कर्ण पूर्वजन्म में दम्भोद्भव नाम का राक्षस था। उसने तपस्या के द्वारा भगवन सूर्य को प्रसन्न करके १००० अभेद कवच कुण्डल प्राप्त कर लिए। साथ ही में यह वरदान की मुझे इस कवच को वही भेद सके जिसने १००० वर्ष तक तपस्या की हो और कवच तोड़ते ही वह स्वयं भी मर जाए।
इस प्रकार उसक नाम सहस्र कवच पड़ गया। वरदान पाकर उसने नाना प्रकार के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिए। उसने भयंकर दुष्कर्म किये और बहुत पाप राशि इकठ्ठा कर ली। देवताओं ने भगवान् विष्णु से प्रार्थना की तो उन्होंने नर और नारायण ऋषियों के रूप में अवतार लिया।
फिर जब नर का सहस्र कवच से युद्ध होता तो नारायण ऋषि तपस्या रत रहते और सहस्र कवच के एक कवच टूटने के बाद जब नर मर जाते तो नारायण उन्हें जीवित करके दम्भोद्भव से सहस्र वर्षों तक युद्ध करने लग जाते और फिर नर तपस्या करते रहते। फिर नारायण के कवच तोड़ने के बाद उन्हें पुनः जीवित करके नर युद्ध करते। इस प्रकार नर और नारायण ने सहस्र कवच के ९९९ कवचों को तोड़ दिया।अब केवल एक कवच बचा रह गया था।
तब वह राक्षस घबरा कर भगवान् सूर्य से आश्रय मांगता है। सूर्यदेव के अनुरोध पर नर नारायण उसे छोड़ देते हैं।
आगे द्वापर युग में जब कुंती भगवाम सूर्य का आह्वान करती हैं तो भगवान् सूर्य सहस्र कवच को ही उसे पुत्र रूप में देते हैं। इसीलिए कर्ण उस एक बचे कवच कुण्डल के साथ जन्म लेता है। परन्तु साथ में उसके कर्मफल के भोग भी उसे भोगने होते है। पिछले जन्म के कर्म प्रवृत्ति के स्वरुप उसे इस जन्म में भी दुर्योधन जैसे दुष्ट व्यक्ति की मित्रता ही भायी। और उन्ही पूर्व कर्मो के फलस्वरूप उसे जन्म से नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़े।
नारायण ऋषि ने द्वापर युग में कृष्ण के रूप में और नर ऋषि ने अर्जुन के रूप में अवतार लिया और युग काल के बाकी सारे कार्यों को पूरा करने के साथ कर्ण का आखिरी बार जीवन भी समाप्त किया। पूर्वजन्म की शत्रुता के कारण ही कर्ण सारे पांडवों को छोड़ने के लिए तैयार था पर अर्जुन को नहीं। कर्ण जीवन के कष्टों को भोगकर मुक्त हुआ और अंत में पुनः सूर्यलोक में प्रवेश कर गया।
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