सरयूपारीण ब्राह्मणों के उद्गम गाँव एवं ब्राह्मणों की वंशावली

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ब्राह्मणों की उत्पत्ति:

पुराणों से पता चलता हैं कि देवगण हिमालय पर्वत (पामीर का पठार) के आस-पास रहा करते थे तथा उसी के निकट ही महानतम ऋषियों के आश्रम हुआ करते थे। चुकि पुराणों में हिमालय पर्वत श्रंखला को बहुत ही पवित्र माना गया हैं अतः ऋषियों का वहाँ रहना सम्भव लगता हैं। यदि पौराणिक संदर्भो की ओर देख जाए तो जब देवराज इंद्र की आतिथ्य स्वीकार कर अपने राजधानी को लौटते हुए राजा दुष्यंत ने ऋषियों के परम क्षेत्र हेमकूट पर्वत की ओर देखा था जिसका वर्णन पद्म पुराण में आया हैं :

दक्षिणे भारतं वर्ष उत्तरे लवणोदधेः। कुलादेव महाभाग तस्य सीमा हिमालयः।।

ततः किंपुरषं हेमकुटादध: स्थितम। हरि वर्ष ततो ज्ञेयं निवधोबधिरुच्यते।।

इसी प्रकार बाराह पुराण के एक प्रसंग में महर्षि पुलस्त्य, धर्मराज युधिष्ठिर से यात्रा के सन्दर्भ में बताते हैं की:

ततो गच्छेत राजेंद्र देविकं लोक विश्रुताम। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भारतषर्भ।।


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देविकायास्तटे वीरनगरं नाम वैपुरम। समृदध्यातिरम्यान्च पुल्सत्येन निवेशितम।।

अर्थात- हे राजेन्द्र लोक विश्रुत देविका नदी को जाना चाहिए जहा ब्राम्हणों कि उत्पत्ति सुनी जाती है। देविका नदी के तट पर वीरनगर नामक सुन्दर पुरी है जो समृद्ध और सुन्दर हैं।

एक अन्य पुराण के सन्दर्भ से निश्चित होता हैं कि देविका नदी के किनारे हेमकूट नामक किम्पुरुष क्षेत्र में ऋषि-मुनि रहा करते थे।

“देविकायां सरय्वाचं भवेदाविकसरवौ”

अर्थात- देविका और सरयू क्षेत्र के रहने वाले आविक और सारव कहे जाते हैं। अनुमान हैं, की सारव और अवार (तट) के संयोग से सारववार बना होगा, और फिर समय के साथ उच्चारण में सरवार बन गया होगा। इसी सरवार क्षेत्र के रहने वाले सरवरिया कहे जाने लगे होंगे।

इस सम्बन्ध में मत्स्य पुराण में निम्न सन्दर्भ मिलता हैं:

अयोध्यायां दक्षिणे यस्याः सरयूतटाः पुनः। सारवावार देशोयं तथा गौड़ः प्रकीर्तितः।।

अर्थात- अयोध्या के दक्षिण में सरयू नदी के तट पर सरवावार देश हैं उसी प्रकार गोंडा देश भी मानना चाहिए।

सरयू नदी कैलाश पर्वत से निकल कर विहार प्रदेश में छपरा नगर के समीप नारायणी नदी में मिल जाती हैं। देविका नदी गोरखपुर से ६० मील दूर हिमालय से निकल कर ब्रम्हपुत्र के साथ गण्डकी में मिलती हैं। गण्डकी नदी नेपाल की तराई से निकल कर सरवार क्षेत्र होता हुआ सरयू नदी में समाहित होता हैं। सरयू, घाघरा, देविका (देवहा) ये तीनो नदियाँ एक ही में मिल कर कही-कही प्रवाहित होती हैं। महाभारत में इसका उल्लेख हैं कि सरयू, घाघरा और देविका नदी हिमालय से निकलती हैं, तीनो नदियों का संगम पहाड़ में ही हो गया था। इसीलिए सरयू को कही घाघरा तो कही देविका कहा जाता हैं।

पुराणों के अनुसार यही ब्रम्ह क्षेत्र हैं, जहाँ पर ब्राम्हणों की उत्पत्ति हुई थी यथासमय ब्रम्ह देश से जो ब्राम्हण अन्य देश में गए, वे उस देश के नाम से अभिहित हुए। जो विंध्य के दक्षिण क्षेत्र में गए वे महाराष्ट्रीय, द्रविड़, कर्नाटक और गुर्जर ब्राम्हण के रूप में प्रतिष्ठित हुए। और जो विंध्य के उत्तर देशों में बसे, वे सारस्वत, कान्यकुब्ज, गोंड़, उत्कल, मैथिल ब्राम्हण के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस तरह दशविध ब्राम्हणों के प्रतिष्ठित हो जाने पर ब्रम्हदेश के निवासी ब्राम्हणों की पहचान के लिए उनकी सर्वार्य संज्ञा हो गई। वही आगे चल कर सर्वार्य, सरवरिया, सरयूपारीण आदि कहे जाने लगे।

सरयूपारीण ब्राह्मण

सरयूपारीण ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण या सरयूपारी ब्राह्मण सरयू नदी के पूर्वी तरफ बसे हुए ब्राह्मणों को कहा जाता है। श्रीराम ने लंका विजय के बाद इन्हीं ब्राह्मणों से यज्ञ करवाकर उन्हे सरयु पार स्थापित किया था। सरयु नदी को सरवार भी कहते थे। ईसी से ये ब्राह्मण सरयुपारी ब्राह्मण कहलाते हैं।

सरयुपारी ब्राह्मण पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तरी मध्यप्रदेश, बिहार छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में भी होते हैं। मुख्य सरवार क्षेत्र पश्चिम मे उत्तर प्रदेश राज्य के अयोध्या शहर से लेकर पुर्व मे बिहार के छपरा तक तथा उत्तर मे सौनौली से लेकर दक्षिण मे मध्यप्रदेश के रींवा शहर तक है। काशी, प्रयाग, रीवा, बस्ती, गोरखपुर, अयोध्या, छपरा इत्यादि नगर सरवार भूखण्ड में हैं।

एक अन्य मत के अनुसार श्री राम ने ब्राह्मणों को सरयु पार नहीं बसाया था बल्कि रावण जो की ब्राह्मण थे उनकी हत्या करने पर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए जब श्री राम ने भोजन ओर दान के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया तो जो ब्राह्मण स्नान करने के बहाने से सरयू नदी पार करके उस पार चले गए ओर भोजन तथा दान समंग्री ग्रहण नहीं की वे ब्राह्मण सरयुपारीन ब्राह्मण कहे गए। 

सरयूपारीण ब्राह्मणों के मुख्य गाँव :

1. गर्ग (शुक्ल- वंश)

गर्ग ऋषि के तेरह लडके बताये जाते है जिन्हें गर्ग गोत्रीय, पंच प्रवरीय, शुक्ल बंशज कहा जाता है जो तेरह गांवों में बिभक्त हों गये थे। गांवों के नाम कुछ इस प्रकार है।

  1. मामखोर
  2. खखाइज खोर
  3. भेंडी
  4. बकरूआं
  5. अकोलियाँ
  6. भरवलियाँ
  7. कनइल
  8. मोढीफेकरा
  9. मल्हीयन
  10. महसों
  11. महुलियार
  12. बुद्धहट
  13. इसमे चार गाँव का नाम आता है लखनौरा, मुंजीयड, भांदी, और नौवागाँव।

ये सारे गाँव लगभग गोरखपुर, देवरियां और बस्ती में आज भी पाए जाते हैं।

2. उपगर्ग (शुक्ल-वंश)

उपगर्ग के छ: गाँव जो गर्ग ऋषि के अनुकरणीय थे कुछ इस प्रकार से हैं।

  1. बरवां
  2. चांदां
  3. पिछौरां
  4. कड़जहीं
  5. सेदापार
  6. दिक्षापार

यही मूलत: गाँव है जहाँ से शुक्ल बंश का उदय माना जाता है यहीं से लोग अन्यत्र भी जाकर शुक्ल बंश का उत्थान कर रहें हैं यें सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

3. गौतम (मिश्र-वंश)

गौतम ऋषि के छ: पुत्र बताये जातें हैं जो इन छ: गांवों के वाशी थे।

  1. चंचाई
  2. मधुबनी
  3. चंपा
  4. चंपारण
  5. विडरा
  6. भटीयारी

इन्ही छ: गांवों से गौतम गोत्रीय, त्रिप्रवरीय मिश्र वंश का उदय हुआ है। यहीं से अन्यत्र भी पलायन हुआ है । ये सभी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं।

4. उप गौतम (मिश्र-वंश)

उप गौतम यानि गौतम के अनुकारक छ: गाँव इस प्रकार से हैं।

  1. कालीडीहा
  2. बहुडीह
  3. वालेडीहा
  4. भभयां
  5. पतनाड़े
  6. कपीसा

इन गांवों से उप गौतम की उत्पत्ति मानी जाति है।

5. वत्स गोत्र ( मिश्र- वंश)

वत्स ऋषि के नौ पुत्र माने जाते हैं जो इन नौ गांवों में निवास करते थे।

  1. गाना
  2. पयासी
  3. हरियैया
  4. नगहरा
  5. अघइला
  6. सेखुई
  7. पीडहरा
  8. राढ़ी
  9. मकहडा

बताया जाता है की इनके वहा पांति का प्रचलन था अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

6. कौशिक गोत्र (मिश्र-वंश)

तीन गांवों से इनकी उत्पत्ति बताई जाती है जो निम्न है।

  1. धर्मपुरा
  2. सोगावरी
  3. देशी

7. बशिष्ट गोत्र (मिश्र-वंश)

इनका निवास भी इन तीन गांवों में बताई जाती है।

  1. बट्टूपुर मार्जनी
  2. बढ़निया
  3. खउसी

8. शांडिल्य गोत्र ( तिवारी,त्रिपाठी वंश)

शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताये जाते हैं जो इन बाह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं।

  1. सांडी
  2. सोहगौरा
  3. संरयाँ
  4. श्रीजन
  5. धतूरा
  6. भगराइच
  7. बलूआ
  8. हरदी
  9. झूडीयाँ
  10. उनवलियाँ
  11. लोनापार( लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है)
  12. कटियारी,

इन्ही बारह गांवों से आज चारों तरफ इनका विकास हुआ है। यें सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्री मुख शांडिल्य त्रि प्रवर है। श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमे राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ घराना, मणी घराना है, इन चारों का उदय, सोहगौरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारों का अस्तित्व कायम है।

9. उप शांडिल्य ( तिवारी- त्रिपाठी, वंश)

इनके छ: गाँव बताये जाते हैं जी निम्नवत हैं।

  1. शीशवाँ
  2. चौरीहाँ
  3. चनरवटा
  4. जोजिया
  5. ढकरा
  6. क़जरवटा

10. भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश)

भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है।

  1. सिंघनजोड़ी
  2. सोताचक
  3. चेतियाँ
  4. मदनपुर

11. भारद्वाज गोत्र (दुबे वंश)

भारद्वाज ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति इन चार गांवों से बताई जाती है।

  1. बड़गईयाँ
  2. सरार
  3. परहूँआ
  4. गरयापार

कन्चनियाँ और लाठीयारी इन दो गांवों में दुबे घराना बताया जाता है जो वास्तव में गौतम मिश्र हैं लेकिन इनके पिता क्रमश: उठातमनी और शंखमनी गौतम मिश्र थे परन्तु वासी (बस्ती) के राजा बोधमल ने एक पोखरा खुदवाया जिसमे लट्ठा न चल पाया, राजा के कहने पर दोनों भाई मिल कर लट्ठे को चलाया जिसमे एक ने लट्ठे सोने वाला भाग पकड़ा तो दुसरें ने लाठी वाला भाग पकड़ा जिसमे कन्चनियाँ व लाठियारी का नाम पड़ा, दुबे की गददी होने से ये लोग दुबे कहलाने लगें।

सरार के दुबे के वहां पांति का प्रचलन रहा है अतएव इनको तीन के समकक्ष माना जाता है।

12. सावरण गोत्र ( पाण्डेय वंश)

सावरण ऋषि के तीन पुत्र बताये जाते हैं इनके वहां भी पांति का प्रचलन रहा है जिन्हें तीन के समकक्ष माना जाता है जिनके तीन गाँव निम्न हैं।

  1. इन्द्रपुर
  2. दिलीपपुर
  3. रकहट (चमरूपट्टी)

13. सांकेत गोत्र (मलांव के पाण्डेय वंश)

सांकेत ऋषि के तीन पुत्र इन तीन गांवों से सम्बन्धित बताये जाते हैं।

  1. मलांव
  2. नचइयाँ
  3. चकसनियाँ

14. कश्यप गोत्र (त्रिफला के पाण्डेय वंश)

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।

  1. त्रिफला
  2. मढ़रियाँ
  3. ढडमढीयाँ

15. ओझा वंश

इन तीन गांवों से बताये जाते हैं।

  1. करइली
  2. खैरी
  3. निपनियां

16. चौबे -चतुर्वेदी, वंश (कश्यप गोत्र)

इनके लिए तीन गांवों का उल्लेख मिलता है।

  1. वंदनडीह
  2. बलूआ
  3. बेलउजां

एक गाँव कुसहाँ का उल्लेख बताते है जो शायद उपाध्याय वंश का मालूम पड़ता है।

।।सरयूपारीण ब्राह्मणों के मुख्य गावों का विवेचन समाप्त।।

ब्राह्मणों की वंशावली


भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से दोनों कुरुक्षेत्र वासनी सरस्वती नदी के तट पर गये और कण् व चतुर्वेदमय सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे।

एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें वरदान दिया ।

वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका क्रमानुसार नाम था –

  1. उपाध्याय,
  2. दीक्षित,
  3. पाठक,
  4. शुक्ला,
  5. मिश्रा,
  6. अग्निहोत्री,
  7. दुबे,
  8. तिवारी,
  9. पाण्डेय और
  10. चतुर्वेदी ।


इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने अपनी कन्याए प्रदान की। वे क्रमशः

  1. उपाध्यायी,
  2. दीक्षिता,
  3. पाठकी,
  4. शुक्लिका,
  5. मिश्राणी,
  6. अग्निहोत्रिधी,
  7. द्विवेदिनी,
  8. तिवेदिनी
  9. पाण्ड्यायनी, और
  10. चतुर्वेदिनी कहलायीं।

फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं । वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम –

  1. कष्यप,
  2. भरद्वाज,
  3. विश्वामित्र,
  4. गौतम,
  5. जमदग्रि,
  6. वसिष्ठ,
  7. वत्स,
  8. गौतम,
  9. पराशर,
  10. गर्ग,
  11. अत्रि,
  12. भृगडत्र,
  13. अंगिरा,
  14. श्रंगी,
  15. कात्याय और
  16. याज्ञवल्क्य

इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।

उत्तर व दक्षिणी ब्राह्मणों के भेद:

उत्तर व दक्षिणी ब्राह्मणों के भेद इस प्रकार है। मुख्य 10 प्रकार के ब्राह्मण ये हैं-

दक्षिणी ब्राह्मण (द्रविण ब्राह्मण)

(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,

यह पांच “द्रविण” कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाये जाते हैं। तथा विंध्यांचल के उत्तर में पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण;

उत्तर ब्राह्मण (पंच गौड़)

(1) सारस्वत,
(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,

उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।

वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।

ऐसी संख्या मुख्य 115 की है। शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राह्मण अनेक है। यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं। जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं।

फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राह्मण की संख्या शाखा भेद से 230 के लगभग है । तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राह्मण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है।

क्षेत्र के अनुसार ब्राह्मणों के प्रकार :

क्षेत्र के अनुसार ब्राह्मणों के निम्न प्रकार हैं। 81 ब्राह्मणों की 31 शाखा हैं । कुल 115 ब्राह्मण संख्या है। जिनमें मुख्य है –

  1. गौड़ ब्राम्हण,
  2. गुजरगौड़ ब्राम्हण (मारवाड,मालवा)
  3. श्री गौड़ ब्राम्हण,
  4. गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
  5. हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
  6. वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
  7. शोरथ गौड ब्राम्हण,
  8. दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
  9. सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
  10. भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
  11. सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
  12. मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
  13. वाल्मीकि ब्राम्हण,
  14. रायकवाल ब्राम्हण,
  15. गोमित्र ब्राम्हण,
  16. दायमा ब्राम्हण,
  17. सारस्वत ब्राम्हण,
  18. मैथल ब्राम्हण,
  19. कान्यकुब्ज ब्राम्हण,
  20. उत्कल ब्राम्हण,
  21. सरवरिया ब्राम्हण,
  22. पराशर ब्राम्हण,
  23. सनोडिया या सनाड्य,
  24. मित्र गौड़ ब्राम्हण,
  25. कपिल ब्राम्हण,
  26. तलाजिये ब्राम्हण,
  27. खेटुवे ब्राम्हण,
  28. नारदी ब्राम्हण,
  29. चन्द्रसर ब्राम्हण,
  30. वलादरे ब्राम्हण,
  31. गयावाल ब्राम्हण,
  32. ओडये ब्राम्हण,
  33. आभीर ब्राम्हण,
  34. पल्लीवास ब्राम्हण,
  35. लेटवास ब्राम्हण,
  36. सोमपुरा ब्राम्हण,
  37. काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
  38. नदोर्या ब्राम्हण,
  39. भारती ब्राम्हण,
  40. पुश्करर्णी ब्राम्हण,
  41. गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
  42. भार्गव ब्राम्हण,
  43. नार्मदीय ब्राम्हण,
  44. नन्दवाण ब्राम्हण,
  45. मैत्रयणी ब्राम्हण,
  46. अभिल्ल ब्राम्हण,
  47. मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
  48. टोलक ब्राम्हण,
  49. श्रीमाली ब्राम्हण,
  50. पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
  51. श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण
  52. तांगड़ ब्राम्हण,
  53. सिंध ब्राम्हण,
  54. त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
  55. इग्यर्शण ब्राम्हण,
  56. धनोजा म्होड ब्राम्हण,
  57. गौभुज ब्राम्हण,
  58. अट्टालजर ब्राम्हण,
  59. मधुकर ब्राम्हण,
  60. मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
  61. खड़ायते ब्राम्हण,
  62. बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
  63. भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
  64. लाढवनिये ब्राम्हण,
  65. झारोला ब्राम्हण,
  66. अंतरदेवी ब्राम्हण,
  67. गालव ब्राम्हण,
  68. गिरनारे ब्राम्हण ब्राह्मण गौत्र

गोत्र कारक 115 ऋषि:

ऊपर दिए गए कारको के अतिरिक्त ब्राह्मण अपनी पहचान अपनी वंश परंपरा से भी करते हैं ।

व्यक्ति की वंश-परम्परा जहाँ और से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। इन गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप। इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भरद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।

  1. अत्रि,
  2. भृगु,
  3. आंगिरस,
  4. मुद्गल,
  5. पातंजलि,
  6. कौशिक,
  7. मरीच,
  8. च्यवन,
  9. पुलह,
  10. आष्टिषेण,
  11. उत्पत्ति शाखा,
  12. गौतम गोत्र,
  13. वशिष्ठ और संतान
    1. (13.1). पर वशिष्ठ,
    2. (13.2). अपर वशिष्ठ,
    3. (13.3). उत्तर वशिष्ठ,
    4. (13.4). पूर्व वशिष्ठ,
    5. (13.5). दिवा वशिष्ठ,
  14. वात्स्यायन,
  15. बुधायन,
  16. माध्यन्दिनी,
  17. अज,
  18. वामदेव,
  19. शांकृत्य,
  20. आप्लवान,
  21. सौकालीन,
  22. सोपायन,
  23. गर्ग,
  24. सोपर्णि,
  25. शाखा,
  26. मैत्रेय,
  27. पराशर,
  28. अंगिरा,
  29. क्रतु,
  30. अधमर्षण,
  31. बुधायन,
  32. आष्टायन कौशिक,
  33. अग्निवेष भारद्वाज,
  34. कौण्डिन्य,
  35. मित्रवरुण,
  36. कपिल,
  37. शक्ति,
  38. पौलस्त्य,
  39. दक्ष,
  40. सांख्यायन कौशिक,
  41. जमदग्नि,
  42. कृष्णात्रेय,
  43. भार्गव,
  44. हारीत,
  45. धनञ्जय,
  46. पाराशर,
  47. आत्रेय,
  48. पुलस्त्य,
  49. भारद्वाज,
  50. कुत्स,
  51. शांडिल्य,
  52. भरद्वाज,
  53. कौत्स,
  54. कर्दम,
  55. पाणिनि गोत्र,
  56. वत्स,
  57. विश्वामित्र,
  58. अगस्त्य,
  59. कुश,
  60. जमदग्नि कौशिक,
  61. कुशिक,
  62. देवराज गोत्र,
  63. धृत कौशिक गोत्र,
  64. किंडव गोत्र,
  65. कर्ण,
  66. जातुकर्ण,
  67. काश्यप,
  68. गोभिल,
  69. कश्यप,
  70. सुनक,
  71. शाखाएं,
  72. कल्पिष,
  73. मनु,
  74. माण्डब्य,
  75. अम्बरीष,
  76. उपलभ्य,
  77. व्याघ्रपाद,
  78. जावाल,
  79. धौम्य,
  80. यागवल्क्य,
  81. और्व,
  82. दृढ़,
  83. उद्वाह,
  84. रोहित,
  85. सुपर्ण,
  86. गालिब,
  87. वशिष्ठ,
  88. मार्कण्डेय,
  89. अनावृक,
  90. आपस्तम्ब,
  91. उत्पत्ति शाखा,
  92. यास्क,
  93. वीतहब्य,
  94. वासुकि,
  95. दालभ्य,
  96. आयास्य,
  97. लौंगाक्षि,
  98. चित्र,
  99. विष्णु,
  100. शौनक,
  101. पंचशाखा,
  102. सावर्णि,
  103. कात्यायन,
  104. कंचन,
  105. अलम्पायन,
  106. अव्यय,
  107. विल्च,
  108. शांकल्य,
  109. उद्दालक,
  110. जैमिनी,
  111. उपमन्यु,
  112. उतथ्य,
  113. आसुरि,
  114. अनूप और
  115. आश्वलायन।

कुल संख्या 108 ही हैं, लेकिन इनकी छोटी-छोटी 7 शाखा और हुई हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इनकी पूरी सँख्या 115 है।

ब्राह्मण कुल परम्परा के 11 कारक:

ऊपर दिए गए कारको के अतिरिक्त ब्राह्मण अपनी पहचान ११ भिन्न कारकों से भी करते हैं

(1) गोत्र – व्यक्ति की वंश-परम्परा जहाँ और से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है। इन गोत्रों के मूल ऋषि :– विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप। इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भरद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है।

(2) प्रवर – अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए, वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें। इसका अर्थ है कि कुल परम्परा में गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे।

(3) वेद – वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने लाभ किया है। इनको सुनकर कंठस्थ किया जाता है। इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया, इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे, तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं। प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन-अध्यापन करता है। इस परम्परा के अन्तर्गत जातक, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी आदि कहलाते हैं।

(4) उपवेद – प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये।

(5) शाखा- वेदों के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है। कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था, तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होंने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

(6) सूत्र – प्रत्येक वेद के अपने 2 प्रकार के सूत्र हैं। श्रौत सूत्र और ग्राह्य सूत्र यथा शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है।

(7) छन्द – उक्तानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परा सम्मत छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए।

(8) शिखा – अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा-चुटिया को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बाँधने की परम्परा शिखा कहलाती है।

(9)पाद – अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं। ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है। अपने-अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं।

(10) देवता – प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते हैं, वही उनका कुल देवता यथा भगवान् विष्णु, भगवान् शिव, माँ दुर्गा, भगवान् सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक आराध्‍य देव हैं।

(11)द्वार – यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है। 

सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में शेयर करे हम क्या है
इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।

ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करें।

संकलित

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