भोला भट्ट
(पुरानी ग्रामीण आँचलिक कहानी)
एक थे भोला भट्ट। वह काशी गये और वहां पढ़कर वापस आए। शास्त्र जानते थे और कथा-वार्ता भी कहते थे। एक बार भोला भट्ट कथा कहने के लिए अपने गांव से निकले और दूर के एक गांव में पहुंचे। गांव की चौपाल में ठहरे। उन्हें आया देख गांव के पटेल इकट्रठे हुए और उनको डयौढ़ी पर ले गए। वहां उन्होंने भट्टजी के रहने खाने की अच्छी व्यवस्था कर दी। सिद्धा-सामान भेजकर भट्टजी को अच्छा भोजन कराया।
खा-पीकर भट्टजी डयौढ़ी पर आए। पटेलों ने पूछा, “भट्टजी! आप इधर क्यों पधारे हैं?”
भट्ट बोले, “जो है सो, भागवत में भारी रस भरा है। उसमें श्री कृष्ण की लीला का वर्णन है। इसी भागवत की कथा कहने हम आए है।”
पटेल बोले, “बड़ी अच्छी बात है, आप रोज रात को हमारी इस चौपाल पर कथा कहिए। पर हमारी एक शर्त है। अगर हम ‘हरे नम:’ कहते थक जायं, तो हम विदाई में आपको पांच सौ रुपये देंगे, और अगर भागवत कहते-कहते आप थक जायं, तो भागवत की अपनी पोथी यहीं छोड़कर आप अपने घर जायंगे।”
भट्ट ने कहा, “ठीक है। मुझे शर्त मंजूर है।”
दूसरे दिन भट्ट ने भागवत की कथा शुरु कर दी। भट्ट संस्कृत के श्लोक पढ़ते जाते, उनका अर्थ करते जाते और कथा समझते जाते। जब समझा चुकते, तो पटेल ‘हरे नम:’ कहते। भट्ट को बहुत पढ़ना पड़ता था, बहुत बोलना होता था, तब कहीं पटेल एक बार सिर्फ ‘हरे नम:’ कहते थे।
भट्ट तो भागवत पढते-पढ़ते थक गये। छह दिनों तक उन्होंने कथा कहीं, सातवें दिन उनका गला बैठ गया। बहुत कोशिश की, पर गला खुला ही नहीं। आखिर भट्ट हार गए। पटेलों ने कहा, “भट्टजी, अपनी पोथी यहां छोड़कर आप पधारिए।”
बेचारे भट्टजी क्या करते! भागवत छोड़कर घर चले गए। घर पहुंच कर उन्होंने अपने बड़े भाई को सारी बात ब्यौरेवार सुना दी।
भाई ने कहा, “ठीक है। तुम फिकर मत करो। मैं उसी गांव में जाऊंगा, और भागवत वापस लेकर आऊंगा।” बड़े भाई खास पढ़े लिखे तो थे नहीं। पता नहीं, कुछ पूजा-पाठ करना-कराना भी जानते थे या नहीं। हां, डिंगल शास्त्र जानते थे। गप्प हांकने में चतुर थे। गांव के लोगों को अच्छी तरह समझाते-बुझाते थे।
बड़े भाई उसी गांव में पहुंचे और चौपाल में बैठे पटेलों को देखकर कहा, “पटेल भाइयो, राम-राम!” सब पटेल उठे। सबने भट्टजी के पैर छुए और कहा “राम-राम भट्टजी, राम-राम!” जब सब बैठ गए, तो पटेलों ने उलाहना देते हुए कहा, “कहिए, भट्टजी! क्या आप कथा बांचने आए हैं? एक भट्टजी तो यहां अपनी भागवत की पोथी छोउ़कर गए है। आपको भी अपनी पोथी छोड़कर जाना हो, तो आप भागवत बांचना शुरु कीजिए।”
भट्टने कहा, “सब भट्ट एक से नहीं होते। कथा-कथा में भी तो फरक होता है न! मैंने तो डिंगल शास्त्र पढ़ा है। इस शास्त्र को पढ़ने वाले विरले ही होते है।”
पटेल बोले, “आप हमारी शर्त जानते है न? अगर हम ‘हरे नम:’ कहने में थकेंगे, तो आपको पांच सौ रुपए बिदाई में देंगे लेकिन अगर आप पढ़ते-पढ़ते थक जायंगे, तो आपको अपनी पोथी छोड़कर जाना होगा। कहिए, शर्त मंजूर है?”
भट्टजी ने कहा, “ठीक ही तो है। लेकिन एक शर्त मेरी भी सुन लीजिए। अगर मैं जीत जाऊं, तो मेरी दक्षिणा के साथ आप मुझे भागवत की वह पोथी भी देंगे, जिसे पहले वाले भट्टजी छोड़ गए है।”
पटेल बोले, “मंजूर है।”
दूसरे दिन से भट्टजी ने कथा कहनी शुरु की। बोले, “जो है सो, श्रीकृष्ण भगवान गरुड़ पर बैठते हैं। गरुड़ तो उनका वाहन कहलाता है।”
पटेलों ने कहा, “हरे नम:।”
“यह गरुड़ पक्षी तो अपने देश में पक्षियों का राजा कहा जाता है।”
“हरे नम:।”
“जो है सो, श्रीकृष्ण भगवान ने एक दिन पूछा, “हे गरुड़जी! आपकी कोई जात-पांत है या नहीं?’
“हरे नम:।”
“उत्तर में गरुड़जी ने कहा, ‘हे महाराज! मेरी जात तो है, पर जात के सब लोगों ने मुझे जात के बाहर कर रखा है।”
“हरे नम:।”
“जो है सो, भगवान श्रीकृष्ण ने सब पक्षियों को इकट्रठा किया। जो है सो, पांच सौ पालों का एक बड़ा सा थैला सिलवाया ओर उसमें सब पक्षियों को बंद कर दिया।”
“हरे नम:।”
“इस तरह थैले में बन्द सारे पक्षी अन्दर ही अन्दर चीं-चीं करने लगे।”
“हरे नम:।”
“उस थैले में एक छेद रह गया था।”
“हरे नम:।”
“जो है सो, छेद में से एक पक्षी बाहर निकला और फुर्र से उड़ गया।”
“हरे नम:।”
“जो है सो, दूसरा पक्षी उड़ा और फुर्र हो गया।
“हरे नम:।”
“फिर तीसरा उड़ा और फुर्र हुआ।”
“हरे नम:।”
“पांचवां उड़ा और फुर्र हुआ।”
“हरे नम:।”
भट्टजी का फुर्र और पटेलों का ‘हरे नम:’ चलता रहा। यों करते-करते पटेलों के मुंह दुखने लगे और पटेल “हरे नम:” के बदले ‘फुर्र-फुर्र’ कहने लग गए। भट्टजी ने अपनी पोथी समेट ली और कहा, “आप लोग हार गए। अब दक्षिणा के साथ भगवत की वह पोथी मुझे दे दजिए।
पटेलों से भागवत की पोथी और दक्षिणा की रकम लेकर बड़े भट्टजी वापस घर आए और अपने छोटे भाई को सौंप दी।
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