जीते जी छुआछूत मानता रहा लेकिन विडम्बना देखो कि मेरे आंगन में उसे वही दो गज जमीन हासिल हुई जिस पर एक ऐसा शख्स जल रहा है जिसे वह जीवन भर अस्पृश्य मानता रहा। मेरे कहने के अर्थ को समझो। जीवन के प्रति कोई भ्रम न पालो। सब मिथ्या है। सत्य यदि कुछ है तो टिकटी में बंधा मेरी सीढ़ियों पर पड़ा यह शव है जो अपने जलने की बाट जोह रहा है। बड़े बड़े रजवाड़ों के राजे महाराजे अग्नि पाकर यहां गंगू तेली के साथ जलते हैं। यही प्रारब्ध है। यही नियति है। और यही है इस जिस्म का आखिरी हश्र जिस पर आदम जात को बहुत नाज़ है।
मेरे यहां आने वाला कोई भी हो, मेरे लिए वह मात्र एक शव है। वो शख्स जिंदा रहते क्या था इससे मेरा कोई लेना देना नहीं रहता। लेकिन रूह के परवाज करते ही उसके मुर्दे का आखिरी ठिकाना मेरी जमीन ही है। इस सृष्टि के रचना काल से ही मैं यहां कायम हूं। मेरे हिस्से में जो काम मुझे सौंपा गया वो था निरंतर जलते रहना। सिर्फ जलते रहना। इस धरा पर आये हर देह से प्राण के निकलते ही उसे पंचतत्व में विलीन कर देना। और मैं इस काम को अर्वाचीन काल से सतत करती चली आ रही हूं। महादेव इस बात के साक्षी हैं। और मैं साक्षी हूं उनकी। वो यहां एक पैर पर अनवरत खड़े हैं।
यहां शव बन कर आने वाले हर शख्स का मोक्षदाता शिव है वो। काशी में मेरे वजूद के कायम होने, मेरे आंगन में घाट के बनने और उसके जीर्णोध्दार की एक अलग दास्तां है जिसे मैं तुम्हें फिर कभी सुनाऊंगी। लेकिन आज मैं तुम्हें वो कुछ बताने जा रही हूं जिसके बारे में कम लोग जानते हैं। रवायत तो पुरानी है लेकिन देस दुनिया के लोग इसके पीछे की असल कहानी या वाजिब वजहों को नहीं जानते। इस रवायत को आज के लोग तमाशा मानते हैं लेकिन उसके पीछे के रहस्य को अज्ञानता वश बूझ नहीं पाते। मेरी चौहद्दी में दो चीजें सदियों से होती चली आ रही हैं। एक है नगर वधुओं का नाच और दूसरे है चिता भस्म की होली। तुम्हे शायद यह जानकर हैरत हो कि मैं मणिकर्णिका हर साल इन दोनों ही आयोजनों की बेसब्री से प्रतीक्षा करती हूं। तुम जानना नहीं चाहोगे कि ऐसा क्यों है ?
देखो ये जो मेरी जगह है ना वो मृत्यु को मुकाम देने का है। जरा तुम सोचो कि जहां चारों तरफ मुर्दे ही मुर्दे हों, धधकती चिताएं हों, जिंदा नहीं सिर्फ मरे हुए लोगों की बातें हों, वहां अगर कोई लमहे भर के लिए रस बिखेरने चला आए तो वो जिंदगी को कितना बड़ा पोषक होगा। वो नगर वधुएं जिन्हें समाज कभी स्वीकार नहीं करता। वो देव कार्य की एक परम्परा को निभाने के लिए दुनिया भर से यहां चली आती हैं। दूसरे आयोजन में होते हैं वो कापालिक जो समाज से कभी घुलते मिलते ही नहीं। वो तांत्रिक और अघोरी जिन्हें देखने की लालसा तो हर मन में रहती है लेकिन उनसे रूबरू होने का हौसला किसी के पास नहीं होता। ये कापालिक, तांत्रिक और अघोरी अपने चेले चपाटे ही नहीं तमाम डाकिनी शाकिनी और भैरवियों के साथ यहां आते हैं। एक राज की बात बताऊं इन दोनों ही आयोजनों में स्वयं अघोरेश्वर खुल कर शिरकत करते हैं।
मेरा यकीन मानना मैं सच कह रही हूं। एक रात मैंने सदाशिव आशुतोष को यहां बिलख कर रोते हुए देखा था। चैत्र नवरात्र के सप्तमी की रात थी वो। पहले तो मुझे लगा कि दयानिधि यहां आहुति के रूप में आए किसी शव को देख कर आंसू बहा रहे हैं। लेकिन उनके रूदन की वजह तो कुछ और थी। विश्वास करो मेरा। मैंने साहस कर अस्थिमाली विरूपाक्ष की पीठ पर हाथ क्या रखा वो भोले भंडारी एकदम से बह गये। सदाशिव ने बताया कि उन्हें आज सती की याद आ गयी है। उन्हें अपने तांडव नृत्य का स्मरण हो रहा है। सदाशिव बोलते चले जा रहे थे। वो बोल क्या रहे थे वस्तुतः इश्क के मायने समझा रहे थे। कह रहे थे कि सती सिर्फ ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी ही नहीं हैं। वो निश्चल प्रेम की प्रतीक भी हैं। उन्हें ठीक इसी स्थान पर गंगा में सती के कानों के कुंडल की मणि गिरने का वाकया याद आ रहा था।
चलो, आज मैं तुम्हें सुनाती हूं चिता भस्म के होली की गाथा। कल रंगभरी एकादशी थी। बाबा माता पार्वती को गौन कर लाये थे। आज उसका अगला दिन है। सुनों, ये जो नगरी है ना जिसका नाम काशी है वो बहुत अजब है। इसीलिए गजब है यहां की परम्परा, संस्कृति, तौर तरीका और आचार व्यवहार। राग विराग से भरी है यह नगरी। अजब है। अलबेली है। अनोखी है। महाशिवरात्रि पर कपर्दी महादेव ने गौरी संग ब्याह तो रचा लिया लेकिन गौना नहीं ले गये। उनका गौना ठहरा होली के त्योहार के पहले रंगभरी एकादशी के दिन। उस दिन अघोरेश्वर रूद्र भवानी को अपने ससुराल से विदा कर ले तो आये लेकिन वो वादे के मुताबिक अपने गणों के साथ होली खेल नहीं पाये। महादेव को कैलाश भी पहुंचना था। काशी से रवानगी के ऐन पहले अघोरेश्वर को पता चला कि उनके पंथियों ने मुंह फुला लिया है। तमाम अघोरी, कापालिक, तांत्रिक, डाकिनी, शाकिनी और भैरवियों को दुखी देख बम भोले का दिल भर आया। उन्होंने कहा कि रंगभरी एकादशी के अगले दिन मणिकर्णिका पर मैं स्वयं तुम सबके साथ होली खेलूंगा लेकिन वहां होली रंग से नहीं चिता भस्म से खेली जाएगी। तुम सब जितना चाहे वहां हुड़दंग मचा लेना।
उसके बाद से यह रवायत बन गयी है कि शिव स्वरूप बाबा मसान नाथ की पूजा के बाद मेरे आंगन में चिता भस्म की होली खेली जाती है। इसमें शामिल होने के लिए दुनिया भर के कापालिक और तांत्रिक अपने चेले चपाटियों के साथ यहां आते हैं। उस दिन की रंगत देखने लायक होती है। पूरे माहौल में बिखरा चिता भस्म एक अलग तरह का मंजर पेश करता है। अघोरियों की मंडली का रास बहुत ही मनभावन होता है। उनके साथ झूमते मस्त मलंग उमापति महादेव भी एक अलग अंदाज में रहते हैं। घंटे घड़ियाल का कलरव, डमरू और नगाड़े का निनाद और हर हर महादेव का शोर। ऐसे लगता है जैसे आप इस धरा पर हों ही नहीं।
सुनों मैं फिर कह रही हूं कि यह सब यहां इसलिए है क्योंकि यह भूमि मणिकर्णिका की है। मेरी सरजमीं है यह भूमि। यह पवित्र इसलिए है क्योंकि सदाशिव तारकेश्वर मेरे साथ यहां काबिज हैं। यहां वो स्वयं वो सारी लीला करते हैं जो उनके गणों को और उनके भक्तों को प्रिय है। क्योंकि यह शव क्षेत्र है और वो जानते हैं कि इस धरा का यह सबसे अहम शिव क्षेत्र भी है। चलो अब हम तुम भी यहां यह गाते हुए रास करें…
होली खेले मसाने में
होली खेले मसाने में
काशी में खेले
घाट में खेले
होली खेले मसाने में
तन में भस्म लगाए शंकर
वेश बड़ा अभंग है
माथे पर चंद्रमा विराजे
जाता में सोहे गंगा है
खोल दिया है नयन तीसरा
होली खेले मसाने में
होली खेले मसाने में…
Post courtesy From the FB wall of : Kashi Rahasya
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