भगवान कार्तिकेय का पिहोवा तीर्थ मंदिर
भगवान शिव शकर के पुत्र कार्तिकेय के श्राप का भय आज भी नारी जाति के जेहन में विद्यमान है। इसके डर से पिहोवा सरस्वती तीर्थ के तट पर स्थित एकमात्र कार्तिकेय के मंदिर में नारियों का प्रवेश वर्जित है। इसके बावजूद चैत्र चौदस मेले पर भगवान कार्तिकेय का तेल से तिलक करने के लिए लंबी लंबी कतारें लगती है।
पिहोवा तीर्थ नगरी को लेकर महाभारत एवं पुराणों में जहा पृथुदक तीर्थ का विस्तार से वर्णन किया गया है और कार्तिकेय के मंदिर को इस तीर्थ की मेहता को जोड़ा है। स्वर्गीय पंडित गजानन की ओर से लिखित पृथुदक तीर्थ महात्म्य पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि जब भगवान शंकर पुत्र कार्तिकेय को राजतिलक करने का विचार करने लगे, तब माता पार्वती छोटे पुत्र गणेश को राजतिलक करवाने के लिए हठ करने लगी। तभी ब्रह्मा, विष्णु व शंकर जी सहित सभी देवी देवता एकत्रित हुए और सभा में यह निर्णय लिया गया कि दोनो भाईयों में से समस्त पृथ्वी का चक्कर लगा कर जो पहले पहुंचेगा, वही राजतिलक का अधिकारी होगा।
समाजसेवी सुभाष पौलत्सय ने बताया कि ग्रंथों में लिखा है कि भगवान कार्तिकेय प्रिय वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए चल पड़े और जब गणेश जी अपने वाहन चूहे पर बैठकर चक्कर लगाने के लिए जाने लगे, तभी माता पार्वती गणेश जी को कहने लगी कि वत्स तुम यहीं पर इक्टठे हुए समस्त देवगणों की परिक्रमा कर डालो क्योकि त्रिलोकी नाथ यहीं विद्यमान है। माता पार्वती के ऐसा समझाने पर गणेश जी ने तीन चक्र लगा कर भगवान शंकर जी को प्रणाम किया और कहा कि हे प्रभु मैने संपूर्ण जगत की परिक्रमा कर ली है। भगवान शंकर जी विस्मित हुए और उन समेत सभी ने गणेश जी को राजतिलक कर दिया और शुभ अशुभ कार्यो में पूजा का अधिकार दे दिया। उधर मार्ग में नारद जी ने कार्तिकेय जी को सारा वृतांत कह डाला। कार्तिकेय जी अतिशीघ्र परिक्रमा पूरी करके सभा स्थल पर आ पहुंचे और माता पारवती जी से सारा हाल जान कर बोले, हे माता आपने मेरे साथ छल किया है। बडा होने के नाते भी राजतिलक पर मेरा ही अधिकार था। तुम्हारे दूध से यह मेला खाल व मांस बना हुआ है, मैं इसको अभी उतार देता हूं। अत्यन्त क्रोधित होकर कार्तिकेय जी ने अपना खाल व मांस उतार कर माता के चरणों में रख दिया और समस्त नारी जाति को श्राप दिया कि मेरे इस स्वरूप के जो स्त्री दर्शन करेगी, वह सात जन्म तक विधवा रहेगी , तभी देवताओं ने उनके शारीरिक शांति के लिए तेल व सिन्दूर का अभिषेक कराया जिससे उनका क्रोध शांत हुआ और शंकर जी व अन्य देवताओं ने कार्तिकेय जी को समस्त देव सेना का सेनापति बना दिया। तब भगवान कार्तिकेय जी पृथुदक में सरस्वती तट पर पिंडी रूप में स्थित हो गए और कहा कि जो व्यक्ति मेरे शरीर पर तेल का अभिषेक करेगा, उसके मृत्यु के प्राप्त हो गए पितर आदि बैकुंठ में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष के अधिकारी होगें और कर्म, क्रिया, पितर पिंड आदि कार्य सरस्वती पर करवाने के बाद उनकी मेरे द्वारा साक्षी होगी ।
उत्तरी भारत में कर्म क्रिया प्रणाली को बनाए रखने व मनुष्यों के कल्याणार्थ पिहोवा में कार्तिकेय जी का अति प्राचीन मंदिर है। मंदिर में दिन रात जो अखंड ज्योति जल रही है, वह भी भगवान कृष्ण जी ने युधिष्ठिर द्वारा तब प्रज्जावलित करवाई थी, जब महाराभारत युद्घ में मृत्यु का प्राप्त हुए उनके सगे संबंधी जिसके पृथुदक सरस्वती तट पर कर्म पिंडादि संपन्न करा कर भगवान कार्तिकेय पर तेल का अभिषेक कराया था। अब भी यह प्रथा जारी है तथा चैत्र चौदस पर लाखों तीर्थ यात्री कार्तिकेय पर तेल चढ़ाने से कदापि नहीं चूकते।
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