भगवान शिव की विशेषताएं
रंग :
‘शिवतत्त्व भस्म के रंगका है । भस्म वैराग्यका प्रतीक है ।’गंगा :
‘भगवान शिव अखंड तपस्या करते हैं । जो ज्ञान शिवद्वारा शीशपर धारण की गई ज्ञानगंगा से ब्रह्मांड में बहता रहता है, उस ज्ञान के प्रवाह में आई बाधा को नागों ने दूर किया । ज्ञान की गंगा को प्रवाही बनाए रखने के लिए नागों ने बहुत सहायता की, इसलिए उन्हें ‘ब्राह्मण’ भी संबोधित किया जाता है । नागों ने हलाहल शोषित न किया होता, तो उस दिव्य ज्ञान से हम वंचित रह जाते ।’चंद्रमा :
‘शिव के सिरपर विद्यमान चंद्रमाका मुख दार्इं ओर होता है । वह शिव की सूर्यनाडी से उत्पन्न होनेवाली कार्य की तप्त ऊर्जाका नियमन करता है । जब सृष्टि विनाश के गर्त में जाती है, तो शिव अपनी दार्इं अर्थात् तेजतत्त्वरूपी नाडी के बलपर अपनी देह से तेज-कणोंका प्रक्षेपण कर ब्रह्मांड के स्तरपर कार्य करते हैं; परंतु इस कार्य से उत्पन्न तप्त ऊर्जा ब्रह्मांड सहन नहीं कर पाता । ऐसे समय, कार्य की मात्रा में चंद्रमा अपने माध्यम से ठंडक निर्माण करनेवाली तरंगें वायुमंडल में प्रक्षेपित कर, तप्त ऊर्जा की तरंगों की गति और उन की तीव्रता कम कर सृष्टिका नियमन करता है । इस कारण उस स्तरपर दार्इं नाडी के कार्य की मात्रा में और सृष्टि को संभाल ने के लिए, संतुलन व नियमन के लिए चंद्रमाका स्थान शिव की दार्इं ओर होता है ।’भस्म :
संतों की हथेलियों से निकलनेवाली भस्म में शिवतत्त्व की आंशिक शक्तिका होना : ‘कुछ संतों की हथेलियों से कभी-कभी भस्म (विभूति) निकलती है, अर्थात् ये संत कुछ क्षणों के लिए शिवदशा में जाते हैं और शिवदशा में जाने से पूर्व वे भस्म अथवा विभूति हथेली में आने के लिए प्रार्थना करते हैं । उस समय उन की हथेलियों की कुछ परतें जल जाती हैं और भस्म तैयार होती है । जली हुई परतों के स्थानपर नई परतें तुरंत निर्माण होती हैं । इस क्रियाका उन्हें भान भी नहीं रहता । इस प्रकार शिवदशा में जाकर जागृत स्नायुओं से तैयार हुई भस्म में भी शिवतत्त्व की आंशिक शक्ति होती है । इस कारण इस भस्म को भी `शिवभस्म’ ही कहा जाता है; परंतु आजकल भस्म को ही ‘विभूति’ कहा जाता है । भस्म में भी एक दैवी सुगंध होती है और वह अनिष्ट शक्तियों से हमारा रक्षण करती है ।रुद्राक्ष :
भगवान शिव निरंतर समाधि में होते हैं, इस कारण उनका कार्य सदैव सूक्ष्मस्तरसे ही जारी रहता है । यह कार्य अधिक सुव्यवस्थित हो, इस के लिए भगवान शिव ने भी रुद्राक्ष की माला शरीरपर धारण की है । इसी कारण शिव-उपासना में रुद्राक्षका असाधारण महत्त्व है । ’किसी भी देवताका जप करने हेतु रुद्राक्षमालाका प्रयोग किया जा सकता है । रुद्राक्षमाला को गले में या अन्यत्र धारण कर किया गया जप, बिना रुद्राक्षमाला धारण किए गए जप से हजार गुना लाभदायक होता है । इसी प्रकार अन्य किसी माला से जप करने की तुलना में रुद्राक्ष की माला से जप करने पर दस हजार गुना अधिक लाभ होता है ।तीन डोरियों से त्रिगुणों की तरंगें प्रक्षेपित कर नेवाला ‘डमरू’ :
‘शिव के हाथ में विद्यमान डमरू अप्रकट नादशक्तिका प्रतीक है और डमरू की तीन डोरियां प्रकट नादशक्तिका प्रतीक हैं । जिस समय इन तीन डोरियों की सहायता से डमरू से नाद उत्पन्न होता है, उस समय इन तीन डोरियों से सत्त्व, रज व तम तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । आवश्यकता के अनुसार इन तरंगों की मात्रा कम-अधिक होती है ।’तांडवनृत्य :
‘भगवान शिव तांडवनृत्य करते हैं, अर्थात् वे अलग-अलग मुद्रा में नृत्य करते हैं । (मुद्रा अर्थात् ‘तांड’ व अनेक तांड मिलकर ‘तांडव’ शब्द तैयार हुआ है । मुद्राओंद्वारा अथवा तांडवों से युक्त नृत्य, अर्थात् ‘तांडवनृत्य’) उस समय वे अपने शरीर में एकत्रित हुए हलाहलका रूपांतर मुद्राद्वारा नवरस में करते हैं और उस नवरस से ही नृत्य की उत्पत्ति होती है । तांडवनृत्य करनेवाले भगवान शिव को ‘नटराज’ कहा जाता है । इस प्रकारका नृत्य कोई भी नहीं कर सकता । तांडवनृत्य के नवरस में ‘नृत्यकला’ के रूप में जो आज पृथ्वीपर किया जाता है, उस नृत्यकला में शिव के नवरस के तत्त्वका १ अरब अंश ही होता है ।’ ‘तांडवनृत्य करते समय भगवान शंकर की प्रकट शक्ति ८० प्रतिशत होती है । सूक्ष्म के जानकार व दिव्यदृष्टि प्राप्त संत भी तांडवनृत्य देख सकते हैं । शिवजी का तारक व मारक तांडवनृत्य : शिवजी का तांडवनृत्य जब ताल पर होता है, तब उस ताल पर सृष्टि का कार्य व्यवस्थित चलता है । शिवजी का भान रहित तांडवनृत्य शिवजी की अंतशक्ति का रूप है । जब सृष्टि का अंतिम समय निकट आता है, तब शिवजी भान रहित तांडवनृत्य करते हैं । शिवजी के इस भान रहित नृत्य को ताल का बंधन न हो ने के कारण सृष्टि का संतुलन डगमगाने लगता है व अंत में सृष्टि का लय होता है; इसलिए नृत्य में ब्रह्मांड का विनाश करने की क्षमता है व संगीत में संपूर्ण ब्रह्मांड को चलाने की क्षमता है । शिवजी का ध्यान लगाना उनकी सुप्त अप्रकट शक्ति का तथा तांडव करना उनकी कार्यरत शक्ति का प्रतीक है : शिवजी का ध्यान उन की सुप्त अप्रकट शक्ति का प्रतीक है । यह शक्ति कार्य नहीं करती । तांडव शिवजी की प्रकट सगुण लयशक्ति का, अर्थात् प्रत्यक्ष कार्यरत शक्ति का प्रतीक हैै । प्रत्यक्ष कार्य की परिणामकारकता के लिए, अर्थात् ब्रह्मांड के रज-तम के समूल नाश के लिए तांडव में विद्यमान सगुण कार्यरत शक्ति आवश्यक होती है । तांडव तमप्रधान है तथा ध्यान सत्त्वप्रधान है ।शिवतत्त्व से संबंधित आकार, रंग और रंगोली :
‘शिवतत्त्व का रंग भस्म समान है । इस तत्त्व को आकर्षित करनेवाला आकृतिबंध यहां दर्शाया गया है । महाशिवरात्रि, श्रावण सोमवार इत्यादि दिनोंपर रंगोली में इस आकृतिका उपयोग करनेपर और शिव को इस आकार में पुष्पार्पण करने से शिवतत्त्व का अधिकाधिक लाभ होता है । भावयुक्त जीवद्वारा बनाई गई रंगोली में ३० प्रतिशत तत्त्व आ सकता है । रंग भरनेपर ईश्वर के विद्यमान होने में कम शक्ति खर्च करनी पडती है । इस से भावरहित जीव को भी उसका लाभ होता है । जीवका भाव ६० प्रतिशत से अधिक हो, तो बिना रंग भरी रंगोली बनानेपर भी उस जीव के भावानुसार वह विशिष्ट तत्त्व उस विशिष्ट आकार में आता है ।त्रिशूल :
शिवजी के इस आभूषणका कार्य है सत्त्व, रज व तम को कम करना । त्रिशूल उत्पत्ति, स्थिति व लय से संबंधित है ।- उत्पत्ति : यहां उत्पत्तिका संबंध युद्ध अर्थात् अनिष्ट शक्तियों के संदर्भ में हो नेवाली क्रिया-प्रक्रियाओं की निर्मिति से है ।
- स्थिति : काल के दो प्रकार हैं ।
- अ. स्थिति काल : यह काल की स्थिरता दर्शाता है ।
- आ. परिस्थिति काल : स्थिर कालका रूपांतर जब परिस्थिति काल में होता है, तब परिस्थिति कालका प्रतीक त्रिशूल दर्शाता है ।
- लय : अनिष्ट शक्तियों को नष्ट करना ।
बिल्वपत्र :
महत्त्व : बिल्वपत्र में २ प्रतिशत शिवतत्त्व होता है । महाशिवरात्रि के दिन शिवपिंडीपर बेल चढानेपर बेल के डंठल के निकट सगुण शिवतत्त्व जागृत होता है व बेलद्वारा चैतन्य तथा शिवतत्त्व प्रक्षेपित होने लगता है । शिवपिंडी में विद्यमान २० प्रतिशत शिवतत्त्व को बेल स्वयं में आकृष्ट करता है । शिवतत्त्व से युक्त बेल को पानी में डुबोनेपर अथवा धान्य में रखनेपर बेल में विद्यमान शिवतत्त्व उस में संक्रमित होता है । सोमवार को बेलपत्र में शिवतत्त्व अधिक मात्रा में जागृत होता है । उस दिन उससे १० प्रतिशत शिवतत्त्व व सात्त्विकता प्रक्षेपित होती है । अन्य दिनों में बिल्वपत्र में शिवतत्त्व केवल १ प्रतिशत जागृत रहता है । बिल्वार्चन : ‘ॐ नमः शिवाय ।’ मंत्र जपते हुए अथवा भगवान शंकरजीका एक नाम लेकर एक बिल्वपत्र पिंडीपर अर्पण करने को बिल्वार्चन कहते हैं । जबतक पिंडी पूर्णतः ढक नहीं जाती, तबतक बिल्वपत्र चढाते रहना चाहिए । पिंडी के निचले भाग से बेल के पत्ते चढाना आरंभ करें । मूर्ति के चरणोें से अर्चन आरंभ करने से अधिक लाभ प्राप्त होता है तथा मूर्ति को पूर्णतः ढका जा सकता है । शिवजी को बेलफल लगे पेड के ही पत्ते क्यों चढा ने चाहिए ? : (फल लगे पेड के बेल में सगुण व निर्गुण तरंगें ग्रहण व प्रक्षेपित कर ने की क्षमता अधिक होती है, इसलिए वह अधिक उपयुक्त है ।) फलवाला पेड अधिक परिपक्व भी होता है । ‘परिपक्व’ अर्थात् उस विशेष देवता की सगुण तथा निर्गुण, दोनों प्रकार की तरंगों को ग्रहण तथा प्रक्षेपित कर ने की क्षमता अधिक होना । ऐ से वृक्षका बिल्वदल भी उसी प्रकार उतना ही सक्षम होता है । ऐसी उत्कृष्ट क्षमतावाले बिल्वदल शिवजी को चढा ने से जीव को सगुण तथा निर्गुण, दोनों शिवतरंगोंका लाभ मिलता हैनामजप :
‘ॐ नमः शिवाय ।’ नामजपका अर्थ : इस नामजप में ‘ॐ’ अर्थात् त्रिगुणातीत निर्गुण । ॐकार की निर्मिति जिस शिव से हुई, उन्हें प्रणाम ! शिवजी को बेलपत्र चढाने की पद्धतिका आधारभूत शास्त्र त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच त्र्यायुधं । त्रिजन्मपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ।। अर्थात त्रिदल (तीन पत्र) युक्त, त्रिगुण के समान, तीन नेत्रों के समान, तीन आयुधों के समान एवं तीन जन्मों के पाप नष्ट कर नेवाला यह बिल्वपत्र, मैं शंकरजी को अर्पित करता हूं ।तारक एवं मारक उपासनापद्धति अनुसार बेल कैसे चढाएं ? :
बेल के पत्ते तारक शिवतत्त्व के वाहक हैं, जबकि बेल के पत्ते का डंठल मारक शिवतत्त्व का वाहक है ।- शिवजी के तारक रूप की उपासना करनेवाले : सामान्य उपास कों की प्रकृति तारक स्वरूप की होती है, अत: शिवजी की तारक उपासना उन की प्रकृति के अनुरूप एवं उन की आध्यात्मिक उन्नति हेतु पूरक सिद्ध होती है । ऐसे उपासक शिवजी के तारक तत्त्वका लाभ प्राप्त करने हेतु बेलपत्रका डंठल पिंडी की ओर एवं अग्र भाग अपनी ओर कर चढाएं ।
- शिवजी के मारक रूप की उपासना करनेवाले : शाक्तपंथीय शिवजी के मारक रूप की उपासना करते हैं । ऐ से उपासक शिवजी के मारक तत्त्वका लाभ प्राप्त करने हेतु बेल के पत्तेका अग्रभाग देवता की ओर एवं डंठल अपनी ओर रख बेलपत्र चढाएं ।
बेल औंधा (उलटा) क्यों चढाएं ? :
शिवपिंडीपर बेलपत्र औंधा चढाने से उस से निर्गुण स्तर के स्पंदन अधिक प्रक्षेपित होते हैं । इस से श्रद्धालु को अधिक लाभ मिलता है ।शिवजी का कार्य :
- नाद की निर्मिति : नाद शिवजी द्वारा निर्मित है । शिवजी की प्रकट ज्ञानशक्ति से नादों की निर्मिति होती है । नादकण आकाशतत्त्व से बने हैं । अनेक आकाशतत्त्व के कणों के मिलने पर नादलहरियां निर्माण होती हैं । शिवलोक में सब से अधिक प्रमाण में नादलहरियां होती हैं, इसलिए आकाशतत्त्व ध्वनि में व्यक्त होता है । अनेक नादकणों के मिल ने पर ध्वनि निर्माण होती है । जब किसी व्यक्ति को नाद की अनुभूति होती है, तब उस व्यक्ति के ईश्वर के प्रति भाव के कारण, अर्थात् इस भाव की ऊर्जा के कारण, नादकणों का घनीकरण होकर नादलहरियां बनती हैं । इन नादलहरियों के एकत्रित आने से एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि में उनका रूपांतर होता है और साधक को नाद के रूप में ईश्वरीय तत्त्व की अनुभूति होती है । नादकणों का घनीकरण करने के लिए उच्च भावऊर्जा की आवश्यकता होती है । उत ने ही प्रमाण में ऊर्जा नहीं मिली, तो वायुकणों का घनीकरण होकर वायुतत्त्व की अर्थात् स्पर्श की अनुभूति होती है ।
- शिवलोक के सब से निकट लोक – नादलोक : नादलोक शिवलोक के सबसे निकट है । शिवजी की शक्ति जब अप्रकट होती है, उस समय शिवलोक साधक को बर्फ समान ठंडा लगता है । नादलोक शिवलोक की अपेक्षा कम ठंडा होता है; क्योंकि नादलोक में शिवशक्ति नाद के माध्यम से गतिमान, अर्थात् कार्यरत होती है । यह नादरूपी शिवशक्ति संपूर्ण ब्रह्मांड को निरंतर गतिमान रखती है ।
- शिवजी की ज्ञानशक्ति से संगीत व नृत्य की निर्मिति : शिव संगीत व नृत्यकलाओं के देवता हैं । शिवजी की ज्ञानशक्ति से संगीत व नृत्य की निर्मिति हुई है ।
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