परिछन के समय खोइंछा भरने की परंपरा का महत्व
बिहार में बेटी की विदाई के समय उसके आंचल में खोइंछा दिया जाता है।
खोइछा भरने के लिए पान, सुपारी, हल्दी, अक्षत, दूब, मिठाई (बताशे), सौभाग्य प्रतीक चूड़ी, कंघी, सिन्दूर, बिंदी,काजल,महावर, दर्पण आदि दिए जाते हैं।
बिहार में खोइंछा कन्या की विदाई के समय (मायके से ससुराल जाने के समय) घर की बड़ी महिला, माँ या भाभी द्वारा भरा जाता है।
इसके पीछे ये भावना है कि माँ अपनी बेटी का आंचल धन-धान्य से भर कर, उसे लक्ष्मी और अन्नपूर्णा के रूप में ससुराल भेजती है। प्राय: आँचल की गाँठ या ‘खोइंछा’ में मुठ्ठी भर चावल, हल्दी की पाँच गाँठ, दूब के कुछ तिनके और रुपये या सिक्के बाँध दिए जाने के बाद बेटी के मांग में सिंदूर लगाकर आशीर्वाद देती हैं।
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विदाई का यह पल बहुत ही भावुक कर देने वाला होता है और विदा होती बेटी की भावनाओं में इस खोइंछा का महत्व अनमोल है। इसमें होता है, माँ का स्नेह, भाई-बहनों का प्यार, पिता का गौरव और परिवार का सम्मान।
खोइंछा हमेशा बाँस के सूप से ही दिया जाता है, जो वंश वृद्धि का द्योतक है। हल्दी की पाँच गाँठें , वो इसलिए ताकि जीवन में सकारात्मक ऊर्जा हमेशा बनी रहे । गांठों की तरह ही कन्या पूरे परिवार को एक साथ बांधे रहे। हरी दूब – परिवार को संजीवनी देने के लिए। सिक्के ताकि कन्या के साथ स्वश्रु गृह में लक्ष्मी की कृपा रहे ।
कन्या खोइंछा में से पाँच चुटकी वापस सूप में भी रखती है। भावनाओं का यह अश्रुसिक्त आदान – प्रदान एक महान परम्परा की शब्दरहित अभिव्यक्ति है।
दुर्गा पूजा के अवसर पर दुर्गा मां का खोइंछा भरने से माता की आत्मीय कृपा होती है। लोग धन-धान्य से संपन्न होते है। सुख- समृद्धि का घर में वास होता है, अखंड सौभाग्य का वरदान और ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त होता है।ऐसा कहा जाता है कि नवरात्रि की सप्तमी पूजा तक मां अपने स्वश्रुगृह में निवास करती हैं इसी कारण से स्वश्रुगृह की घूंघट परंपरा के अनुसार माता का पट बंद रहता है। महाष्टमी के दिन मां मायके में होती हैं और इस दिन महिलाएँ सज्जित होकर मां का खोंइछा भरती हैं। खोइंछा भरने की यह परम्परा भावनात्मक आधार पर रिश्ते की डोर को मजबूत करती हैं।
खोईंछा भरते यह एहसास हो जाता है कि अब शीघ्र ही विदाई भी निश्चित है। बच्चों और अपनों से बिछुड़ने का दर्द मां की आंखों में तैरते पानी से अनुभव किया जा सकता है।
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