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बनारसी नाश्ता कचौड़ी-जलेबी, लौंगलता

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बनारस के खान पान पर एक सीरीज़ लिखने की इच्छा बहुत दिनों से थी लेकिन “जाए दा” के आलस्य के बनारसी महामंत्र के कारण लिखना संभव नहीं हो पा रहा था. फिलहाल अचानक आज बनारस बेतरह याद आया और थोड़ा जोड़ तोड़ कर बनारसी कचौड़ी-जलेबी पर ये पहला आलेख तैयार हो गया.

अगले हफ्ते किसी और व्यंजन पर लिख पाऊंगा इसी आशा के साथ सभी भोजन प्रेमियों को समर्पित है ये आलेख !

बनारस का खाना
जिसने न जाना
रह गया बेगाना:

उड़द की दाल की पीसी हुई थोड़ी मसालेदार पीठी को आटे में भर कर बनाई देशी घी से भरे कड़ाहे में नाचती वो लाल लाल कचौड़ी और थोड़ा हल्का सुगंध का फ्लेवर लिए मोटा जलेबा. ये है बनारस का राजसी नाश्ता|

कचौरी सब्जी जलेबी लोग सवेरे सवेरे चापते हुए

कचौरी शब्द बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया।

दूसरी और जलेबी मूल रूप से अरबी लफ्ज़ है और इस मिठाई का असली नाम है जलाबिया । यूं जलेबी को विशुद्ध भारतीय मिठाई मानने वाले भी हैं। शरदचंद्र पेंढारकर (बनजारे बहुरूपिये शब्द) में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताते हैं। वे रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ का हवाला भी देते हैं जिसमें इस व्यंजन के बनाने की विधि का उल्लेख है। भारतीय मूल पर जोर देने वाले इसे ‘जल-वल्लिका’ कहते हैं । रस से परिपूर्ण होने की वजह से इसे यह नाम मिला और फिर इसका रूप जलेबी हो गया। फारसी और अरबी में इसकी शक्ल बदल कर हो गई जलाबिया।

फिलहाल बात करते हैं बनारस की कचौड़ी और जलेबी की!

जब बाकी की दुनिया बेड-टी का इंतजार कर रही होती है, सयाने बनारसी सुबह छह बजे ही गरमा-गरम कचौड़ी और रसीली जलेबी का कलेवा दाब कर टंच हो चुके होते हैं। इस रसास्वादन अनुष्ठान के कर्मकांड रात के तीसरे पहर से ही शुरू हो जाते हैं। भठठी दगाने और कड़ाहा चढ़ाने के बाद चार बजते-बजते शहर के टोले मुहल्ले भुने जा रहे गरम मसालों की सोंधी खुशबू से मह-मह हो उठते हैं। एक ऐसी नायाब खुशबू जो नासिका रंध्रों को उत्तेजित कर भूख को आक्रमक बना दे। इस सुगंध से आप वंचित हैं तो समझिये आप स्वाद के एक भरे पुरे अहसास को मिस कर रहे हैं।

सुबह के पांच बजते न बजते तो खर कचौडि़यों की व्रत डिगा देने वाली सोंधी गंध, सरसों तेल की बघार से नथुनों को फड़का देने वाली कोहड़े की तरकारी की झाक और खमीर के खट्टेपन और गुलाबजल मिश्रित शीरे में तर करारी जलेबियों की निराली गंध से सुवासित आबो हवा स्वाद का जादू जगा चुकी होती हैं। एक ऐसा जादू जो सोये हुए को जगा दे। जागे हुओं को ब्रश करा कर सीधे ठीयें तक पहुंचा दे। सात बजते-बजते तो विश्वेश्वरगंज के विश्वनाथ साव, चेतगंज के शिवनाथ साव, हबीबपुरा के मम्मा,डेढ़सी पुल वाली दोनो दुकानों, जंगमबाड़ी के बटुकसरदार, लोहटिया में लक्ष्मण भंडार, सोनारपुरा के वीरू और लंका वाली मरहूम चचिया की दुकान पर नरम-गरम कचौडियों की आठ दस घानी उतर चुकी होती है।

Garam Garam Kchaudi Talate Huye

सो बनारस में भोजन की शुरुआत होती है सुबह के नाश्ते से ………ऐसा बताते हैं की पुराने ज़माने में कोई बनारसी कभी घर पे नाश्ता नहीं करता था ……वहां जगह जगह दुकानों पे और ठेलों पे कचौड़ी जलेबी बिका करती थी ….आज भी बिकती है ….एक पूरी गली है बनारस में ….नाम है कचौड़ी गली ……वो केंद्र था कभी बनारसी नाश्ते का ……..अब ये कचौड़ी असल में पूड़ी है जिसे थोडा अलग ढंग से बनाते हैं ………उसमे उड़द की दाल की पीठी भरते है और उसे करारा कर के तलते है ………पहले देसी घी में बनती थी …अब refined में बनाते हैं …….साथ में सब्जी …..आज भी दोने और पत्तल (पेड़ के पत्तों से बनी (use and throw plates ) में ही परोसते हैं …..फिर उसके बाद जलेबी ……..

Banarasi Nasta Jalebi

ये कचौड़ी और जलेबी का combination है ….जैसे coke और चिप्स का है ……..अब जलेबी तो दुनिया जहां में बिकती है ….पर बनारस की जलेबी की तो बात ही कुछ और है. ‘बनारसी हलवाई जलेबी बनाने वाली मैदानी पर बेसन का हल्का-सा फेंट मारते हैं. जलेबियां कितनी स्वादिष्ट बनेंगी, यह फेंटा मारने की समझदारी पर निर्भर करता है. कितनी देर तक और कैसे फेंटा मारना है यह कला बनारसी हलवाई अच्छी तरह जानते हैं.

शहर बनारस का स्वादिष्ट कलेवा खर कचौड़ी और तर जलेबी, आपाधापी के इस दौर में भी मजबूती से अपनी जगह बनाए हुए है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले यह कलेवा झपोलियों में भरकर घर आया करता था। जल्दी भागो के इस दौर में यह नाश्ता भी अब फास्ट फूड से टक्कर लेने लगा है। चार कचौडिय़ों के साथ जलेबी फटाफट मुंह में डाली और चल पड़े अपने काम पर।

हालांकि स्पर्धा की होड़ में बनारस के इस पुराने व्यंजन के साथ अब इडली व डोसा भी टक्कर लेने लगे हैं। बावजूद इसके अपने अनूठे स्वाद के दम पर जलेबी-कचौड़ी की बादशाहत कायम है-

यह बात अलग है कि स्वास्थ्य के प्रति सर्तकता बढ़ जाने के कारण कुछ लोग अब नाश्ते की फेहरिस्त में ओट्स और दलिया को प्रमुखता देने लगे हैं। टोस्ट और आमलेट भी जोर आजमाइश में है लेकिन बनारस की जीवन शैली में शामिल हो चुके जलेबी कचौड़ी को अब उसकी जगह से हटाना संभव नहीं है।

Banrasi Nasta Kachauri Jalebi

आज भी बनारस का आदमी बगल की दुकान पर अल सुबह भूने रहे मसाला की सुगंध से ही जागता है और नित्य काम से निबटने के बाद सीधे कचौड़ी.जलेबी की दुकान पर भागता है। जाड़ा, गर्मी या हो बरसात जतनवर के विश्वनाथ साव भोर में जब कचौड़ी के साथ चलने वाली सब्जी की बघार देते हैं तो पास.पड़ोस के बाशिंदों की नथुने फड़क उठते हैं। इसके बाद तो सारा आलस्य काफूर हो जाता है और लोग कचौड़ी.जलेबी के कतार में लग जाते हैं।
अंत में बनारसी कचौड़ी के बारे में बेढब बनारसी नें अपने हास्य उपन्यास लफ्टन पिगसन की डायरी में जो वर्णन किया है उसे पढ़ लेना भी बनारसी कचौड़ी जलेबी के स्वाद सा मनभावन है!

एक मिठाई की दुकान पर मैंने देखा कि एक आदमी बड़े-बड़े घुँघराले बाल रखे हुए बेलन से आटे की गोल-गोल गेंद बनाकर बेल रहा है और फिर एक कड़ाही में उसे डालता है। कड़ाही में घी खौल रहा था। वह झूम-झूमकर बेलना बेल रहा था। उसके श्यामल मुख पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं जैसे नीलाम्बर नक्षत्र में कभी-कभी तारे आकाश से टूटकर गिरते हैं वैसे ही पसीने की बूँदें नीचे गिरती थीं जो उसी आटे की गेंद में विलीन हो जाती थीं।

पूछने पर पता चला कि यह दो प्रकार की होती हैं। एक का नाम पूरी है जिसका अर्थ है कि इसमें किसी प्रकार की कमी नहीं है। इसे खा लेने से फिर भूख में किसी प्रकार की कमी नहीं रह जाती। दूसरी को कचौरी कहते हैं। इसके भीतर एक तह आटे के अतिरिक्त पिसी हुई दाल की रहती है। पहले इसका नाम चकोरी था। शब्दशास्त्र के नियम के अनुसार वर्ण इधर से उधर हो जाते हैं। इसीसे चकोरी से कचोरी हो गया। चकोरी भारत में एक चिड़िया होती है जो अंगारों का भक्षण करती है। कचौरी खानेवाले भी अग्नि के समान गर्म रहते हैं, कभी ठण्डे नहीं होते। गर्मागर्म कचौरी खाने का भारत में वही आनन्द है जो यूरोप में नया उपनिवेश बनाने का।

घूमे बदे बनारस चाही खाए बदे लवंगलत्ता.. 
यही से हमार मन लगे ना दिल्ली ना कलकत्ता..

Banarasi Mithai Lawanglata

पोस्ट लेखक- Vipul Krishna Nagar जी

Above Post has been taken from Facebook Group E Hav Raja Banaras. Please visit their page . They have very interesting stuff…….The link to the group is given below:

ई हव राजा बनारस


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