रला भाई गढ़वी
(मजेदार पुरानी ग्रामीणआँचलिक कहानी)
भारणिया नाम का एक छोटा-सा गांव थां उस गांव में सात-आठ घर राजा परिवार से जुड़े भाइयों और भतीजों के थे। ये सब ‘भायात’ कहलाते थें जो भी पैदावार होती, सो खा-पी लेते और पड़े रहते। उनके बीच एक गए़वी रहते थे। नाम था, रलाभाई। पर रलाभाई की किसी से कभी पटती नहीं थी। रलाभाई मुंहफट थे। कोई उनसे कुछ कहता, तो वे फौरन ही उलटकर सवाल पूछते और सामनेवाले को चूप कर दिया करते।
भायातों के पास भैसें बहुत थीं। पर रलाभाई के पास एक भी भैस नहीं थी। हां, एक भैंसा जरुर था। वह बड़े डील-डौल वाला था। भैसे के गले में एक घण्टी बंधी रहती थी। जब भैंसा चलता, तो घण्टी टन-टन-टन बजती रहती। जब रोज़ सुबह भायातों की भैसें चरने को निकलतीं, तो उनके पीछे-पीछे रलाभाई भी अपने भैंसे के साथ निकल पड़ते और कहते:
टन-टन घण्टी बजती है,
रला का भैसा चरने जाता है।
होते-होते कई दिन बीत गए। गांव के लोगों को लगा कि ये सारी भैसें रलाभाई की होंगी, इसीलिए वे कहते हैं:
टन-टन घण्टी बजती है,
रला का भैंसा चरने जाता है।
जब भायातों को इसका पता चला, तो वे नाराज हो गये। सब कहने लगें, “लो, देखा, यह स्वयं इतनी भैसों का मालिक बन गया है! इसकी अपनी तो एक बांडी भैंसे भी नहीं है। फिर यह क्यों कहता है:
टन-टम घण्टी बजती है,
रला के ढोर चरने जाते है।
इसका तो अपना एक बड़ा भैंसा ही है। भैंसे के गले में इसने एक घण्टी बांध रखी है। बस, इतने में ही यह बहक गया-सा लगता है। अच्छा है, किसी दिन इसे भी समझ लेंगे।”,
मौका पाकर भायातों ने रलाभाई के भैंसे को मार डाला। सबने कहा, “बला टली!”
रलाभाई बड़े घाघ थे। वे इस बात को पी गए। मन ही मन बोले, ‘ठीक है, कभी मौक़ा मिलेगा, तो मैं देख लूंगा।‘,
रलाभाई ने भैंसे की पूरी खाल चमार से उतरवा ली। खाल की सफाई करवा लेने के बाद उन्होंने उसकी तह काट ली और सिर पर उठाकर चल पड़े।
चलते-चलते एक घने जंगल में पहुंचे। वहां बरगद का एक पेड़ था। उसका नाम था, चोर बरगद।सब चोर जब भी चोरी जब भी चोरी करके आते, तो इसी बरगद के नीचे बैठकर चोरी के माल का बंटवारा किया करते। रलाभाई बरगद पर चढ़कर ‘बैठ गए। डाल पर चमड़ा टांग दिया।
जब रात के दो बजे, तो चोऱ वहां पहुंचे। किसी नगर सेठ की हेवली में सेंध लगाकर और बड़ी चोरी करके वे वहां आए थे। चोर चोरी के माला का बंटवारा करने बैठे। एक चोर नपे कहा, ” सुनों भैया, कोई अपने पास का माल दबाकर रखेगा, तो उस ऊपर से आसमान टूट पड़ेगा”
बंटवारा करते सयम एक चोर ने पीछे कोई चीज़ छिपाई। रलाभाई नेइसे देख लिया। उनहोंने ऊपर से चमड़ा फेका, जो कड़कड़ाता हुआ नीचे गिरा।
चारे बोले, “भागो रे, भागो! यह तो कड़कड़ाती हुई बिजली गिरी है।”
चोर डर गए और भाग खड़े हुए। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तक नहीं। बाद में बड़े आराम के साथ रलाभाई नीचे उतरे और सारी माया लेकर अपने घर पहुंचे।
अपने झोंपडे का दरवाजा बन्द करके रलाभाई रुपए गिनने बैठे। वे सुनकर पास-पड़ोस के लोग कहने लगे, “अरे, इपन रलभाई के पास तो एक कानी कौड़ी तक नहीं थी अब ये इतने बड़े पैसे वाले कैसे बन गए?”,
सबने पूछा, “रलाभाई! इतनी बड़ी कमाई आप कहां से कर लाये?”
रलाभाई ने कहा, “मैंने अपने भैंसे का चमड़ा जो बेचा, उसी के ये दाम मिले हैं। ओहो, उधर चमड़े की कितनी मांग है! बस, कूछ पूछिए मत। मेरा तो एक ही भैंसा था। उसके मुश्किल से इतने रुपए मिले हैं। अगर कई भैंसे होते, तो एक लाख रूपय मिल जाते ।”
भायातों को पता चला। उन्होंने कहा, “तो आओ हम भी चलें, और रलाभाई की रतह कमाई करके लायें।” भायातों ने अपनी सब भैंसें मार डालीं। उनकी खालें उतरवाई। खालों की सफाई करवाई, और सिर पर खालें रखकर बेचने चले ।
लेकिन इतनी सारी खालें कौन खीरदता? मुश्किल से चार-छह खालें बिकीं और दस-पन्द्रह रूपए मिले। खालों के लाख रूपये कौन देने बैठा था!
शाम हुई और भायात सब इकट्ठे हुए। सबने कहा, “अरे, इन रलाभाई ने तो हम सबकों ठग लिया है! ठीक हैं, कभी देखेंगे।”
कुछ दिनों के बाद भायातों ने इकट्ठे होकर रलाभाई का झोपड़ा जला डाला। रलाभाई बोले, ” अच्छी बात है। आप लोगों ने मेरा तो झोंपड़ा ही जलाया है, लेकिन मैं आप सबके घर न जलवा दूं, तो मेरा नाम रला गढ़वी नहीं।”
रलाभाई ने झोपड़े की राख एक थैले में इकट्ठी की। एक लद्दू बैल पर राख का थैला लादा और पालीनाना जा रहे यात्रियों के एक संघ के साथ रलाभाई भी जुड गए। संघ मे एक बूढ़ी मांजी थीं। बेचारी चल नहीं पाती थी। मांजी के पास बहुत-सा धन था। रलाभाई के लद्दू बैल को देखकर मांजी ने कहा, “भैया! क्या अपने इस बैल पर मुझे बैठा लोगे?”
रलाभाई बोले, ” मांजी, मैं ज़रुर बैठा लूंगा। लेकिन इस थैले में मेरा धन भरा है। अगर बैल पर बैठे-बैठे आपने हवा नहीं निकालें, तो मैं आपको बैठने दूं।”
मांजी ने कहा, “भैया! मुझे तुम्हारी बात मंजूर है।”
चलते-चलते पालीनाना आ पहुंचा और मांजी बैल पर से उतर पड़ी। रलाभाई ने कहा, “मांजी, जरा, ठहरिए। मुझे अपना धन देख लेने दीजिए।”
थैले में तो राख ही थी। देखने पर राख ही दिखाई पड़ी। रलाभाई ने कहा, “मांजी! इसमें तो राख है। क्या आपनें हवा निकाली?”
मांजी सच बोलनेवाली थीं। बेचारी बोलीं, “हां भैया! थोड़ी हवा निकाली तो थी।”
रलाभाई बोले, “तब तो मांजी! आपको अपना सब धन मुझको दे देना होगा।”
मांजी ने लाचार होकर अपना सारा धन दे दिया। रलाभाई मांजी का धन लेकर घर लौटे। रात होते ही रलाभाई फिर रुपये खनखनाने बैठ गए। लोगों ने पूछा, “रलाभाई! इतने रुपये तुम और कहां से ले आए!
रलाभाई ने कहा, “मेरे झोंपड़े की जो राख निकली थी, उसे मैंने बेचडाला। उसी के ये रूपय मिले हैं। मेरा कोई बड़ा घर तो था ही नहीं, जो मुझे ज्यादा रूपय मिलते, नहीं तो एक लाख रुपय मिल जाते।”
भायातों ने सोचा-‘आओं, हम सब भी वहीं करें, जो रलाभाई ने किया है। रलाभाई इतने मालदार बन जायं,तो भला हम क्यों पीछे रहें?’
भायातों ने जमा होकर अपने सारे घर जला डाले। इन घरों की राख के बड़े बड़े ढेर खड़े हो गए। भायात टोकनों में राख भर-भरकर उसे बेचने निकले बोलते चले-” लेनी है, किसी को राख? राख लेनी है?”
गांव के लोगों ने कहा, ” राख को तो तुम अपने सिरों पर ही मल लो भला इतनी राख कौन खरीदेगा?”
सब उदास चेहरे लेकर घर वापस आए। सबने कहा, ” इन रलाभाई तो हमें खूब ही ठगा!”
फिर रलाभाई ने अपने लिए बड़े-बड़े घर बनवाए। बहुत-सी भैंसे खरी ली। एक भैंसा भी पला लिया, और उसके गले में एक घण्टी लटका दी।
अब तो रलाभाई अपनी भैंसों के साथ भैसें को जगंल मे चराने ले जा और रास्ते-भर गाते जाते:
टन-टन घण्टी बजती है,
रलाभाई की भैंसे चरती हैं।.
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