छठ पूजा षष्ठी पर्व- महत्त्व कथा एवं व्रत-विधान
छठ पूजा षष्ठी पर्व- महत्त्व कथा एवं व्रत-विधान
हिंदू पंचाग के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठी मैया का पर्व महाछठ मनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठी मइया भगवान सूर्य की बहन है। इसलिए महाछठ के इस पर्व के दिन भगवन सूर्य देव और उनकी बहन छट मैया की पूजा की जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार महाछठ का यह व्रत संतान की प्राप्ति उसकी कुशलता और संतान की दीर्घायु की कामना के लिए किया जाता है।
छठ पर्व संतान के लिए मनाया जाता है। आज कल तो सभी छठ का त्यौहार मानते है लेकिन पहले छठ पर्व वही लोग मनाते थे जिन्हें संतान का प्राप्ति नही हुई हो। बाकि सभी लोग अपने बच्चों की सुख-शांति, बच्चे को स्वास्थ्य, सफलता और उसकी दीर्घायु के लिए छठ मनाते हैं।
समता व सहकारिता के मामले में का यह पर्व अनुपम है। यह पर्व न केवल आस्था से भरा हैं, बल्कि भेदभाव मिटाकर एक होने का सन्देश भी दे रहा हैं। एक साथ समूह में जल में खड़े हो भगवान् भाष्कर की अर्चना सभी भेदभाव को मिटा देती हैं। भगवान् आदित्य भी हर सुबह यहीं सन्देश लेकर आते हैं, कि किसी से भेदभाव ना करो, इनकी किरणे महलों पर भी उतनी ही पड़ती हैं जितनी की झोपडी पर। इनके लिए ना ही कोई बड़ा हैं ना ही कोई छोटा, सब एक समान हैं। भगवान् सूर्य सुख और दुःख में एक सामान रहने का सन्देश भी देता हैं। इन्ही भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए हम छठ पूजा मनाते हैं।
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छठी मैया भगवान ब्रह्माजी की मानस पुत्री और भगवन सूर्य देव की बहन हैं। महाछठ का पर्व भगवन सूर्य देव की बहन छठी मैया को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि रचने के लिए स्वयं को दो भागों में बांट दिया था। ब्रह्माजी के दाहिने भाग में पुरुष और बाएं भाग में प्रकृति का रूप सामने आया।
सृष्टि की रचना और उसका पालन पोषण करने वाली प्रकृति देवी ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया। इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ देवी या देवसेना के रूप में जाना जाता है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम षष्ठी है पड़ा जिसे आज छठी मैया के नाम से जाना जाता है।
पुराणों में लिखा गया है,
प्रकृति देवीके एक प्रधान अंशको ‘देवसेना’ कहते हैं। मातृकाओंमें यह परम श्रेष्ठ मानी जाती है। इन्हें लोग भगवती ‘षष्ठि’ के नामसे कहते हैं। प्रत्येक लोकमें शिशुओंका पालन एवं रक्षण करना इनका प्रधान कार्य है। ये तपस्विनी, विष्णुभक्ता तथा कार्तिकेयजीकी पत्नी है। ये साध्वी भगवती प्रकृतिका छठा अंश है अतः इन्हें ‘षष्ठी’ देवी कहा जाता है।
संतानोत्पत्तिके अवसरपर अभ्युदयके लिये इन षष्ठी योगिनीकी पूजा होती है। अखिल जगतमें बारहों महीने लोग इनकी निरंतर पूजा करते हैं। पुत्र उत्पन्न होनेपर छठे दिन सूतिका ग्रुहमें इनकी पूजा हुआ करती है, यह प्राचीन नियम है।
कल्याण चाहनेवाले कुछ व्यक्ति इक्कीसवें दिन इनकी पूजा करते हैं। इनकी मातृका संज्ञा है। यह दयास्वरूपिणी है। निरंतर रक्षा करनेमें तत्पर रहती है। जल, थल, आकाश, गृह:- जहां कहीं भी बच्चोंको सुरक्षित रखना इनका प्रधान उद्देश्य है।
इस पर्व में व्रती अपने हाथ से ही सारा काम करते हैं। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अर्घ्य तक व्रती पूरे निष्ठा का पालन करते हैं। भगवान भास्कर को 36 घंटो का निर्जल व्रत स्त्रियों के लिए जहाँ उनके सुहाग और बेटे की रक्षा करता हैं, वही भगवान् सूर्य धन, धान्य, संमृद्धि आदि प्रदान करता हैं।
सूर्यषष्ठी-व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवी का आवाहन एवं पूजन करते हैं। पुनः प्रातः अर्घ्य के पूर्व षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पंचमी के सायंकाल से ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है.
तीन दिवसीय पर्व है छठ पूजा
छठ का व्रत तीन दिनों तक रखकर चौथे दिन के सुबह सूर्यदेव को अर्ध्य देकर संपन्न किया जाता है।
व्रत का पहला दिन नहाय खाय:-
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। इस दिन व्रती कद्दू/लौकी/दूधी की सब्जी, चने की दाल, और अरवा चावल का भात खाती हैं। छठ पर्व का पहला अर्घ्य डूबते हुए सूरज को दिया जाता हैं।
व्रत का दूसरा दिन लोहंडा और खरना:-
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को व्रती गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा (मिट्टी के बर्तन) में खीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। इसे ‘खरना’ कहा जाता है।
खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसके बाद 36 घंटे का निर्जला (बिना अन्न-जल) उपवास रखा जाता है।
व्रत का तीसरा दिन संध्या अर्घ्य:-
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी या खजूर भी कहते हैं (ठेकुआ पर लकडी के साँचे से सूर्यभगवान् के रथ का चक्र भी अंकित करना आवश्यक माना जाता है), के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा सभी प्रकार के मौसमी फल ईंख, केले, पानीफल सिंघाड़ा, शरीफ़ा, नारियल, मूली, सुथनी, अदरक, गागर नींबू, अखरोट, बादाम, इलायची, लौंग, पान, सुपारी एवं अन्य समान अर्घपात (लाल रंग का), धगगी, लाल/पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो, गन्ने के बारह पेड़ आदि। आदि छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है. नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। इस प्रकार भगवान् सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है । इसीलिये लोक में यह पर्व ‘सूर्यषष्ठी’ के नाम से विख्यात है।
व्रत का चौथा दिन उषा अर्घ्य:-
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर लोक आस्था का महापर्व छठ का समापन करते हैं।


षष्ठी देवी पूजा विधि
- कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर नहाय-खाय से इस पर्व की शुरुआत हो जाती है।
- षष्ठी तिथि को छठ व्रत की पूजा, व्रत और डूबते हुए सूरज को अर्घ्य के बाद अगले दिन सप्तमी को उगते सूर्य को जल देकर प्रणाम करने के बाद व्रत का समापन किया जाता है।
- छठ पर्व के दिन प्रात:काल स्नानादि के बाद संकल्प लिया जाता है।
- संकल्प लेते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण किया जाता है:-
ॐ अद्य अमुक गोत्रो अमुक नामाहं मम सर्व पापनक्षयपूर्वक शरीरारोग्यार्थ श्री सूर्यनारायणदेवप्रसन्नार्थ श्री सूर्यषष्ठीव्रत करिष्ये।
- पूरे दिन निराहार और निर्जला व्रत रखा जाता है।
- शाम के समय नदी या तालाब में जाकर स्नान किया जाता है और सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है।
- अर्घ्य देने के लिए बांस की तीन बड़ी टोकरी या बांस या पीतल के तीन सूप लें।
- बांस की टोकरी में चावल, दीपक, लाल सिंदूर, गन्ना, हल्दी, सुथनी, सब्जी और शकरकंदी रखें।
- साथ में थाली, दूध और गिलास ले लें।
- फलों में नाशपाती, शहद, पान, बड़ा नींबू, सुपारी, कैराव, कपूर, मिठाई और चंदन रखें।
- खाने में ठेकुआ, मालपुआ, खीर, सूजी का हलवा, पूरी, चावल से बने लड्डू भी रखें।
- सभी सामग्रियां टोकरी में सजा लें।
- सूर्य को अर्घ्य देते समय सारा प्रसाद सूप में रखें और सूप में एक दीपक भी जला लें।
- प्रसाद सुप में लेकर नदी में उतर कर सूर्य देव को अर्घ्य दें।
- अर्घ्य देते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करें:-
ऊं एहि सूर्य सहस्त्रांशों तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पया मां भवत्या गृहाणार्ध्य नमोअस्तुते॥
षष्ठीदेवी स्तोत्र का पाठ
शास्त्रों के अनुसार जिस विवाहित जोड़े को संतान प्राप्त होने में बाधा आ रही हो उन्हें रोज षष्ठीदेवी स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इसके अलावा शालिग्राम शिला, कलश, वटवृक्ष का मूल अथवा दीवार पर लाल चंदन से षष्ठी देवी की आकृति बनाकर उनका रोज़ाना पूजन करना चाहिए। परंतु इससे पहले निम्न दिए गए मंत्र का जाप करें।
षष्ठांशां प्रकृते: शुद्धां सुप्रतिष्ठाण्च सुव्रताम्।
सुपुत्रदां च शुभदां दयारूपां जगत्प्रसूम्।।
श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम्।
पवित्ररुपां परमां देवसेनां परां भजे।।
ध्यान के बाद ‘ॐ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ इस अष्टाक्षर मंत्र से आवाहन, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्राभूषण, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्यादि उपचारों से देवी का पूजन करना चाहिए। इसके साथ ही देवी के इस अष्टाक्षर मंत्र का यथाशक्ति जप करना चाहिए। देवी के पूजन तथा जप के बाद यथाशक्ति षष्ठीदेवी स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। इसके पाठ से संतान की प्राप्ति होती है।
छठ पूजा व्रत कथा
हिन्दू ग्रंथो और पौराणिक कथाओं के अनुसार स्वयंभू मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत थे। उनकी पत्नी का नाम मालिनी था। राज दंपत्ति को को बहुत वर्ष बीत जाने के बाद भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। राजा और रानी दोनों इस बात से दुखी रहते थे। दोनों संतान प्राप्ति के लिए दर-दर भटक रहे थे। बाद में वे महर्षि कश्यप की शरण में गए । तदुपरांत महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ सफल हुआ । यज्ञ में प्राप्त हुए चरू (प्रसाद) से राजा की पत्नी को गर्भ ठहर गया।
रानी ने नव महीने बाद एक लडके को जन्म दिया। लेकिन रानी को मरा हुआ बेटा पैदा हुआ। यह बात सुनकर राजा और रानी दोनों बहुत दुखी हुए और उन्होंने संतान प्राप्ति की आशा छोड़ दी। प्रियवत उस मृत बालक को लेकर श्मशान गए। पुत्र वियोग में राजा प्रियव्रत तो इतने दुखी थे कि उन्होंने आत्महत्या करने का मन बना लिया।
लेकिन जैसे ही वो खुद को मारने के लिए आगे बढे तभी ठीक उसी समय मणि के समान विमान पर षष्ठी देवी वहां आ पहुंची। मृत बालक को भूमि पर रखकर राजा ने उस देवी को प्रणाम किया और पूछा- हे सुव्रते! आप कौन हैं?
छठी मइया ने राजा से कहा कि जो भी व्यक्ति मेरी सच्चे मन से पूजा करता है मैं उन्हें पुत्र का सौभाग्य प्रदान करती हूं।यदि तुम भी मेरी पूजा करोगे तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। तुम मेरा पूजन करो और अन्य लोगों से भी कराओ। इस प्रकार छठी मइया ने राजा को भली भातिं समझाया।
राजा प्रियव्रत ने छठी मइया की बात मानी और उसी दिन घर जाकर बड़े उत्साह से नियमानुसार षष्ठी देवी की पूजा संपन्न की। चूंकि यह पूजा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को की गई थी, अत: इस विधि को षष्ठी देवी/छठ देवी का व्रत होने लगा.
माता षष्ठी ने राजा और रानी को पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। इसके बाद राजा के घर में एक स्वस्थ्य सुंदर बालक ने जन्म लिया। तभी से छठ का पर्व पूरी श्रद्धा के साथ लोग मनाने लगें।
छठ पर्व से जुड़े अन्य कथानक
- प्रथम कथानक- कहा जाता है कि भगवान राम के वनवास से लौटने पर राम और सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उपवास रखकर भगवान सूर्य की आराधना की और सप्तमी के दिन व्रत पूर्ण किया। पवित्र सरयू के तट पर राम-सीता के इस अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य देव ने उन्हें आशीर्वाद दिया था।
2. द्वितीय कथानक- एक अन्य मान्यता के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हारकर जंगल-जंगल भटक रहे थे, तब इस दुर्दशा से छुटकारा पाने के लिए द्रौपदी ने सूर्यदेव की आराधना के लिए छठ व्रत किया। इस व्रत को करने के बाद पांडवों को अपना खोया हुआ वैभव पुन: प्राप्त हो गया था।


छठ पूजा सामग्री (Chhath Puja Samagri)
- बांस की तीन बड़ी टोकरी
- चावल
- दीपक
- लाल सिंदूर
- गन्ना
- हल्दी
- सुथनी
- सब्जी
- शकरकंदी
- थाली
- दूध
- गिलास
- नाशपाती
- शहद
- पान
- बड़ा नींबू
- सुपारी
- कैराव
- कपूर
- मिठाई
- चंदन
- ठेकुआ
- मालपुआ
- खीर
- सूजी का हलवा
- पूरी
- चावल से बने लड्डू