जो बोले वह खाये दो
(मजेदार पुरानी ग्रामीण आँचलिक कहानी)
दो पण्डे थे। एक था चाचा, दूसरा था भतीजा। एक बार दोनों अपने यजमानों के घर जाने को निकले। एक गांव गये। वहां पहुंचकर यजमान के घर ठहरे। यजमान ने खूब स्वागत-सत्कार किया और दोनों पण्डों से कहा कि वे लड्डू बनाकर खायें।चाचा-भतीजे ने बाटियां सेंककर चूरमा तैयार किया। चूरमे के लड्डू बनाये। पांच लड्डू बने। अब चाचा-भतीजा, दोनों सोचने लगे कि इन्हें बांटा कैसे जाय? आखिर चाचा-भतीजे ने तय किया कि हम गूंगे बनकर बैठ जायं। जो पहले बोले, वह दो खाय, और न बोले, वह तीन खाय।
चाचा-भतीजे दोनों बिना बोले, लम्बे फैलकर सो गए। यजमान ने आकर देखा तो न कोई बोलता था, न हिलता-डुलता था। बुलवाने की बहुतेरी कोशिश की, पर कोई जवाब ही नहीं देता था। सब सोचने लगे, ‘कौन जाने, किसी जहरीले जानवर ने इन्हें काट न लिया हो।’
यजमान ने कहा, “आइए, हम सब मिलकर ब्राह्मण के इन बेटों को ठिकाने लगा दें! लोग आपस में बातें कर रहे थे। चाचा-भतीजे लेटे-लेटे सुन रहे थे। दोनों मन-ही-मन सोचने लगे, ‘यह तो गजब हो रहा है। लेकिन बोले कौन? जो बोलेगा, उसे दो ही लड्डू मिलेंगे?’
गांव के लोग इकट्ठे हो गए, और अरथी तैयार करने लगे। चाचा-भतीजे दोनों को कसकर बांध दिया गया, पर दोनों में से एक भी नहीं बोला। दोनों ऐसे दम साधे रहे, मानो सचमुच के मुरदे ही हों। लोग रोते-बिलखते उनको श्मशान में ले गये। श्मशान में चिता रची गई, और दोनों को चिता पर रखा गया। दूसरे सबलोग तो नदी पर नहाने चले गए। बस पाचं लोग वहां रह गये। बेचारे यजमान ने पूला सुलगाया और रोते-रोते चिता में आग लगाई।
चाचा मन में सोचने लगा, ‘जलकर मर जायं, तो कोई बात नहीं, पर दो लड्डू तो हरगिज नहीं खाने हैं। खाने हैं, तो तीन खाने हैं, नहीं तो कुछ भी नहीं खाना है।’,
भतीजे ने सोचा, ‘यह तो मरने की नौबत आ गई। तीन लड्डू खाने की कोशिश में जान दे देनी होगी।’ आखिर भतीजा बोला, “भागो-भागो! तीन तुम्हारे, और दो मेरे।”
इतना कहते ही चाचा-भतीजा दोनों चिता पर उठ बैठे। उन्हें चिता पर बैठा देखकर पांचों लोग चिल्ला उठे, “भागोरे, भागो! ये तो भूत बन गये हैं।” और वे अपनी जान लेकर भाग खड़े हुए।
चाचा-भतीजे दोनों यजमान के पास पहुंचकर लड्डू खाने बैठ गये—तीन चाचा के, दो भतीजे के।
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