जिसका उच्चारण नही किया जाता,अपितु जो श्वास और प्रतिश्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया जाता है,(हं-स:) यह अजपा कहलाता है,इसके देवता अर्ध्नारीश्वर है|
उद्यदभानुस्फ़ुरिततडिदाकारमर्द्धाम्बिकेशम,पाशाभीति वरदपरशुं संदधानं कराब्जै:| दिव्यार्कल्पैर्नवमणिमये: शोभितं विश्वमूल्म,सौमाग्यनेयम वपुरवतु नश्चन्द्रचूडं त्रिनेत्रम॥
उदित होते हुए सूर्य के समान तथा चमकती हुई बिजली के तुल्य जिनकी अंगशोभा है,जो चार भुजाओं में अभय मुद्रा,पाशु,वरदान मुद्रा,तथा परशु को धारण किये है,जो नूतम मणिमय दिव्य वस्तुओं से सुशोभित और विश्व के मूल कारण हैं| ऐसे अम्बिका के अर्ध भाग से युक्त चन्द्रचूड त्रिनेत्र शंकरजी का सौम्य और आग्नेय शरीर हमारी रक्षा करे|
स्वाभाविक नि:श्वास-प्रश्वास रूप से जीव के जपने के लिये हंस-मंत्र इस प्रकार है:-
अथ व्क्ष्ये महेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नर:,मोहबन्धं न जानति मोक्षतस्य न विद्यते ।
श्रीगुरौ: कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा,उच्छवासानि:श्वास्तया तदा बन्धक्षयो भवेत ।
उच्छवासैरेव नि:श्वासैहंस इत्यक्षरद्वयम,तस्मात प्राणस्य हंसाख्य आत्माकारेण संस्थित:।
नाभेरुच्छवासानि:श्वासाद ह्र्दयाग्रे व्यवस्थित:,षष्टिश्वासेर भवित प्राण: षट प्राणा: नाडिका गत: ।
षष्टिनाड्या अहोतात्रम जपसंख्याक्रमो गत:,एक विंशति साहस्त्रं षटशताधिकमीश्वरि।
जपते प्रत्यहं प्राणी सान्द्रानन्दमयीं पराम,उतपत्तिअर्जपमारम्भो मृत्युस्तत्र निवेदनम।
बिना जपेन देवेशि,जपो भवति मन्त्रिण:,अजपेयं तत: प्रोक्ता भव पाश निकृन्तनी ।
अर्थ:- हे पार्वती ! अब एक मन्त्र कहता हूँ,जिसका मनुष्य नित जप करे,इसका जप करने से मोह का बन्धन नही आता है,और मोक्ष की आवश्यकता नही पडती है| हे देवी ! श्री गुरु कृपा से जब ज्ञान हो जाता है,तथा जब श्वास प्रतिश्वास से मनुष्य जप करता है,उस समय बन्धन का नाश हो जाता है| श्वास लेने और छोडने में ही “हँ-स:” इन दो अक्षरों का उच्चारण होता है| इसीलिये प्राण को हँस कहते हैं,और वह आत्मा के रूप में नाभि स्थान से उच्छवास-निश्वास के रूप में उठता हुआ ह्रदय के अग्र भाग में स्थित रहता है| साठ श्वास का एक प्राण होता है,और छ: प्राण की एक नाडी होती है,साठ नाडियों का एक अहोरात्र होता है,यह जप संख्या का क्रम है|
हे ! ईश्वरी इस प्रकार इक्कीस हजार छ: सौ श्वासों के रूप में आनन्द देने वाली पराशक्ति का प्राणी प्रतिदिन जाप करता है,जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त यह जप माना जाता है,हे ! देवी,मन्त्रज्ञ के बिना जप करने से भी श्वास के द्वारा जप हो जाता है,इसीलिये इसे अजपा कहते है,और यह भव (संसार) के पाश (कष्टों) को दूर करने वाला है|
महाभारत मे कहा है:-
“षटशतानि दिवा रात्रौ,सहस्त्राण्येकविंशति:,एतत्संख्यान्वितं मन्त्रं जीवौ जपति सर्वदा”.
अर्थ : रात दिन इक्कीस हजार छ: सौ संख्या तक मन्त्र को प्राणी सदा जप करता है|
सिद्ध साहित्य में अजपा की पर्याप्त चर्चा है,”गोरखपंथ” में भी एक दिन रात में आने जाने वाले २१६०० श्वास-प्रश्वासों को अजपा कहा गया है.
“इक्कीस सहस षटसा आदू,पवन पुरिष जप माली,इला प्युन्गुला सुषमन नारी,अहिनिशि बसै प्रनाली”.
गोरखपंथ का अनुसरण करते हुए श्वास को “ओहं” तथा प्रश्वास को “सोहं” बतलाया है| इन्ही का निरन्तर प्रवाह अजपाजप है| इसी को नि:अक्षर ध्यान भी कहा गया है,
“निह अक्षर जाप तँह जापे,उठत धुन सुन्न से आवे” (गोरखवाणी)
ईश उपनिषद् के सोलहवें श्लोक में भी सोहम का उल्लेख आता है
(…) तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥१६॥
tejo yat te rūpaṃ kalyāṇatamaṃ tat te paśyāmi yo ‘sāv [asau puruṣaḥ] so’ham asmi“
The light which is thy fairest form, I see it. I am what He is” (Trans. by Max Müller)
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