मृत्यु के समय और उसके तुरंत बाद की स्थिति प्रायः स्पष्ट नहीं होती है। इस दशा में कई बार आत्मा को मरने के बाद उसे इस सत्य का भास् ही नहीं होता कि उसका शरीर समाप्त हो चुका है। बहुमूल्य समय व्यर्थ हो जाता है और वह अपनी मुक्ति का प्रयास सही समय पर नहीं कर पाती। आइये समझने का प्रयास करते हैं हैं इस मृत्यु के समय और उसके तुरंत बाद की उहापोह पूर्ण भरी स्थिति को इस संक्षिप्त लेख के द्वारा।
मृत्यु के समय क्या होता है?
आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वह स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट झेला होता है ।यह हथियार डालना आवश्यक होता है, आत्मा को शरीर के मोह से मुक्त होने के लिए। प्रायः मृत्यु के तुरंत बाद की स्थिति की अनिश्चितता के कारण आत्मा शरीर से चिपके रहना चाहती है। पर जीवन की अवधि पूर्ण होने के पश्चात उसके लिए नियत श्वासों की संख्या भी समाप्त हो जाती है। श्वासों के द्वारा ही प्राण ऊर्जा शरीर में एकत्र होती है और इसके अभाव में आत्मा को घोर कष्ट झेलना पड़ता है।
इसलिए मृत्यु के समय में गीता के ८वें अध्याय या फिर अन्य अध्यायों को पढ़ने का परामर्श दिया जाता है ताकि आत्मा शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता को समझ कर शरीर के अनुचित मोह से मुक्त हो सके। इससे उसकी मृत्यु आसान होने में सहायता मिलती है एवं आत्मा की मुक्ति का मार्ग खुलता है।
अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । व्यक्ति के मनः पटल पर उसके जीवन की मुख्य मुख्य घटनाएं एक मूवी की तरह से सामने आती हैं। व्यक्ति उन्हें देखकर अपने जीवन का एक संक्षिप्त आकलन करता है। उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक ‘धनंजय प्राण’ को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं ।
मृत्यु के समय पंच प्राणो द्वारा सूक्ष्म शरीर के निर्माण
हमारे शरीर में ५ प्राण और २ उप प्राण होते हैं। ये पांच प्राण – प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, के नाम से जाने जाते हैं। शरीर के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग कार्य करने के कारण ही इनका ये नाम पड़ा है। वस्तुतः ये सभी प्रकृतिस्थ ऊर्जा के ही भिन्न-भिन्न आयाम हैं। इनके अलावा धनञ्जय, कृंकल आदि उपप्राण होते हैं। इनमें से मृत्यु के कुछ समय पश्चात तक केवल धनञ्जय प्राण ही शरीर में शेष रहता है है।
ये पाँच प्राण, मृत्यु के समय आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है । धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।
आप इस प्रकार समझिये की जैसे कोई किसी वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान में आरोपित कर रहे हैं वैसे ही धनञ्जय उप प्राण आत्मा को स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में आरोपित करता है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि आत्मा ईश्वर तत्व प्रधान है, जबकि प्राण प्रकृति तत्व प्रधान। इसलिए आत्मा को प्राण की शक्ति आवश्यक होता है स्थूल शरीर से निकल कर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश के लिए। कहा भी गया है शक्ति के बिना शिव शव हैं। अतः कोई भी शरीर हो स्थूल या सूक्ष्म उसमें आत्मा और प्राण का संयोग आवश्यक है।
बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है ।
उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है। सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है। सांँस उखड़ने लगती है। बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं। स्वाभाविक है जब प्राण ऊर्जा नहीं रहेगी तो उससे चलने वाले शरीर के बाकी कार्य तो बंद होंगे ही।
अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है – तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है ।
बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है – यह चौथा आयाम होता है ।
फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है ।
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि योगी मूर्च्छा में नहीं शरीर त्यागते वरन पूर्णतः जागृत अवस्था में रहते हुए अपने आत्मा की गति को नियंत्रित करते हुए सिर पर स्थित ब्रह्मरंध्र से निष्क्रमण करते हैं। सामान्य मनुष्य और योगियों के मृत्यु में यही अंतर होता है। अपने जीवन भर के प्रयासों से उन्होंने पहले से ही अपने सूक्ष्म शरीर से भी सूक्ष्मतर कारण शरीर, महाकारण शरीर, ब्रह्म शरीर या आत्म शरीरों का विकास कर लिया होता है। अपनी समाधि में मृत्यु (या शरीर के अंतिम बहिर्गमन कहें तो) ये बस इस स्थूल शरीर को आखिरी बार छोड़कर उन उच्चतर शरीरों में प्रवेश कर जाते हैं। अति उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद उन्हें पुनर्जन्म की बाध्यता नहीं होती। इसे ही जन्म मरण के बंधन से मुक्ति कहते हैं।
मृत्यु के समय इतर योनियों की उपस्थिति
शरीर छोड़ने से पहले – केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है – ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे – और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है ।
इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक सूक्ष्म क्षमतावान होती है जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं ।
जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के रूप में होते है उसे लेने आते हैं और व्यक्ति कभी कभी उन्हें यमदूत भी समझ लेता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं । यद्यपि यमदूतों का भी अलग से अस्तित्व होता है और कई बार मृत्युलोक के आत्माओं को ही यमदूतों के कार्य पर नियुक्त किया जाता है। यह अलग प्रसंग है, इस पर फिर कभी बात करेंगे।
शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है। सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।
मृत्यु के समय आत्मा शरीर के किस अंग से निकलती है ?
आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है। जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है। क्योंकि इनकी वासनाये अभी भी इन इन्द्रियों में रमी होती हैं। सामाजिक मान-सम्मान पद अदि में अत्यधिक लिप्त व्यक्तियों की आत्माएं नाभि मार्ग से निकलती हैं। जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष हैं उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है ।
अब तक शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है। लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता। जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके है उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है। योगी पुरुष पुरुषों के लिए तो उच्चतर सूक्ष्म, कारण, महाकारण आदि शरीर उनके जीवन काल में ही बन चुके होते हैं। उन्हें केवल उनमें प्रवेश करना होता है।
अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त हैं परंतु बुद्धिमान हैं, ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त हैं , ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।
हिंदू धर्म-शास्त्र में – दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि – दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये ।
ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है। प्रेत शरीर एक इच्छा या वासना शरीर है। यह व्यक्ति की अंतिम समय इच्छाओं वासनाओं आदि के अनुरूप ही निर्मित होता है। मृत्यु समय के कष्ट की स्मृति के कारण यह प्रायः अत्याधिक दुखमय ही होता है।
अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है ।
एक और बात, मृत्यु के समय आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है । लेकिन कण्ठ अवरुद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्थिति में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में ‘गंगा-जल’ डालने का विधान है।
यही कारण है कि दस गात्र के दस दिन के अंदर मृतक का सभी सम्बन्धी जल से तर्पण करते हैं। हर दिन तर्पण की अंजलि की मात्रा बढ़ाते जाते हैं।
इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का ‘पीपल’।यहाँ आत्मा के लिये ‘यमघंट’ बंँधा होता है । जिसमें पानी होता है। यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है ।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है कि – मृतक के लिये यह सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले ।
असमय मृत्युग्रस्त आत्मा की क्या गति और मुक्तिके लिए अन्य विशेष प्रकार के विधान करने होते हैं।
मृत्यु के समय भगवान नाम के जप का महत्त्व
अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध न हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी न बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहांँ से उसकी मुक्ति होगी, कहना कठिन होगा l
हांँ, कुछ उपाय अवश्य हैं। पहला तो यह कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताये गये हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जायेगा , लेकिन यह करेगा कोन ?
यह संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l
दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रत रहा हो ।
इसी संदर्भ में , भक्त कहता है…
कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः
प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।
अर्थात : हे भगवान श्री कृष्ण आपके चरण कमल रुपी पिंजरे में मेरा मन रुपी राजहंस आज ही बैठ जाए क्योंकि प्राण त्यागते समय कफ वात और पित्त से कंठ रुक जाएगा और हमें इस कारण आपका स्मरण कैसे हो सकेगा।
श्रीकृष्ण कहते हैं….
कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न तु मां स्मरेत्, अहं स्मरामि तद्भक्तं ददामि परमां गतिम्।।
अर्थात : यदि कफ आदि दोषों से कोई भक्त (मरते समय) मेरा स्मरण नहीं भी कर पता तो भी मैं स्वयं उसका स्मरण करता हूँ और उसे परम गति प्रदान करता हूँ।
फिर श्रीकृष्ण को लगता है कि यह मैं कुछ अनुचित बोल गया।
पुनश्च वे कहते हैं….
कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्, तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः।
ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं, अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।
तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में हुआ हो l
अंत समय में भगवान् का नाम लेने वाले का स्वतः ही उद्धार हो जाता है। इस विषय में अजामिल की कथा प्रसिद्द है। केवल अपने बालक नारायण के नाम को पुकारने के कारण उसका उद्धार हो गया। भगवान के नाम का उच्चारण चाहे किसी भी भाव से किया जाय वह अपना प्रभाव दिखता ही.है।
एक वकील साहब ने जब भगवद्भक्त सेठ जयंदलाल जी गोयनका के समक्ष तर्क रखा की इंग्लिश में राम के मतलब मेष होता है। यदि व्यक्ति उस भाव से भगवान् का नाम ले तो भी क्या उसका कल्याण होगा। इस प्रश्न के उत्तर में जायंदलाल जी के समक्ष साक्षात् स्वयं भगवान् ने प्रकट होकर कहा कि हाँ मैं उस अवस्था में उसे अपने नाम स्मरण का फल अवश्य दूंगा। बाकी सब लोगों को जायंदलाल जी समाधी में प्रतीत हुए पुनः सचेत होकर उन्होंने सबसे वही बात प्रकट कि। भगवान् का नाम उच्चारण चाहे किसी भी भाव से किया जाए अवश्य हो फल देता है। इसमें संदेह नहीं।
स्वयं विचार करना चाहिये कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गँवायें। एक – एक पल को सार्थक करें। हरिनाम का नित्य आश्रय लें । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जियें, न कि मन के अधीन होकर।
यह मानव शरीर बार- बार नहीं मिलता। जीवन का एक- एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापस नहीं मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें, हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करें। क्योंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिये सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहें।
वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है। अतः सदा कर्म सोच विचार कर करें। जिस प्रकार धनुष में से तीर छूट जाने के बाद वापस नहीं आता, इसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वह उस पल का कर्म वापस नहीं होता चाहे अच्छा हो या बुरा।
इसलिये इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानी स्वयं को जान लें और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहें, निरन्तर स्मरण से हम यम पाश से तो बचेंगे ही बचेंगे, साथ ही हमें भगवत् धाम भी प्राप्त हो सकेगा जो कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है ।
आयुष्यक्षणमेकोSपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः। स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।
।। हरिः ओम् तत् सत् ।।
।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
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