राजा दशरथ जी को मोक्ष नही मिला| आखिर क्यो?
राजा दशरथ जी को मोक्ष नही मिला| आखिर क्यो
श्रीमद् रामायण प्रसंग रहस्य – श्रीरामचरितमानस चिंतन
श्री प्रभु रामजी के पिता होने और मरते वक्त भी श्री प्रभु के ६ बार नाम लेने पर भी राजा दशरथ जी को मोक्ष नही मिला| आखिर क्यो
शंका और रहस्य है तो समाधान भी होगा ही ।
||सगुनोपासक मोच्छ नही लेही| तिन्ह कहुँ राम भगति निज देही||
जो ब्रह्म के सगुन रुप को भजते हैं वो मोक्ष नही लेते उनको श्री सरकार खाश भक्ति देते हैं ।जिसका चित्त भगवान् मे अनुराग कर चुका है ,उसने स्वर्ग को भी तुच्छ समझ लिया है और वह मुक्ति का भी अपमान कर देता है |
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अनुरक्तिकृतं चित्तं यस्य श्रीरामपादयो:| तेन तुच्छीकृत: स्वर्गो मुक्तिरप्यवमानिता ||
राम भजत सोइ मुक्ति गोसाई |अनइच्छित आवै बरिआई ||
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई|
कोटि भॉति कोउ करै उपाई || तथा मोक्षसुख सुनु खगराई |
रहि न सकै हरि भगति बिहाई || अस बिचारि हरिभगत सयाने | मुक्ति निरादर भगति लोभाने ||
यहॉ मोक्ष से कैवल्य मुक्ति अभिप्रेत है,जिसमे जीव भगवान् मे लीन हो जाता है |
ताते मुनि हरि लीन न भउयु | प्रथमहि भेद भगति बर लयऊ |
उसकी पृथक सत्ता,स्थिति, हस्ती रह नही जाती |
सगुनोपासक भी मुक्त हो जाता है ,उसकी मुक्ति भव बंधन से छूटना मात्र है,वह परमधाम को जाता है वह निर्गुणोपासक के भांति ही रहता है |
अब प्रश्न यह उठता है कि सगुणोपासक मोक्ष क्यो नही लेते तो इसपर कई भाव बने है उनमे से कुछ सटीक देखे –
(१) अगम जानकर-
भक्त किसी प्रकार की मुक्ति नही चाहता और न वह ज्ञान से मिलने वाला कैवल्य मोक्ष चाहता है |वह तो यही चाहता है कि मेरा तो सेवक स्वामिभाव कभी न छूटे,वह भगवान् के देने पर भी मोक्षादि नही लेता,वह तो प्रभु को ही चाहता है |
श्री हनुमान जी ने भी तो यही कहा है कि मै भव बंधन छुडाने वाली उस मुक्ति को कदापि नही चाहता,जिसमे स्वामी सेवक भाव का विलोप हो जाता है |
अरण्यकांड मे से यह प्रमाणित है कि पशु पक्षी भी प्रभु को साक्षात देखकर ज्ञान युक्त होकर भी भक्ति ही मांगते है तब शरभंग जी जैसे चरित वाले निर्गुणवादियो की मुक्ति कैसे मांगते | यहॉ तो दशरथ जी का मन सगुणभक्ति रस मे रंगा हुआ है तब वो भला कैसे कैवल्य मुक्ति स्वीकार करते |
जिन्ह के मन मगन भए हैं रस सगुन तिन्ह के लेखे अगुन मुकुति कवनि ||
(२) केवल ज्ञानी को माया क्षुभित कर देती है,भक्त को क्षुब्ध नहीं कर सकती |
जो ज्ञानिन्ह कर चित्त अपहरइ| बरिआई बिमोह मन करई ||
प्रभु माया बलवंत भवानी | जेहि न मोह कवन अस ज्ञानी ||,आदि
(३) ब्रह्म सुख से भक्ति सुख अधिक है ,इसी से राजा ने भक्ति की |
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिवसुखद |
अवधपुरी नरनारि तेही सुख महँ संतत मगन ||
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारर सपनेहु लहेउ |
ते नहि गनहि खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ||
राजा दशरथ को वह समस्त सुख प्राप्त था | उनके लिए मुक्ति तो बहूत ही सुलभ थी यदि वह उसे चाहते और लेते | भगवद्भक्ति योग से निर्मल चित्त होने पर मुक्त संग भक्त को तत्वज्ञान स्वत: हो जाता है,जड चेतन ह्रदय की ग्रंथि का भेदन हो जाता है,संशयो का छेदन हो जाता है और सब कर्म क्षीण हो जाते है | वह अपनी आत्मा मे ईश्वर को देख लेता है | इसी हेतू सर्वज्ञ बुद्धिमान लोग परमान्नद के साथ भगवान् मे परमभक्ति करते हैं |
इससे चक्रवर्ति सम्राट दशरथ जी के मोक्ष मे संदेह नही वह तो सदैव उनके हाथो मे है | परन्तु श्री सरकार का माधुर्य संयुक्त वात्सल्यरस छोड वो ब्रह्मसुख मे प्रीति नही करते क्योकि वह जानते हैं कि इसलिए ही तो पुरारि अशुभ वेष धारण करते हैं |
श्रीराम जी सरकार के भक्त उनके धाम को जाते हैं और फिर संसार मे नही आते यही उनकी मुक्ति है |
पर यहॉ सगुनोपासक को मोक्ष नही लेना कहा गया तो भक्त लोग भक्ति का कोई फल नही चाहते, क्योकि उसमे भगवान् और उनकी भक्ति साधन मे आ जाते हैं और मुक्ति फल रुप मे हो जाती है |
इसलिए भक्त गण भक्ति को ही फलरुप मानते हैं – यथा फलरुपत्वात् , तीर्थाटन साधन- सब कर फल हरि भगति भवानि |क्योकि नित्यधाम मे भी ये अपने भावानुसार सेवासहित ही आनन्दोपभोग करते हैं |
सोsश्नुते सर्वान्कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता
वह मुक्ति ही है क्योकि इनका संसार मे आना नही होता |
यहॉ प्रसंग मे जो मुक्ति है वह निर्गुणोपासको का कैवल्य प्राप्ति ही है |