जगन्नाथ प्रभु को कर्माबाई की खिचड़ी का भोग कैसे लगा ??
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व झांसी उत्तर प्रदेश में श्री रामशाह प्रतिष्ठित तेल व्यापारी थे। वे एक समाज सुधारक, दयालु, धर्मात्मा एवं परोपकारी व्यक्ति थे। उनकी पत्नी को शुभ नक्षत्र, मे चैत्र माह के क्रष्ण-पक्ष की एकादशी को संवत 1073 विक्रम में एक कन्या का जन्म हुआ। विद्धान पण्डितो दूारा कन्या की जन्मपत्री बनाई गई।
पण्डितो ने ग्रह, नक्षत्र का शोधन करके कहा- राम शाह तुम बहुत ही भाग्यवान हो जो ऐसी गुणवान कन्या ने तुम्हारे यहां जन्म लिया है। वह भगवान् की उपासक बनेगी।
शास्त्रानुसार पुत्री का नाम कर्माबाई रखा गया। बाल्यावस्था से ही कर्मा जी को धार्मिक कहानिया सुनने की अधिक रुचि हो गई थी। यह भक्ति भाव मन्द-मन्द गति से बढता गया।
कर्मा जी के विवाह योग्य हो जाने पर उसका सम्बंध नरवर ग्राम के प्रतिष्ठित व्यापारी के पुत्र के साथ कर दिया गया। पति सेवा के पश्चात कर्माबाई को जितना भी समय मिलता था वह समय भगवान् श्री कृष्ण के भजन-पूजन ध्यान आदि में लगाती थी। उनके पति पूजा, पाठ, आदि को केवल धार्मिक अंधविश्वास ही कहते थे।
एक दिन संध्या को भगवान कृष्ण जी की मूर्ति के पास बैठी कर्माबाई भजन गा रही थी और भगवान के ध्यान में मुग्ध थी। एकाएक उनके पति ने आकर भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति सिंहासन पर से उठाकर छिपा दी।
कर्मा ने जब नेत्र खोले तो भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति को अपने स्थान पर ना देख कर एकदम आश्चर्यचकित होकर चारों तरफ देखने लगी और घबड़ाकर गिर पडी। गिरते ही वह मूर्छित हो गई।
उनके पति ने तुरंत अपनी गोद में उठा लिया और भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति देकर कहने लगे कि इनकी भक्ति करते करते इतना समय व्यतीत हो चुका है। कभी साक्षात प्रभु के दर्शन भी हुए हैं।
कर्मा ने उत्तर दिया मैं विश्वास रखती हूं कि एक न एक दिन मुझे वंशीधारी के दर्शन अवश्य ही होगे।
सामाजिक और धार्मिक कार्यो में तन, मन, और धन से लगनपूर्वक लगे रहना उनमें अत्यधिक रुचि रखना, दीन-दुखियो के प्रति दया भावना रखना । इन सभी कारणों से कर्माबाई का यशगान नरवर ग्राम (ससुराल) में बडी तेजी से फेलने लगा ।
उसी समय नरवर ग्राम के राजा के हाथी को खुजली रोग हो गया था । जिसे राज्य के श्रेष्ठ वैधों के उपचार से भी ठीक नही किया जा सका । हाथी की खुजली ठीक करने हेतु उसे तेल से भरे कुन्ड में नहलाने का सुझाव किसी ने राजा को दिया ।
राज्य के समस्त तेलकारों को राजा के द्वारा आदेश दिया गया कि वे अपना समस्त तेल बिना मूल्य एक कुण्ड में डालें जिससे कि वह कुण्ड भर जावें । राजा के अन्याय के कारण अधिकांश तेलकार भूखों मरने लगें एक माह के पश्चात भी अन्यायी राजा का कुण्ड तेल से ना भरा जा सका ।
इस अन्याय से दुखी होकर कर्माबाई श्री कृष्ण भगवान् के चरणों में गिर पडी और रोकर कहने लगी हे दयामय मुरलीधारी निर्धनों, निर्बलों की रक्षा कीजिये । चमत्कार दिखाईये प्रभु!
दूसरे दिन प्रातः राजा ने कुण्ड को तेल से भरा पाया । तब भगवान के चमत्कार को समझ कर राजा ने कर्मा जी से क्षमा मांगी ।
एक बार कर्मा जी के पति बहुत बीमार हो गये थे बहुत उपचार के उपरान्त भी उन्हें नहीं बचाया जा सका । पति के स्वर्गवास हो जाने पर कर्मा पागल की भांति श्री कृष्ण के चरणों में जाकर फूट-फूटकर रोने लगी और कहा- “हे दीनानाथ भगवान तूने मुझे विधवा बना दिया व मेरा सुहाग छीनकर मुझे असहाय कर दिया है । तुम्हें अपने भक्तों पर दया दृष्टि रखना चाहिए।”
पति के स्वर्गवास होने के तीन माह उपरान्त कर्मा जी के दूसरे पुत्र का जन्म हुआ । उसका प्रतिदिन का समय दोनों बालको के लालन-पालन और भगवान की भक्ति में व्यतीत हो जाता था ।
तीन वर्ष के पश्चात कर्मा को भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा हुई तब एक दिन सुध-बुध भूलकर आधी रात के समय अपने वृध्द माता पिता और दोनो बच्चों को सोता छोड़ कर प्रभु के ध्यान में लीन घर से निकल गई ।
घोर अंधकार को चीरती हुई भगवान जगन्नाथ पुरी के मार्ग की और चली गई । उसे यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि वह कितनी दूरी चल चुकी है । लगातार कई दिनो तक चलते रहने के कारण से अब कर्मा जी को अत्यन्त पीड़ा होने लगी थी, वह वृक्षों की पत्तियां खाकर आगे बढ़ी, राह में कर्मा भजन गाती हुई जगन्नाथ जी के विशाल मन्दिर के प्रमुख द्वार पर पहुची ।
एक थाली में खिचड़ी सजाकर पुजारी जी के समक्ष भगवान् को भोग लगाने हेतु रख दी। पुजारियों ने इस दक्षिणा विहीन जजमान को धक्के मारकर बाहर कर दिया।
बेचारी उस खिचड़ी की थाली को उठा कर समुद्र तट की और चल दी और समुद्र के किनारे बैठकर भगवान् की आराधना करने लगी कि घट-घट व्यापी भगवान् अवश्य ही आवेंगे और इस विश्वास में आंख बन्द करके भगवान् से अनुनय-विनय करने लगी कि जब तक आप आकर भोग नही लगावेंगे तब तक मै अन्न ग्रहण नही करूंगी ।
यह तो भोग प्रभु के निमित्त बना है । सुबह से शाम तक भगवान की प्रतीक्षा करती रही । धीरे धीरे रात ढलती गई और प्रभु के ध्यान में मग्न हो गई ।
एकाएक भगवान की आवाज आई कि “मां! तू कहां है ? मुझे भूख लगी है ” इतने अंधकार में भी उसे प्रभु की मोहनी सूरत के दर्शन हुए और प्रभु को अपनी गोद में बैठाकर खिचड़ी खिलाने लगी । इसके बाद कर्मा मां ने प्रभु की छोड़ी हुई खिचड़ी ग्रहण की और आन्नद विभोर होकर सो गई ।
सुबह के प्रथम दर्शन में पुजारी ने देखा कि भगवान के ओंठ एवं गालों पर खिचड़ी छपी हुई है तभी पुजारी लोग बोखला उठे और कहने लगे कि यह करतूत उसी कर्मा की है जो चोरी से आकर प्रभु के मुंह पर खिचड़ी लगा कर भाग गई है ।
राज दरबार में शिकायत हुई कि कर्मा बाई नाम की ओरत ने भगवान के विग्रह को अपवित्र कर दिया । सभी लोग ढूढते हुऐ कर्मा के पास समुद्र तट पहुँचे और पकड़ कर राजा के पास ले गये ।
राजा ने कर्मा को भगवान् के विग्रह को अपवित्र करने के बदले उसके हाथ फरसा से काटने की आज्ञा सुना दी गई ।
परन्तु प्रभु का कोतुक देखिए। कि ज्यों ही उस पर फरसे से वार किया गया तो दो गोरवर्ण हाथ कटकर सामने गिरे, परन्तु कर्माबाई ज्यो की त्यों खडी रही।
राज दरबारियों ने फिर से वार किया, परन्तु इस बार दो गोरवर्ण हाथ कंगन पहने हुए गिरे । तभी राज दरबारियों ने देखा की वह तो अपनी पूर्वस्थिती में खड़ी है।
अन्यायियों ने फिर से बार किया तो इस बार दो श्यामवर्ण हाथ एक में चक्र, और दूसरे में कमल लियें हुये गिरे ।
जब दरबारियों को इस पर भी ज्ञान नहीं हुआ और पागलो की तरह कर्मा पर वार करने लगें।
तब आकाशवाणी हुई “कि अरे दुष्टों । तुम सब भाग जाओ नही तो सर्वनाश हो जाएगा” और जिन्होंने हाथ काटे थे उन के हाथ गल गए। कुछ लोग भाग खड़े हुयें और कहने लगे यह जादूगरनी हैं ।
यह खबर राज दरबार में पहुची तो राजा भी व्याकुल होकर तथ्य को मालूम करने के लिये जगन्नाथ जी के मन्दिर में गये । वहाँ राजा ने देखा कि बलदेव जी, सुभद्रा जी एवं भगवान जगन्नाथ जी के हाथ कटे हैं ।
तब वहाँ के सारे पुजारियों एवं परिवारो में हाहाकार मच गया और कहने लगे कि अनर्थ हो गया।
राजा को स्वप्न में प्रभु नें आज्ञा दी कि हाथ तो माँ को अर्पित हो गये अब हम बगैर हाथ के ही रहेगे तथा प्रति वर्ष कर्मा के नाम की ही खिचड़ी का भोग पाते रहेगे ।
उस दिन से आज तक इसी पुण्यतिथि चैत्र क्रष्ण पक्ष की ग्यारस, जिस दिन की यह घटना हैं, उसी तिथि से भगवान जगन्नाथ स्वामी के मन्दिरों में भक्त कर्माबाई की खिचड़ी को ही सर्वप्रथम भगवान् को भोग लगाया जाता हैं एवं प्रसाद के रूप में खिचड़ी बांटी जाती हैं ।
तभी से यह कहावत है कि…
‘जगन्नाथ का भात जगत पसारे हाथ’
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